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Saturday, 23 November, 2024
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कर्नाटक सरकार ने SC में दिया ईरान का हवाला, कहा- इस्लामिक देशों में हिजाब के खिलाफ लड़ रही महिलाएं

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता कर्नाटक सरकार के इस रुख की पैरवी रहे थे कि राज्य में प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में हिजाब प्रतिबंध असंवैधानिक नहीं था और यह भाषण या निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता.

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नई दिल्ली: कर्नाटक सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में जोर देकर कहा कि इस्लाम में हिजाब पहनना कोई अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है और अपनी दलीलों को पूरी मजबूती के साथ रखने के लिए उसने ईरान में महिलाओं के हिजाब विरोधी प्रदर्शन का हवाला भी दिया.

राज्य की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहस के दौरान कर्नाटक सरकार के रुख की पैरवी करते हुए पश्चिम एशियाई देश में प्रदर्शनों का जिक्र किया और कहा कि राज्य में प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध असंवैधानिक नहीं था और किसी के भाषण या निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता.

ईरान में विरोध प्रदर्शन 22 वर्षीय एक महिला की हिरासत में मौत के बाद शुरू हुए थे, जिसे कथित तौर पर ‘मॉरलिटी पुलिस’ ने ठीक से हिजाब न पहनने के कारण पकड़ा था. तेहरान में पुलिस हिरासत में लिए जाने और कथित तौर पर पीटे जाने के तीन दिन बाद 16 सितंबर को महसा अमिनी की अस्पताल में मौत हो गई थी.

कर्नाटक हिजाब विवाद मामले पर सॉलिसिटर जनरल मेहता ने मंगलवार को जस्टिस हेमंत गुप्ता और सुधांशु धुलिया की पीठ के समक्ष दलीलें शुरू कीं. शीर्ष अदालत कर्नाटक हाई कोर्ट के मार्च के फैसले के खिलाफ याचिकाओं के एक बैच पर सुनवाई कर रही है, जिसने प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में हिजाब पहनने पर प्रतिबंधों को लेकर राज्य सरकार के फरवरी के आदेश में कोई खामी नहीं पाई थी.

राज्य के उडुपी जिले में एक कॉलेज की तरफ से हिजाब पर लगाई गई पाबंदी पर स्टूडेंट ने विरोध जताया था और हिजाब पहनकर ही कक्षाओं में हिस्सा लेने पर जोर दिया था. स्थिति तब और बिगड़ गई जब कॉलेज ने साफ कह दिया कि हिजाब पहनने वाली छात्राओं को इंटर्नल एग्जाम में बैठने की अनुमति नहीं दी जाएगी. इसके बाद हाई कोर्ट में कई याचिकाएं दायर कर सरकार का आदेश रद्द करने की मांग की गई.

हाई कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में याचिकाकर्ताओं की इस दलील को स्वीकारने से इनकार कर दिया कि हिजाब एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है, जिसके बाद उन्हें इसके खिलाफ अपील के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा.

सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को अपनी दलीलें पूरी करते हुए याचिकाकर्ताओं ने कई आधार पर हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी और कहा कि केवल अनिवार्य ही नहीं बल्कि सभी धार्मिक प्रथाओं की रक्षा की जानी चाहिए. इस दौरान यह तर्क भी दिया गया कि पोशाक का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीने के अधिकार का हिस्सा है, जिसमें निजता का अधिकार भी शामिल है.


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‘जायज या आइडियल प्रैक्टिस हो सकती है लेकिन अनिवार्य नहीं’

मेहता ने अपनी दलीलों की शुरुआत यह कहते की कि हिजाब पर प्रतिबंध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले स्टूडेंट कट्टरपंथी संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) से प्रभावित थे.

उन्होंने कहा, ‘यह सब हिजाब पहनने के इच्छुक कुछ बच्चों का व्यक्तिगत मामला भर नहीं था. बल्कि वे एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा थे. ये बच्चे पीएफआई की सलाह पर विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे.’

आगे उन्होंने कहा कि संवैधानिक रूप से इस्लामी देश हैं जहां महिलाएं हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं. यह सवाल उठाए जाने पर कि ऐसा किस देश में हो रहा है, मेहता ने ईरान का हवाला दिया.

