जेवर: हर बीतते हुए दिन के साथ, जेवर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की चारदीवारी उत्तर प्रदेश के जेवर में स्थित मुख्य रूप से जाटों की बस्ती नंगला हुकुम सिंह गांव के करीब आती जा रही है. धूल की एक चादर नीले आकाश को दबाती दिखती है. कभी गेहूं और धान की फ़सलों की हरियाली से लहलहाते खेत अब बंजर पड़े हैं.
गांव वाले एक मेटल बोर्ड पर अपनी जाति की बहादुरी के बारे लिखे एक संदेश के साथ मेहमानों का स्वागत करते हैं: ‘झुक गए नवाब, झुक गए मुगल, झुक गया नगर सारा, जो कभी नहीं झुका, ऐसा हिंदूवीर था सूरजमल जाट हमारा.’
हवाई अड्डे के निर्माण के लिए उनकी जमीन और खेतों, जिनका हवाई अड्डे के निर्माण के लिए निगला जाना तय है, का कोई भी उल्लेख गांव वालों के बीच उसी तरह की योद्धा जैसी भावना जगा देता है. उनमें से एक, गुलाब चौधरी, कहते हैं, ‘हम लड़ेंगे. हम या तो मारेंगे या मरेंगे, लेकिन हम अपनी जमीन का अधिग्रहण नहीं होने देंगे.’ अपने बड़े से खुले बरामदे, जिसमें पशुओं के लिए एक शेड बना है और पीछे एक दरवाज़ा है जो हरे-भरे भूभाग की ओर खुलता है, की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, ‘मेरे पास इतना बड़ा घर है. इसके बदले में सरकार मुझे सिर्फ 50 वर्ग मीटर का भूखंड (प्लॉट) देगी. मैं इसे कतई नहीं लूंगा.’
जेवर हवाई अड्डे का विचार पहली बार 2001 में तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने रखा था. हालांकि, साल 2017, जब राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा सरकार सत्ता में थी, में ही इसकी मंजूरी के काम में तेजी आई थी.
धूल में मिल रहे हैं वादे
5,000 हेक्टेयर में फैला, जेवर हवाई अड्डा दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हवाई अड्डा होगा. नवंबर 2021 में इसके शिलान्यास समारोह में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह इस इलाके के लोगों के लिए अधिक रोजगार, आर्थिक समृद्धि लाएगा और कृषिप्रधान गांवों की इस पट्टी को मानचित्र पर प्रमुख स्थान प्रदान करेगा.
इस परियोजना के पहले चरण के लिए चिन्हित किये गए छह गांवों के समूह के अधिकांश निवासी बेहतर भविष्य के इन शानदार वादों के फेर में फंस गए. साल 2019 में, उन्होंने इस परियोजना को क्रियान्वित करने वाली नोडल एजेंसी यमुना एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (येडा) द्वारा अपने खेतों और घरों के लिए दिए गए मुआवजे को स्वीकार कर लिया.
पिछले साल, गांव को निवासियों को आरआर साइट नामक एक पुनर्वास स्थल पर स्थानांतरित कर दिया गया.
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आज, उनके पास जोतने- बोने के लिए कोई खेत नहीं है, कोई नौकरी नहीं है और उनके मुआवजे का पैसा भी खत्म हो रहा है, इसके साथ ही ये ग्रामीण अपनी जमीन, आजीविका और प्रतिष्ठा को गवां ठगा हुआ महसूस करते हैं. इन परिवारों के लिए एक नए ‘शहरी’ जीवन के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल हो रहा है.
चौधरी और उनके साथी ग्रामीणों को भी इसी तरह के भविष्य की आशंका है. उनके खेत और गांव के भूमि अधिग्रहण के दूसरे चरण में आते हैं, लेकिन अब इस परियोजना के प्रति जनता की भावना में बदलाव आ गया है. विकास के लिए अपनी जमीनों का ‘बलिदान’ करने में उन्होंने कभी जो गर्व महसूस किया था, वह अब निराशा और गुस्से की भावना में बदल गया है.
