नयी दिल्ली, 15 फरवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि किशोरावस्था की दलील को वास्तविक और सच्चे तरीके से उठाया जाना चाहिए और इस कानून के लाभकारी कानून होने के मद्देनजर यदि संदिग्ध प्रकृति के दस्तावेज को किशोर होने के लिए भरोसा किया जाता है, तो आरोपी को किशोर नहीं माना जा सकता है।
न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति राम सुब्रमणियन की पीठ ने कहा कि कानून के प्रावधानों की व्याख्या उदार तरीके से की जानी चाहिये, लेकिन अपीलकर्ता को लाभ नहीं दिया जा सकता, जो झूठे बयान के साथ अदालत पहुंचा।
पीठ ने कहा, ‘‘किशोरवस्था की दलील को वास्तविक और सच्चे तरीके से उठाया जाना चाहिए। अगर किशोरवस्था साबित करने के लिए दाखिल दस्तावेज अविश्वसनीय या संदिग्ध प्रकृति के हों, तो अपीलकर्ता को इस बात को ध्यान में रखते हुए किशोर नहीं माना जा सकता है कि कानून लाभकारी विधान है।’’
शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ दायर अपील को खारिज करते हुए की। उच्च न्यायालय ने हरियाणा के फतेहाबाद के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के निर्देश को रद्द कर दिया था।
सत्र न्यायाधीश ने एक मामलें में आरोपी को किशोर घोषित किया था।
शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा किशोर घोषित करने का अनुरोध किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और सुरक्षा) अधिनियम की धारा-7ए के तहत केवल स्कूल परित्याग रिकॉर्ड पर आधारित है, जो उसने अर्जी के साथ जमा किया ।
न्यायालय ने कहा, ‘‘ऐसे स्कूल रिकॉर्ड विश्वसनीय नहीं है और लगता है कि किशोरवस्था साबित करने के लिए प्राप्त किया गया है। अपीलकर्ता ने अपनी अर्जी में जन्म प्रमाण पत्र का संदर्भ नहीं दिया है, जिसे बाद में प्राप्त किया गया था।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता पाक साफ होकर अदालत नहीं पहुंचा और उसके द्वारा पेश दस्तावेज सही और भरोसे लायक नहीं है।
पीठ ने कहा, ‘‘इसलिए हम पाते हैं कि अपीलकार्ता को किशोरवस्था का लाभ नहीं दिया जा सकता। उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया रुख कानून का संभावित रुख है और वह मौजूदा अपील में कोई हस्तक्षेप नहीं कर रही। तदनुसार, अपील खारिज की जाती है।’’
भाषा धीरज दिलीप
दिलीप
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