मुज़फ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के लिए जून का शुरूआती महीना अन्य महीनों की तरह ही था. मरीजों का आना-जाना, साथ आए परिजनों का रोना, पानी नहीं मिलना, डॉक्टरों का आना, नहीं आना, मरीजों का ठीक होकर जाना, तो कुछ का मरना. ये तो होता ही रहता है वाली स्थिति में यह सब चल रहा था.
इस बीच जापानी बुखार या मस्तिष्क ज्वर से संबंधित खबरें अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यम से मैं रांची में बैठकर लगातार पढ़ रहा था. जब 30 बच्चों की मौत हुई, तो मुझे लगा यह तो बड़ा मामला है. क्या गोरखपुर की तरह बिहार भी इसे झेलने जा रहा है. इस बीच बीमारी से संबंधित खबरें अपने फेसपुक पर अपडेट करता रहा. जब ये आंकड़ा 50 पार कर गया तो मैं काफी परेशान हो गया.
बच्चों की मौत का सिलसिला चल पड़ा था. 30 बच्चों की मौत के बाद लोग परेशान हुए. 50 का आंकड़ा पार किया तो अस्पताल थोड़ा परेशान हुआ. 90 पार करने के बाद देश और बिहार के स्वास्थ्य मंत्री अपने ज़रूरत मुताबिक परेशान हुए. 16 जून को हॉस्पिटल का दौरा किया. जब आंकड़ा सौ पार किया तो राज्य के सीएम नीतीश कुमार खानापूर्ति लायक परेशान हुए, 18 जून को हालात का जायजा लेने पहुंचे.
इधर, पटना के वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र को देखा वह स्टोरी के साथ मदद के लिए भी आगे आ रहे हैं. मैं स्टोरी के साथ मदद करना चाह रहा था. लेकिन, बतौर फ्रीलांस जर्नलिस्ट मेरी अपनी सीमाएं थी, सो स्टोरी करने नहीं जा पाया. तब मैंने आर्थिक मदद करने की सोची.
पहले रांची, जहां मैं रहता हूं, के अपने दोस्तों को 18 जून को व्हाट्सएप पर मैसेज भेजा और आर्थिक मदद की अपील की. सुबह मैसेज भेजा और दोपहर तक मेरे पास 4000 रुपए आ गए. इन पैसों को पुष्यमित्र को भेज मैंने सोचा शाम तक 6000 भेज दूंगा.
इस बीच मेरे इस मैसेज को पत्रकार सुशांत झा ने फेसबुक पर लिख दिया. शाम होते होते मेरे अकाउंट में लगभग 60 हज़ार रुपए आ गए. 19 जून की सुबह तक यह एक लाख से अधिक हो गया.
मुझे लगा जिस विश्वास पर लोगों ने ये पैसे दिए, मुझे मुजफ्फरपुर अस्पताल जाकर ही इन बच्चों की, हॉस्पिटल में मदद करनी होगी. उसी दिन शाम पांच बजे रांची से मौर्या एक्सप्रेस से मैं रवाना हो गया.
20 जून को सुबह आठ बजे हॉस्पिटल पहुंचा और सीधा इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) की ओर मुड़ा. बेड पर तड़पते बच्चे, रोती माताएं, यूनिट के बाहर परेशान उनके परिजन. इमर्जेंसी गेट के बाहर कई चैनलों की ओवी वैन, माइक थामें रिपोर्टर, कैमरा पकड़े मरीजों के परिजनों के दर्द भरे चेहरे तलाशते फोटोजर्नलिस्ट.
यह भी पढ़ें : क्या स्वास्थ्य मंत्रालय को बीमारियों को रहस्यमयी बनाने की बीमारी है
मैं हॉस्पिटल घूमने लगा. लगभग सभी वार्ड के बाहर गंदगी. पानी के लिए परेशान लोग. कोई खराब नल को बार-बार खोल रहा था, तो कोई दोनों हाथ से पकड़े चार से पांच पानी की बोतल लिए दूसरे तल्ले पर चढ़ रहा था. पूरी बिल्डिंग में जितने मरीज उससे अधिक जगहों पर पान के थूक. इस थूक के बगल में पसीने से तर हुए लोग.
हॉस्पिटल कॉरिडोर में प्लास्टिक बेड पर सो रहे मरीजों के शरीर पर भिनभिनाती मक्खियां. नाक बंद कर उसे पार करते लोग. वार्ड के बगल में शौचालय की तरफ नजर गई, थोड़ा आगे बढ़ा, अगले ही सेकेंड नाक-मुंह बंद करते लगभग दस कदम भागा.
फिर हिम्मत जुटाई. दूसरे और तीसरे तल्ले को देखने पहुंचा. आधे से अधिक लोग हाथ से पंखा हिला रहे थे. चल रहे पंखे के नीचे दस से अधिक लोग. हरेक कॉरिडोर में आधे से अधिक पंखे खराब.
