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Thursday, 19 December, 2024
होमदेश‘दरवाजा खटखटाया है, अब ड्राइंग रूम में घुसेंगे’- एंटी-नक्सल कैंप पर पुलिस और आदिवासी नेताओं के बीच टकराव

‘दरवाजा खटखटाया है, अब ड्राइंग रूम में घुसेंगे’- एंटी-नक्सल कैंप पर पुलिस और आदिवासी नेताओं के बीच टकराव

बस्तर के अधिकारियों का कहना है कि सिलगेर में सिक्योरिटी कैंप के खिलाफ प्रदर्शन के पीछे माओवादी हैं. वहीं आदिवासी नेताओं और एक्टिविस्ट ने इस शिविर को अवैध बताया और वे 17 मई की गोलीबारी की घटना की जांच की मांग कर रहे हैं.

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रायपुर: छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले का सिलगेर गांव प्रशासन और आदिवासी नेताओं के बीच गंभीर टकराव का मुद्दा बन गया है. एक तरफ पुलिस ने जहां क्षेत्र में एक संयुक्त सुरक्षा बल शिविर स्थापित करने का अपना अधिकार बताया है, वहीं स्थानीय लोग इसके विरोध पर अड़े हैं.

यह टकराव गत 11 मई को छत्तीसगढ़ पुलिस की तरफ से गांव में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), जिला रिजर्व गार्ड और कोबरा कर्मियों का एक संयुक्त शिविर स्थापित किए जाने के बाद शुरू हुआ है. शिविर में सुरक्षा कर्मियों की संख्या करीब 130 होने का अनुमान है. स्थानीय लोग इसे अवैध बताते हुए उसी समय से इसका विरोध कर रहे हैं.

17 मई को इसी जगह पर पुलिस फायरिंग की घटना में चार प्रदर्शनकारी मारे गए थे. आदिवासी नेताओं का कहना है कि मारे गए लोग स्थानीय नागरिक थे और उन्होंने इस मामले में न्याय दिलाने के लिए हाई कोर्ट के जज के नेतृत्व में जांच की मांग की है. पुलिस का दावा है कि मारे गए लोग माओवादी थे.

अभी बस्तर क्षेत्र में नक्सल विरोधी अभियानों का नेतृत्व कर रहे अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि विरोध प्रदर्शनों के पीछे माओवादी हैं. उनके मुताबिक माओवादियों से मुकाबले के लिहाज से सिलगेर प्रशासन के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अहम क्षेत्र है क्योंकि यह गांव नक्सलियों के गढ़ में घुसने के लिए प्रवेश द्वार जैसा है.

क्षेत्र में माओवादी विरोधी अभियान की कमान संभाल रहे बस्तर के महानिरीक्षक सुंदरराज पी ने कहा, ‘यह कुछ ऐसा है कि अब हमने उनका दरवाजा खटखटा दिया है. अगली बार हम उनके ड्राइंग रूम में घुसेंगे.’

अधिकारी ने कहा, ‘सिलगेर में सुरक्षा बलों का शिविर स्थापित होना दक्षिणी-बस्तर के गढ़ में नक्सलियों की जबरन वसूली संबंधी गतिविधियों के लिए एक बड़ा झटका है. वे अपने ठिकानों तक हमारा मार्च रोकने के लिए हरसंभव कोशिश करेंगे. मौजूदा समय में चल रहा विरोध उसी का हिस्सा है. इसके संचालन का काम माओवादियों ने संभाल रखा है.’

हालांकि, आदिवासी नेताओं का कहना है कि सुरक्षा बलों का संयुक्त शिविर, जिसमें ज्यादातर जवान सीआरपीएफ के हैं, अवैध है और इसे रातो-रात स्थापित किया गया था. उन्होंने लॉकडाउन के बीच पुलिस कैंप स्थापित किए जाने पर सरकार से सवाल किया है.

उन्होंने इस बात से भी इनकार किया कि पिछले महीने मारे गए ग्रामीण माओवादी थे और इस घटना की उच्च स्तरीय जांच की मांग की है.


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क्यों अहम है सिलगेर और विरोध को कैसे ‘मैनेज’ किया जा रहा है

सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, सिलगेर और उसके आसपास के जंगल हमेशा से माओवादियों का गढ़ रहे हैं, जहां तक पहुंचना सरकार के लिए अब भी आसान नहीं है.

यह वही बेल्ट है जहां 3 अप्रैल को नक्सलियों ने एक पुलिस गश्ती दल पर घात लगाकर हमला किया था और 22 सुरक्षाकर्मियों की जान ले ली थी. जोनागुडा गांव, जहां यह घटना हुई थी, सिलगेर से बमुश्किल 5 किलोमीटर दूर है.

अधिकारियों ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में बस्तर क्षेत्र में कई सुरक्षा शिविर स्थापित किए गए हैं लेकिन सिलगेर खास अहमियत रखता है.

विरोध प्रदर्शनों के बारे में बात करते हुए बस्तर के आईजी ने कहा कि इसमें शामिल अधिकांश लोग सिलगेर से दूर के गांवों के होते हैं. उन्होंने कहा, ‘उन्होंने जो बैनर और पोस्टर ले रखे हैं उनकी भाषा ठीक वैसी ही है जैसी 19 मई को माओवादियों द्वारा जारी बयान वाले पर्चों की थी.’