भ्रष्टाचार के आरोप
शाम के समय आरआर साइट लोगों के गतिविधियों के साथ धमकने लगती है. शाम के समय, यहां के निवासी, अपने बहुमंजिला घरों में लगे एयर-कंडीशनर बंद कर देते हैं, अपनी बाइक को स्टार्ट करते हैं, और इलाके में बनी नाश्ते की दुकानों तक ड्राइव कर पहुंच जाते हैं. मर्दलोग माउंटेन ड्यू की बोतलें पकड़ लेते हैं और चारपाइयों को सड़क पर खींच ताश के खेल में रम जाते हैं.
तीन साल पहले, 21 लाख रुपये प्रति बीघा के मुआवजे के साथ इनमें से कई लोगों ने अपनी जमीन येडा को बेचने के बाद अपने बैंक खातों में करोड़ों रूपये जमा करवा लिए थे. उन्होंने आरआर साइट की ओर आते समय एक समृद्ध भविष्य का सपना देखा था, लेकिन उनका साबका एक नई वास्तविकता से पड़ा जो भूमि के ऐसे छोटे प्लॉट्स के रूप में था जिनमें पानी, स्वच्छता और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नदारद थीं.
उनका आरोप है कि उनसे कहा गया था कि जितने जमीन पर उनके घर थे, उसका आधा आकार उन्हें मुआवजे में मिलेगा, लेकिन कई को तो केवल 50 वर्ग मीटर के भूखंड ही मिल पाए. उनका दावा है कि इस भूखंड और मुआवजे के पैसे को पाने के लिए उन्हें अधिकारियों को रिश्वत देनी पड़ी थी जबकि यह तो उनका अधिकार था.
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नांगल गणेशी गांव के प्रताप तोमर, जो आरआर साइट पर कोल्ड ड्रिंक और चिप्स बेचने वाली एक छोटी सी दुकान चलाते हैं, कहते हैं, ‘हमें ठगा गया है. योगी सरकार भ्रष्ट है. हमें अपने गांवों से उजाड़ दिया गया. हम सभी ने रिश्वत देने के बाद ही ये भूखंड प्राप्त किए.’ उन्होंने आगे कहा, ‘रिश्वत देने वालों को 90 वर्ग मीटर तक का प्लाट मिला. हमने कई बार अधिकारियों से इसकी शिकायत की है.’
अब उनके पास वापस जाने के लिए कोई ‘घर’ नहीं है. बुलडोजरों ने उनके घरों, मंदिरों, सामुदायिक भवनों और स्कूलों को गिरा मलबे के टीले के बदल दिया है.
येडा में कार्यरत अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (भूमि अधिग्रहण), बलराम सिंह ने भ्रष्टाचार के आरोपों से इनकार किया. यह कहते हुए कि इन भूखंडों (प्लॉट्स) को कानून के अनुसार आवंटित किया गया है, वे बताते हैं, ‘सब कुछ एकदम पारदर्शी तरीके से हुआ. लॉटरी सिस्टम के लिए दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को बुलाया गया था और पूरे कार्यक्रम का फेसबुक पर सीधा प्रसारण किया गया. ग्रामीण इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा थे.’
वे कहते हैं, ‘शहरी क्षेत्रों (जिन गांवों को शहरी के रूप में अधिसूचित किया गया है) के लिए, भूमि अधिग्रहण अधिनियम की अनुसूची 2 में कहा गया है कि यहां के लोगों को कम-से-कम 50 वर्ग मीटर के रकबे के साथ एक भूखंड देना होगा. हमने भूखंड आवंटित करते समय इस का ध्यान रखा है. हमने 500 वर्ग मीटर तक की जमीन भी दी है.’
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एसयूवी और भव्य मकानों की बातें
हालांकि ग्रामीणों को उनकी जमीन का मुआवजा मिला, लेकिन उनका खर्च भी बढ़ गया था. खेती- बाड़ी से कोई आमदनी नहीं होने के कारण, मौद्रिक मुआवजे – जो कि कुछ ग्रामीणों के अनुसार, उस समय पर्याप्त लग रहा था – की राशि को कम होने में देर नहीं लगी.
पैसे का एक बड़ा हिस्सा घरों के निर्माण पर खर्च किया गया, हालांकि भव्य शादियों, आईफोन, एसयूवी और मोटरसाइकिल भी आम बात बन गए थे. आज, लगभग हर घर में एक बाइक (या मोटरसाइकिल?) है. उनके शाम के मनोरंजन के कार्यक्रम में आमतौर पर ग्रेटर नोएडा के परी चौक में स्थित क्लब और बार तक 45 किमी की सवारी करना शामिल होता है.
