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Friday, 22 November, 2024
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‘क्या ही होता…मर जाते हम?’ MP में पन्ना के आदिवासियों को नहीं है टेस्ट या टीकों की परवाह

मध्य प्रदेश के आदिवासी-बहुल ज़िले पन्ना में, ग्रामीणों का कहना है कि वो ‘अपने आप कोविड से ठीक हो गए हैं’. उन्हें अब वैक्सीन नहीं चाहिए, और कहते हैं कि सुईं की बजाय, वो वायरस से मरना पसंद करेंगे.

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पन्ना (मध्य प्रदेश) : मध्य अप्रैल के क़रीब, 31 वर्षीय पाना को तेज़ बुख़ार हो गया, और साथ में उसके पति और एक साल के कुपोषित बच्चे को भी.

हीरे की खदान में एक मज़दूर के तौर पर, उसे हर कुछ महीनों के बाद कमज़ोरी महसूस होने की आदत थी. लेकिन, उसने कहा कि इस बार, उसे ऐसा लगा कि जैसे उसका ‘पूरा बदन दर्द कर रहा था’.

उसने अपने विस्तृत परिवार का पता किया, जो सब उससे कुछ फीट की दूरी पर रहते हैं- हर किसी में यही लक्षण दिख रहे थे.

जल्द ही पाना की समझ में आ गया, कि मध्य प्रदेश के पन्ना ज़िले के उसके कल्याणपुर गांव में, तक़रीबन हर घर के लोग, उसी तरह के बुख़ार और बदन दर्द से पीड़ित थे.

पाना जानती थी कि ये लक्षण, साफ तौर पर कोरोनावायरस के थे. लेकिन, उसने कहा कि कि वो किसी भी क़ीमत पर, टेस्ट कराने के लिए तैयार नहीं हो सकती थी.

उसने कहा, ‘मैं माता के मंदिर गई, मूर्ति के पैरों को दबाया, और मेरा दर्द ख़त्म हो गया. दूसरे गांव वालों ने भी यही किया’.

अत्यंत ग़रीबी और ग़लत जानकारियों के इस मेल ने, पन्ना के आदिवासियों को, अस्पतालों और कोविड-19 टीकों से दूर रखा है.

मसलन, पाना को ही ले लीजिए. इस आदिवासी-बहुत ज़िले के बहुत से दूसरे लोगों की तरह, वो भी जीविका के लिए हीरे की खदानों में काम करती है.

लेकिन एक के बाद एक लॉकडाउन्स- मध्यप्रदेश अप्रैल में आंशिक रूप से बंद था, लेकिन अब 24 मई तक वहां कड़ा लॉकडाउन है- का मतलब है कि पाना जैसे दिहाड़ी मज़दूरों की आजीविका छिन गई है.

उसके जैसे बहुत से लोग ‘सिर्फ रोटी-नमक पर ज़िंदा हैं’.

इसके अलावा, पिछले साल लॉकडाउन की शुरूआत में, उसके पति के साथ एक दुर्घटना हो गई थी. दंपत्ति का कहना है कि वो इतना भी नहीं कमा पा रहे, कि अपने कुपोषित को ठीक से खिला सकें.

ये समझाते हुए कि वो टेस्ट क्यों नहीं कराना चाहती, उसने कहा, ‘मेरे पास कोई रास्ता नहीं है पैसा जुटाने का, कि मैं इलाज या अस्पताल में बिस्तर का ख़र्च उठा पाऊं’.

उसने आगे कहा, ‘क्या ही होता…मर जाते हम? मरना भगवान के हाथ में है’.

एक और गांव वासी राम अवतार ने कहा, ‘गांव में वो हर किसी को था’.

उसने कहा, ‘कोई टेस्ट नहीं कराना चाहता था. अगर वास्तव में टेस्ट कराए जाते, तो कम से कम 250 लोग पॉज़िटिव निकलते. लेकिन वो ख़ुद से ठीक हो गया. कुछ ने जड़ी बूटिंयां लीं, और कुछ ने सिर्फ आराम किया’.