सुंदरराज ने दावा किया कि सिलगेर के स्थानीय लोग सुरक्षा बलों का पूरा समर्थन करते हैं ‘क्योंकि वे जानते हैं कि शिविरों से गांव को क्या लाभ मिलेगा, जो अक्सर इन दूरदराज के इलाकों में पीडीएस की दुकान, सड़क, बिजली और पीने के पानी जैसी बुनियादी सेवाओं के एकमात्र स्रोत के तौर पर काम करते हैं.’

अधिकारी ने यह दावा भी किया कि 17 मई को नक्सलियों और पुलिस के बीच गोलीबारी में ‘घायल’ लोगों में से कोई सिलगेर का रहने वाला नहीं था. उन्होंने जोर देकर कहा कि पुलिस को जवाबी कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि वहां मौजूद माओवादी संगठनों के करीब 3,000 सदस्यों में से कुछ ने ग्रामीणों की आड़ लेते हुए शिविर पर गोलियां चला दी थीं.

बीजापुर के पुलिस अधीक्षक कमलोचन कश्यप ने कहा, ‘शिविर हटाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है. यह बात जगजाहिर है कि सिलगेर में जारी आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ है. यहां तक कि ग्रामीण भी इसे अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन वे जबरदस्त दबाव में हैं क्योंकि नक्सलियों ने उन्हें धमकी दी है कि अगर विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं हुए तो 11,000 रुपये का जुर्माना लगाएंगे. हालांकि, मामला सुलझाने के हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं. यह गतिरोध जल्द ही खत्म हो जाएगा.’

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को उम्मीद है कि प्रदर्शनकारी जल्द ही पीछे हट जाएंगे.


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आदिवासी नेताओं ने कहा- शिविर अवैध है, पुलिस का इनकार

हालांकि, आदिवासी नेताओं और एक्टिविस्ट का तर्क है कि जिस भूमि पर शिविर स्थापित किया गया है, उस पर अवैध कब्जा किया गया है क्योंकि इसके लिए ग्राम पंचायत से अनुमति नहीं ली गई थी, जो कि भारत के संविधान की अनुसूची पांच के तहत अनिवार्य है.

जानी-मानी आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया ने कहा, ‘अनुसूचित क्षेत्रों में किसी भी विकास कार्य के लिए ग्राम सभा से अनुमति लेना अनिवार्य है, लेकिन सिलगेर शिविर 12 मई को रात के करीब 3 बजे ग्रामीणों को पूर्व जानकारी दिए बिना, ग्राम सभा के माध्यम से उनकी सहमति लेने को दरकिनार करके स्थापित किया गया था.’

भाटिया ने कहा, ‘सिलगेर के लोगों को शिविर के बारे में जानकारी दिन में एक नजदीकी गांव के लोगों के जरिये मिली. जो साप्ताहिक बाजार के लिए वहां आए थे.’

हालांकि, एसपी कश्यप ने इस आरोप से इनकार किया है. उन्होंने कहा, ‘शिविर रातो-रात नहीं लगाया गया था जैसा कि बताया जा रहा है. यह क्षेत्र में नक्सली खतरे से निपटने की सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा था क्योंकि वे सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए एक चुनौती बन गए हैं.’

कश्यप ने कहा, ‘सिलगेर विलेज कैंप को शुरू करने से पहले सभी आवश्यक कानूनी और संवैधानिक नियमों का पालन किया गया था.’


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नेताओं ने पुलिस फायरिंग की जांच की मांग की, अधिकारी बोले- सामना करने को तैयार

17 मई को गोलीबारी के बाद सबसे पहले घटनास्थल पर पहुंची भाटिया का कहना है कि चार लोगों की मौत हुई है, जिनमें से तीन लोगों (उइका पांडु, उरसा भीमा और कवासी वागा) की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि एक गर्भवती महिला ने बाद में अपने घर पर दम तोड़ा.

भाटिया ने कहा, ‘पुलिस फायरिंग के कारण मची भगदड़ में वह गंभीर रूप से घायल हो गई थी. सरकार को कम से कम हाई कोर्ट के एक मौजूदा न्यायाधीश द्वारा जांच कराने का आदेश देना चाहिए और सिलगेर में पुलिस शिविर को हटाया या निलंबित किया जाना चाहिए.’

फिलहाल एसडीएम रैंक का एक अधिकारी इस पूरे मामले की जांच कर रहा है.

अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने कहा कि वह मारे गए आदिवासियों के परिवारों से खुद मिले थे और उनका दावा है कि प्रदर्शनकारियों की ओर से कोई गोलीबारी नहीं की गई थी.

कुंजाम ने कहा, ‘पुलिस फायरिंग में मारे गए लोग निर्दोष आदिवासी थे. हम दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई और एक सेवानिवृत्त हाई कोर्ट जज द्वारा जांच की मांग करते हैं. मौजूदा मजिस्ट्रेटी जांच केवल एक कानूनी खानापूर्ती है और इससे कुछ भी नतीजा नहीं निकलेगा.’

भूपेश बघेल सरकार ने कांग्रेस विधायकों का फैक्ट फाइंडिंग पैनल भी गठित किया है.

अधिकारियों ने कहा कि वे सरकार के हर फैसले का स्वागत करेंगे और किसी भी तरह की जांच का सामना करने को तैयार हैं. सुंदरराज ने कहा, ‘सुरक्षा बलों के पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है. हमने शुरू से ही कहा है कि गोलीबारी में मारे गए लोग माओवादी थे. सारे तथ्य और ब्योरे कानून के तहत विधिवत गठित फैक्ट फाइंडिंग टीम या जांच समिति को मुहैया करा दिए जाएंगे.’


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