एक पत्रकार साथी ने बताया कि यहां कुछ भी करने से पहले हॉस्पिटल सुपरिटेंडेंट से अनुमित लेनी होगी. उनके साथ ही सुपरिटेंडेंट के केबिन में घुसा. परेशान डॉ एसपी शाही और उनको घेरे मुस्कुराते-बतियाते आठ से दस टीवी रिपोर्टर.
उनके सवालों के बीच टोकते हुए मैंने पूछा, ‘सर मैं कुछ पंखे और वाटर प्यूरीफायर लगवाना चाहता हूं. आपकी अनुमति चाहिए.’
लगभग झिरकते हुए उन्होंने कहा कि आपको जो मदद करना है, कर दीजिए, मेरे तरफ से सब ओके है. फिलहाल यहां से जाइए.
मैं निकला. मेरे साथ मरे हुए बच्चे को गोद में उठाए एक महिला और उसके तीन परिजन एक दूसरे के साथ रोते निकल रहे थे. कैमरों के फ्लैश चमकने लगे, रोती मां के मुंह पर माइक लग गए. रोने की आवाज धीमे पड़ने लगी, क्योंकि साइरन की आवाज आने लगी. पुलिस की दो एस्कॉर्ट गाड़ी के साथ शरद यादव पहुंचे थे. उनके साथ कुल आठ गाड़ियों का काफिला. इमर्जेंसी गेट जाम.
आंकड़े गिने जा रहे थे. आवाज़ आई 103 का आंकड़ा पार कर गया जी. दिन के 12 बज गए थे. मैं अपने एक साथी के साथ बाज़ार पहुंचा वाटर प्यूरीफायर खरीदने. काफी घूमने के बाद तीन वाटर प्यूरीफायर का इंतज़ाम किया, सबसे अधिक ज़रूरत की तीन जगह शिशु वार्ड, प्रसूती वार्ड और इमर्जेंसी वार्ड में मिस्त्री को जगह दिखाकर एक बार फिर मैं वार्डों में घूमने लगा.
इस बीच स्थानीय साथियों की मदद से हॉस्पिटल के जेनरेटर रूम से सटे मंदिर परिसर में खिचड़ी बनावाने लगा. उस दिन दोपहर और शाम को लगभग एक हज़ार से अधिक लोगों ने खिलाया गया. तय किया कि यह इंतज़ाम अगले पांच दिनों तक चलता रहेगा.
अचानक मुझे एक डॉक्टर दिखे. ये वही थे जिन्हें देश ने एक पत्रकार को तनाव भरे माहौल में दवाइयों की कमी के बारे में बताते हुए देखा था. मैंने पूछा- सर बेड की इतनी दिक्कत है, तो निजी अस्पातलों से मदद क्यों नहीं ले लेना चाहिए. दो सेकेंड तक मेरी तरफ देखा और कहा, ’16 घंटे की ड्यूटी के बाद मैं फिलहाल सोने जा रहा हूं, आप किसी और से यह सवाल पूछ लें.’
मैं यह सोच रहा था कि लोग, नेता, मंत्री, मीडिया सब थोड़े-बहुत परेशान हो चुके हैं. लेकिन शहर के निजी अस्पातल मदद के लिए उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है. इतने निर्दयी…ओह!
इस बीच एक स्थानीय पत्रकार लोकेश कुमार मिले. उन्होंने बताया कि यहां तो जनवरी माह से ही मरीज़ आ रहा है. तब भी कोई नहीं चेता.
शाम के चार बजने को थे, मैं पसीने से अब भी तर था. एक बार फिर बाज़ार की ओर निकला और एक बिजली मिस्त्री से संपर्क किया. चार पंखे लेकर आए. सबसे पहले प्रसूती वार्ड में इसे लगवा दिया. तब तक हॉस्पिटल के मैनेजर संजय कुमार मिले. उन्होंने कहा अगर मदद कर ही रहे हैं तो कुछ और पंखे लगवा दीजिए. जगह देखने के बाद कुल 12 पंखे लगाए गए.
लेकिन जब सफाई के लिए स्थानीय कर्मचारी राजेंद्र से कहा तो ड्यूटी आवर खत्म होने के बाद भी उन्होंने मेरे प्रसव वार्ड, शिशु वार्ड की सफाई अगले दो घंटे तक करते रहे. उन्होंने बताया 4500 रुपए प्रतिमाह काम करते हैं. 12 घंटा ड्यूटी करना पड़ता है. आजकल तो और ज्यादा.
जब खराब पंखों को ठीक करवाने गया, तो हॉस्पिटल के बिजली विभाग के दिनेश कुमार ने अपने तीन तकनीशियनों को घर से बुलाकर मुझे मदद करने को कहा. हॉस्पिटल मैनेजर संजय कुमार मेरे साथ सब जगह घूमकर बताया कि इन जगहों पर पानी का इंतजाम सबसे अधिक ज़रूरी है. जहां पानी सप्लाई का पाइप खराब था, वो जगह दिखाया. महज पांच सौ रुपए लगे, वह ठीक हो गया. उन्होंने कहा कि कुछ डस्टबिन अगर मिल जाता तो अच्छा रहता. उन्हें 30 डस्टबिन उपलब्ध करवाए.