‘अगर मैं टीके की वजह से मर गई… ’

हालांकि सभी ग्रामीणों का दावा है, कि वो सभी बिना किसी इलाज या वैक्सीन के ठीक हो गए, लेकिन टीके लगाए जाने की संभावना को लेकर उनमें गुस्सा है.

47 वर्षीय गुलाब बाई ने बताया, कि पिछले महीने एक आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता, उसे और कुछ अन्य ग्रामीणों को, टीके का पहला डोज़ लगवाने के लिए, पन्ना शहर लेकर गई थी. लेकिन अब वो फिर से दूसरी ख़ुराक के लिए नहीं जाना चाहती.

उसने कहा, ‘मुझे कोरोनावायरस का डर नहीं है, मुझे टीके से डर लगता है’.

गुलाब बाई ने आगे कहा, ‘हम सुईं के हाथ से क्यों मरें…बेहतर है बीमारी से अपनी मौत मरें’.

गांव के दूसरे बहुत से लोगों ने भी इसी तरह, ‘टीके से मरने’ के डर का इज़हार किया.


यह भी पढ़ें : BJP ‘मुस्लिम विरोधी’, टीके हमें ‘बांझ’ कर देंगे – क्यों बिहार के ये मुस्लिम गांव कोविड वैक्सीनेशन से दूर भाग रहे हैं


एक मज़दूर पार्वती गौड़ ने पूछा, ‘मुझे बहुत डर लगता है. अगर मैं टीके की वजह से मर गई, तो मेरे बच्चों को कौन देखेगा?’

जब उससे पूछा गया कि उसके डर का आधार क्या है, तो उसने कहा, ‘मैंने लोगों को मरते हुए सुना है…यहां नहीं बल्कि दूर की जगहों पर. मुझे नहीं पता कि ये सही है कि नहीं, लेकिन मैं यही सुना है’.

इन हिस्सों में फैली है ग़लत जानकारी

पन्ना की आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता टीकों के प्रति झिझक का कारण, इन क्षेत्रों में फैली ग़लत जाकारियों को क़रार देते हैं.

पन्ना के एक आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता दुर्गेश यादव ने कहा, ‘यहां पर किसी को नहीं लगता कि कोरोना के टेस्ट कराने, या बाक़ायदा इलाज कराने की ज़रूरत है. मैं उन्हें टीका लगवाने के लिए कहता रहता हूं, लेकिन वो कभी नहीं आते. वो कहते हैं कि ये सब अफवाहें हैं, और उन्हें इनके साइड इफेक्ट्स से भी डर लगता है’.

स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं का कहना है, वैक्सीन के मामले में आदिवासी मज़दूरों पर, विशेष तवज्जो दिए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि वो कोविड-19 के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं.

पन्ना में महिलाओं तथा बच्चों के स्वास्थ्य के लिए काम करने वाली एक एनजीओ, पृथ्वी ट्रस्ट के कम्यूनिटी मोबिलाइज़र रविकांत पाठक ने कहा, ‘ऐसे बहुत से आदिवासी मज़दूर दिन रात काम करते हैं, और उनमें ख़ून की कमी हो जाती है. उनके बच्चों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है. इसकी वजह से ये वर्ग कोविड के प्रति बहुत संवेदनशील हो जाता है, और उनपर विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘पहली लहर में वो उतने प्रभावित नहीं थे, क्योंकि वायरस मुख्य रूप से शहरों तक सीमित था, लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है’.

पन्ना के ज़िला मजिस्ट्रेट संजय कुमार मिश्रा ने कहा, कि ‘कुछ गांवों’ में वैक्सीन को लेकर लोगों में झिझक है.

मिश्रा ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमने फील्ड में टीमें भेजी हुई हैं, जो लोगों को वैक्सीन के प्रति जागरूक करने की कोशिश कर रही हैं; लोगों को वैक्सीन के लिए राज़ी करने के लिए, मिलजुल कर प्रयास करना होगा’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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