पुलवामा/श्रीनगर: गुलाम हसन खान ताजिंदगी बादाम उगाने वाले किसान रहे हैं. उन्हें जम्मू-कश्मीर के पुलवामा के पयार गांव में अपने पिता से एक छोटा सा बाग विरासत में मिला था.
पिछले साल, स्थिर कीमतों, घटती पैदावार और उत्पादन की बढ़ती लागत के कारण, उन्होंने अपने बादाम के खेत को उजाड़ दिया और 1,000 उच्च घनत्व (हाई डेंसिटी) वाले सेब के पेड़ खरीदे.
उनका कहना है, ‘एक साल के भीतर ही बादाम से दो गुना बेहतर आमदनी मिली.’
ऐसी ही कहानी पुलवामा और उसके आस-पास के जगहों की है. पारंपरिक कश्मीरी बादाम के किसान अब बेहतर विकल्पों के लिए इस फसल को छोड़ रहे हैं.
पयार गांव के रास्ते में सड़क के किनारे- किनारे कई एकड़ों में बादाम के बगीचे हैं. बीच-बीच में सेब के पेड़ों की पट्टियां भी हैं, उनमें से कुछ हाई डेंसिटी पेड़ हैं जो प्रति पेड़ बेहतर उपज का वादा करते हैं.
बादाम की खेती विभिन्न कारणों से कम व्यावहारिक हो रही है, जिसमें ईरान या अफगानिस्तान से आयातित बादाम की अधिक मांग, जलवायु परिवर्तन, सिंचाई के साधनों की कमी और बादाम के पेड़ों में ग्राफ्टिंग या कलम बांधने (इसके पेड़ों के विकास में सहायता के लिए जानी जाने वाली तकनीक) की अनुपलब्धता आदि शामिल है.
जम्मू-कश्मीर के बागवानी विभाग के एक अधिकारी ने उनका नाम न छापने की शर्त पर कहा कि बादाम के किसानों को समर्थन देने हेतु सरकार के पास कोई मौजूदा योजना नहीं है, हालांकि वे ऐसी एक योजना पर काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘बादाम लहरदार पहाड़ी इलाकों की एक प्रमुख फसल हुआ करता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसमें गिरावट आई है.’
बागवानी विभाग के निदेशक, एजाज भट्ट, ने इस विषय पर और सवालों के लिए किये गए कॉल और व्हाट्सएप संदेशों का कोई जवाब नहीं दिया. जब दिप्रिंट ने सोमवार को उनके कार्यालय का दौरा किया तो वह वहां भी मौजूद नहीं थे.
गायब हो रहे हैं बादाम के खेत
जम्मू और कश्मीर के बागवानी विभाग से दिप्रिंट द्वारा प्राप्त किया गया डेटा या आंकड़ा कश्मीरी बादाम के उत्पादन में लगातार होती गिरावट को दर्शाता है.
साल 1974-75 में (वह पहला वर्ष जिसके लिए डेटा उपलब्ध है), राज्य में 9,361 हेक्टेयर में बादाम उगाए गए थे. साल 1994-95 में इसकी खेती अपने चरम पर थी, जब यह फसल 20,222 हेक्टेयर में उगाई गई थी.
विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि 2015-16 में यह आंकड़ा घटकर 7,132 हेक्टेयर रह गया और, 2020-21 में, सिर्फ 5,483 हेक्टेयर में बादाम उगाए गए थे.
इस बीच, भारत द्वारा बादाम के आयात में तीन गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई है. साल 2008 में, इसका आयात 34.36 मीट्रिक टन पर था, जो 2019 में बढ़कर 115.05 मीट्रिक टन हो गया.
संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग की नवीनतम विदेशी एग्रीकल्चर सर्विस रिपोर्ट (कृषि सेवा रिपोर्ट), जो 2021 में सामने आई थी, में कहा गया है कि भारत के बादाम आयात में 2019-20 से 2020-2021 के बीच 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
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क्यों हो रही है यह गिरावट?
किसानों के मुताबिक, एक मन (लगभग 40 किलो) वजन के बादाम की कीमत 2016 के बाद से 6,000 रुपये से लेकर 6,500 रुपये पर बिना किसी बदलाव के बनी हुई है, जबकि इसकी उत्पादन लागत लगभग दोगुनी हो गई है.
इसके लिए वे मांग में कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं. खान ने कहा, ‘अफगानिस्तान और ईरान से आयातित बादाम न केवल सस्ते हैं, बल्कि वे कश्मीरी बादाम से बड़े भी होते हैं. ग्राहकों को यह अधिक आकर्षक लगता है, इसलिए वे हमारे बादाम की खरीदारी नहीं करते.’
उन्होंने बताया कि एक वक्त वह भी था जब निर्यातक और थोक व्यापारी हर साल उनके शहर के पास एक अस्थायी बाजार लगाए थे, जहां उनके बीच जोरदार प्रतिस्पर्धा होती थी. इससे यह सुनिश्चित होता था कि उन्हें उनके उत्पाद के लिए सबसे अच्छी कीमत मिले. उन्होंने कहा, ’हालांकि, पिछले कुछ सालों से बहुत ही कम खरीदार बादाम खरीदने के लिए पुलवामा आते हैं. इससे किसान की बेहतर कीमत की मांग करने की क्षमता कम हो गई है.’
सरकार द्वारा समर्थित हाई डेंसिटी सेब की खेती किसानों के लिए अधिक फायदेमंद साबित होती है और वे रोपे जाने के पहले साल में ही लाभ दे देते हैं. इसलिए किसान बादाम की बजाए सेब की खेती का चुनाव करते हैं.
उनका कहना था, ‘लोगों ने आयातित बादाम को चुना. पिछले कुछ वर्षों से किसानों की आमदनी रिटर्न कम हो गई है इसलिए उन्होंने बादाम के पेड़ काट दिए.’
अधिकारी ने आगे बताया कि बादाम के पेड़ के पौधे अब ग्राफ्टिंग (कलम बांधने) की प्रक्रिया से नहीं गुजरते हैं – यह एक ऐसी बागवानी तकनीक है जिसमे पौधों को जड़ों और शाखाओं जैसे भागों की सहायता से एक-दूसरे के साथ बांधा जाता है, ताकि वे एक दूसरे के विकास में सहायता कर सकें और ऊतक पुनर्जनन (टिश्यू रेजेनेरशन) के माध्यम से पोषक तत्वों को साझा कर सकें. एक वानस्पतिक प्रसार विधि के रूप में ग्राफ्टिंग चोट खाये पेड़ों का इलाज कर सकती है, उनके अनुकूलन में मदद कर सकती है और पेड़ों को रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधी बना सकती है.
अधिकारी ने कहा कि बादाम के पेड़ की उपज में भी काफी तेजी से गिरावट आती है.
अधिकारी ने यह भी आरोप लगाया कि जम्मू-कश्मीर सरकार अधिक मात्रा में इन पेड़ों को रोपे जाने के लिए जरुरी सामग्री (प्लांटिंग मटेरियल) का आयात करने में भी विफल रही.
कश्मीरी बादाम अर्ली ब्लूमर्स (जल्दी खिलने वाले) भी होते हैं और मार्च-अप्रैल में खिलते हैं जो बारिश का समय होता है, और इससे हवा और बारिश के कारण फूलों को नुकसान होता हैं तथा कम गुणवत्ता वाले फल आते हैं. अधिकारी ने कहा कि घाटी में लेट ब्लूमर्स (देरी से खिलने वाले) पेड़ों की जरूरत है ताकि मौसम के अधिक स्थिर होने पर ही फूल खिलें.
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