रात के 10 बजे लगभग शांत हो चुके हॉस्पिटल के आईसीयू और प्रसूती वार्ड के बाहर किसी के सुबकने तो किसी के कराहने की आवाज़ आ रही थी. माइक-कैमरे चले गए थे. कुछ एनजीओ के लोग पानी की बोतल, ग्लूकोन डी आदि बांट रहे थे. हॉस्पिटल के आसपास कोई रैन बसेरा या परिजनों के ठहरने के लिए कोई इंतज़ाम नहीं.
इस बीच हमारे साथी सत्यम, सोमू आनंद, ऋषिकेष, कनक भारती सहित कई अन्य के नेतृत्व में कई टीम लगातार गांवों का दौरा कर रही थी. वहां ग्लूकोन डी, ओआरएस, थर्मामीटर, बीमारी से बचाव के तरीकों से संबंधित पर्चे लगातार बांट रहे थे. अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि हमने तीन बच्चों को बचा लिया था. ये डॉक्टरों की मदद से मेडिकल कैंप भी लगा रहे थे. वहीं पर तीन ऐसे बच्चे मिले जिन्हें जापानी बुखार था. दो को तत्काल दवाई दिया. फिलहाल उनकी निगरानी चल रही है.
बीते 21 जून को मीनापुर ब्लॉक के मुस्तफापुर गांव के दलित बस्ती के एक बच्चे की हालत गंभीर थी. उसे तत्काल एंबुलेंस इंतज़ाम कर एसकेएमसीएच भेज दिया गया. इस दौरान मुज़फ्फरपुर के कांटी, मीनापुर, मुसहरी, बांद्रा ब्लॉक के अलावा वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय ज़िले के कई गांवों में जागरुकता अभियान चलाया. इस पाया कि अधिकतर पीएचसी में डॉक्टर नदारद रहते थे. कुछ नर्सों के बदौलत व्यवस्था चलाया जा रहा था.
यह भी पढ़ें : जिस देश में हर 10 में 4 बच्चा कुपोषित, उस देश में योग का मतलब
मुज़फ्फरपुर जिलाधिकारी की ओर से 23 जून को सुबह नौ बजे जारी मेडिकल बुलेटिन के मुताबिक एसकेएमसीएच में इंसेफेलाइटिस के अब तक कुल 430 मरीज भर्ती किए गए हैं. इसमें 225 को डिस्चार्ज कर दिया गया है, 84 का इलाज चल रहा है, जिसमें तीन की हालत गंभीर है. कुल 109 की मौत हो चुकी है. यहां बीते एक जनवरी से ही इंसेफेलाइटिस के मरीज भर्ती हो रहे हैं.
केजरीवाल (ट्रस्ट) हॉस्पिटल में अब तक कुल 162 मरीज भर्ती हुए हैं. इसमें 73 को डिस्चार्च कर दिया गया है, छह इलाजरत हैं, 20 की मौत हो चुकी है. यहां एक जून से इंसेफेलाइटिस के मरीज़ भर्ती हो रहे हैं.
मरीजों को बीच फल बांटने आए एक स्थानीय नेता से एक डॉक्टर की बहस हो गई. इसके बाद उस डॉक्टर के सीनियर को यह कहते सुना कि अभी बहुत मुश्किल घड़ी है, हम सभी डॉक्टर्स को संयम से काम लेना होगा.
बच्चों की मौत हो गयी. समाज रोया, सरकार निश्चिंत रही. इस दर्द का हिसाब समाज को लेना चाहिए. आखिर किस निश्चिंतता से नीतीश कुमार हॉस्पिटल आये और व्यवस्था में रत्ती भर सुधार करवाये बिना चल दिये. पैर हिलाते मंगल पांडेय आराम से क्रिकेट स्कोर पूछ गए. अश्विनी चौबे प्रेस कॉन्फ्रेंस में सोते रहे और सीना तान कर कह दिया कि वो तो मनन कर रहे थे. राजद ने आराम से कह दिया हमको सीट नहीं दिया तो इस मौत से हमको क्या मतलब.
आखिर स्वतः संज्ञान किसके लिए. मुझे ये कहते हुए कोई डर नहीं लग रहा कि सरकार की तरह हाइकोर्ट के मन में भी इन कुपोषित बच्चों के लिए कोई दर्द नहीं.
इतने कड़े इम्तिहान के बाद पास के जिलाधकारी के मन में क्यों नहीं आया कि बच्चों को बचाने के लिए निजी अस्पतालों की मदद ले ली जाए. करोड़ों कमा रहे निजी अस्पतालों के मालिकों के दिल में रत्ती भर दया क्यों नहीं आई.
समाज को भूलने की आदत है. हम समाज के लोग इसी का फायदा उठाते हैं, कुपोषित बच्चे और उनके माता-पिता नुकसान झेलते हैं.
पता करना होगा जिस शाही लीची से मुज़फ्फरपुर की दुनिया भर में पहचान है, आखिर उसे क्यों बदनाम किया गया.
(आनंद दत्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं )