नयी दिल्ली, छह अगस्त (भाषा)उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अभय एस ओका ने बुधवार को कहा कि जब कोई वकील न्यायाधीश बनता है तो उसे नैतिकता, धर्म और राजनीतिक दर्शन के विचारों को अलग रखना चाहिए।
वह ग्लोबल जूरिस्ट्स द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में ‘‘न्यायपालिका में नैतिकता, एक प्रतिमान या विरोधाभास’’ विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
न्यायमूर्ति ओका ने कहा, ‘‘जब कोई वकील न्यायाधीश का पद ग्रहण करता है, तो उसे नैतिकता, धर्म और राजनीतिक दर्शन के अपने विचारों को अलग रखना चाहिए। न्यायाधीश के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय उसे इन तीनों विषयों पर अपने व्यक्तिगत विचारों को अलग रखना चाहिए।’’
उन्होंने कहा,‘‘न्यायाधीशों के लिए मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जो कुछ कानूनी और संवैधानिक है, वह नैतिक है, और जो कुछ कानूनी और संवैधानिक नहीं है वह अनैतिक है। मूल नियम यह है कि न्यायाधीशों को लोकप्रिय राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए, और यही न्यायाधीशों के लिए नैतिकता की अवधारणा है।’’
ओका ने कहा कि न्यायाधीशों के लिए नैतिकता का मूलमंत्र कानून और संवैधानिक प्रावधानों पर अपना दिमाग लगाना है, और एक बार कानूनी शुद्धता के बारे में आश्वस्त होने के बाद, जनता की राय या ‘‘तथाकथित भविष्य की संभावनाओं’’ की चिंता किए बिना साहसपूर्वक फैसले सुनाना है।
उन्होंने एक जघन्य अपराध के मामले का उदाहरण दिया, जिसमें पुलिस या जांच एजेंसी के लिए आरोपी को पकड़ने के लिए जनता का दबाव महसूस करना स्वाभाविक था।
न्यायमूर्ति ओका ने कहा, ‘‘वे चाहते हैं कि मुकदमे की सुनवाई में तेजी लाई जाए। लेकिन आज हमारे सामने ऐसी स्थिति है कि सार्वजनिक जीवन में कुछ बहुत महत्वपूर्ण लोग, जैसे नेता या यहां तक कि मुख्यमंत्री भी, सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि वे सुनिश्चित करेंगे कि आरोपी की गिरफ्तारी हो और उसे फांसी दी जाए।’’
उन्होंने कहा कि आरोपी को दोषी ठहराने से पहले लोग यह भूल जाते हैं कि अंततः कानूनी साक्ष्यों के आधार पर यह निर्णय अदालत को ही करना है कि आरोपी ने अपराध किया है या नहीं।
उन्होंने कहा, ‘‘और जब सजा सुनाने की बात आती है, तो अदालत की प्राथमिकता मौजूदा कानून का पालन करना व यह तय करना है कि सजा कैसे सुनाई जानी चाहिए।’’
न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि दूसरी ओर अभियुक्त के संदर्भ में यह जांच की जानी चाहिए क्या यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे कि अपराध को उचित संदेह से परे साबित किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, ‘‘और एक बात जो हमें न्यायाधीशों के रूप में याद रखनी चाहिए, वह यह है कि नैतिकता की यह पारंपरिक अवधारणा हमेशा लोकप्रिय राय द्वारा नियंत्रित होती है। और हम न्यायाधीश, लोकप्रिय राय से नियंत्रित नहीं होते क्योंकि न्यायाधीश के रूप में, मुझे ऐसा फैसला सुनाने के लिए तैयार रहना चाहिए जो बहुमत को पसंद न आए। यह एक न्यायाधीश का कर्तव्य है। इसलिए, जब हम नैतिकता की बात करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश नैतिकता की पारंपरिक अवधारणाओं से बंधे नहीं हैं। वे संविधान के तहत अपनी शपथ से बंधे हैं।’’
न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि जब कोई न्यायाधीश किसी आपराधिक मामले का फैसला करता है, तो उसे सामाजिक नैतिकता या अपनी पारंपरिक नैतिकता की अवधारणा को दरकिनार करना पड़ता है, जो कभी-कभी धार्मिक आस्था से जुड़ी होती है।
न्यायमूर्ति ओका ने सुनवाई अदालत को ‘निचली’ या ‘अधीनस्थ’ अदालतों के रूप में इंगित करने की प्रथा की भी निंदा की।
उन्होंने कहा, ‘‘वास्तव में, व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि हमारी सुनवाई न्यायपालिका और जिला न्यायपालिका देश की मुख्य अदालतें हैं। वे देश के कानून की मुख्य अदालतें हैं। ये वे अदालतें हैं जहां एक आम आदमी जाकर मुकदमा लड़ सकता है और इसलिए किसी भी अदालत को अधीनस्थ न्यायालय या निचली अदालत कहना हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों के पूरी तरह विरुद्ध है।’’
इस कार्यक्रम में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने भी अपने विचार रखे।
भाषा धीरज रंजन
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