सॉलिसिटर जनरल ने कहा, ‘इसलिए, यह कोई अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है. कुरान में उल्लेख मात्र से ही यह आवश्यक नहीं हो जाती, यह एक जायज या आइडियल प्रैक्टिस हो सकती है, लेकिन अनिवार्य नहीं है.’

उन्होंने आगे तर्क दिया कि हाई कोर्ट इस सवाल की व्याख्या से बच सकता था कि क्या हिजाब पहनना कोई अनिवार्य धार्मिक प्रथा है, लेकिन इस मुद्दे का जिक्र केवल इसलिए हुआ क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने इसे उठाया था.

मेहता ने आगे तर्क दिया कि संविधान के तहत अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं के संरक्षण को भी आदर्श रूप में नहीं रखा गया है और ये कुछ प्रतिबंधों के अधीन हैं, मसलन कि क्या यह प्रथा सार्वजनिक नैतिकता, देश की सुरक्षा और कानून-व्यवस्था को किसी तरह से प्रभावित करती है.

अपनी बात को पुरजोर तरीके से रखने के लिए मेहता ने कहा कि ‘कोई’ परंपरा ने नाम पर सड़क पर (सार्वजनिक रूप से शराब पीकर नंगा होकर डांस) करता हुआ नहीं चल सकता है.

उन्होंने कहा, ‘कोई कहेगा कि यह नैतिकता के खिलाफ है. इसके लिए मुझे स्थानीय अधिकारियों द्वारा रोका जा सकता है. तो इसका फैसला कौन करेगा?’

हालांकि, पीठ ने इस ‘चरम उदाहरण’ को उचित नहीं पाया. मेहता अनिवार्य धार्मिक परंपरा की अवधारणा को विस्तार से समझाने के लिए आगे भी तर्क देते रहे कि कैसे हिजाब पहनना इस श्रेणी में नहीं आता है.

मेहता ने कहा, ‘शायद पवित्र कुरान में इसका जिक्र हो. मैं इस बात को मानता हूं. लेकिन जब इसे कोर्ट के समक्ष रख रहे हों तो कुरान में उल्लेख मात्र से ही यह कोई अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं हो जाती है, हां, एक धार्मिक प्रथा हो सकती है. उन्हें यह दिखाना होगा कि यह (प्रथा) एक दम बाध्यकारी है. हमारे पास यह दिखाने वाले आंकड़े होने चाहिए कि किसी को भी इसका पालन नहीं करने (हिजाब पहनने) के लिए बहिष्कृत किया गया हो.’

उन्होंने कहा, ‘यह एक पालन की जाने वाली परंपरा या आइडियल प्रैक्ट्रिस हो सकती है लेकिन एक अनिवार्य प्रथा नहीं है.’


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‘यह धार्मिक पहचान को तटस्थ रखने की कोशिश थी’

याचिकाकर्ताओं के इस तर्क पर कि हिजाब पहनना भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के उनके अधिकार का हिस्सा है, मेहता ने कहा कि प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में एक जैसे यूनिफॉर्म को लेकर सरकारी आदेश का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि छात्रों के बीच कोई असमानता नहीं है. इसके तहत धार्मिक पहचान वाले सभी तरह के कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने का इरादा था और हिजाब इसमें कोई अपवाद नहीं था.

मेहता ने कहा, ‘यह धार्मिक-तटस्थता की दिशा में उठाया गया एक कदम था ताकि एक समानता सुनिश्चित की जा सके. एकात्मकता ही संविधान की आत्मा है.’ उनके मुताबिक, शिक्षण संस्थाओं समेत प्रत्येक संस्थान को अनुशासन बनाए रखने की आवश्यकता है.

मेहता ने यह दलील भी दी कि, ‘अनुशासन संस्था पर निर्भर नहीं कर सकता. अगर यूनिफॉर्म की बात करें तो बार के एक सदस्य के तौर पर मुझसे उसी तरह के अनुशासन की अपेक्षा की जाती है जैसी किसी छात्र या डॉक्टर से अपेक्षित है. सजा का स्तर भिन्न हो सकता है, लेकिन मूल स्वरूप में बदलाव नहीं होता है.’

उन्होंने फिर कहा कि एक यूनिफॉर्म पर जोर देना किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता बल्कि ऐसा एकरूपता लाने के लिए किया जाता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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