आरआर साइट पर भव्य आवास आम बात हैं. रोही गांव, जिसे इस हवाईअड्डा परियोजना के लिए सबसे पहले शामिल किया गया था, के एक ठेकेदार विजय कुमार कहते हैं, ‘गांव वाले सबसे अच्छा घर बनवाने के लिए एक दूसरे के साथ होड़ लगाते हैं. नब्बे प्रतिशत लोग (घरों में) एयर-कंडीशनर चाहते हैं, अन्य लोग पॉप डिज़ाइन की मांग करते हैं.’
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कुछ परिवारों ने जरूर कृषि भूमि में भी निवेश किया, लेकिन तब तक कीमतें आसमान छू चुकी थीं. तोमर के पड़ोसी सतीश रामा कहते हैं, ‘हमने बहुत दूर जमीन खरीदी, लेकिन वहां खेती करने नहीं जा सकते. हमें इसे पट्टे पर देना पड़ा.’
दिन-प्रतिदिन का आम घरेलू खर्च भी बढ़ गया है, क्योंकि निवासी खुले बाजार से आटा, चावल, दूध और यहां तक कि पानी भी खरीदते हैं. पशुपालन, जिससे उन्हें घर पर ही डेयरी उत्पाद मिलना तय होता था, भी अचानक समाप्त हो गया है. रोही गांव की सुमंत्रा कहती हैं ‘किसी भी घर के लिए पशुओं के लिए कोई शेड नहीं है. जिनके पास अपने भूखंडों के बाहर जगह है, उनके पास एक-दो भैंसें हैं, लेकिन उन्हें भी अपने बाकी जानवरों को बेचना पड़ा.’ साइट पर उनका तीन मंजिला घर अभी भी निर्माणाधीन है.
कई ग्रामीण, जिन्होंने अब एयर-कंडीशनर लगा लिए हैं, अब हर महीने 5,000 रुपये तक बिजली बिल भर रहें हैं, जबकि कभी वे इसका दसवां हिस्सा ही चुकाते थें.
पढाई-लिखाई भी महंगी हो गई है. गांव में कोई स्कूल नहीं होने के कारण कुछ अभिभावकों ने अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में करा दिया है, जहां की ट्यूशन फीस (शिक्षण शुल्क) काफी ज्यादा है.
जाने के लिए कोई खेत या स्कूल या कॉलेज नहीं होने के कारण, लोग अपनी नई बाइक का उपयोग साइट का चक्कर लगाने या शराब की दुकानों पर जाने के लिए करते हैं. गांव में चारा जमा करने वाले का काम करने वाले 28 वर्षीय सलमान कहते हैं, ‘अगर लोगों को अपने घर से दुकान पर भी आना होता है, तो भी वे बाइक से ही आते हैं.’
ऐसी ही एक दुकान के बाहर खड़े जवान लड़के बताते हैं कि यह साइट उन बच्चों से भरी हुई है जो ‘मंडल पास’ हैं – एक ऐसा शब्द जो उन्होंने मंडल आयोग की तर्ज पर उन छात्रों के लिए गढ़ा है जो आठवीं कक्षा से पहले ही स्कूल से बाहर हो गए थे.
ये जवान लड़के एयरेटेड ड्रिंक्स के इस कदर आदी हो गए हैं कि वे हर दिन 10 बोतल से ज्यादा कोल्ड माउंटेन ड्यू पी जाते हैं. सलमान का दावा है कि इस साइट पर बनी कुछ दुकानें हर दिन 50,000 रुपये से अधिक की बिक्री करती हैं.
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बंटा हुआ गांव – ग्रामीण से शहरी तक
पहले चरण में भी ऐसे कुछ ग्रामीण थे जो बेहतर भविष्य के लालच से अछूते रहे थे. दयानतापुर गांव के बुजुर्ग किसान एक साल से अधिक समय से अपने खेतों से बाहर कर दिए गए हैं. भूमि अधिग्रहण के पहले चरण में जब अधिकारी उनकी जमीन के अधिग्रहण की लिए मंजूरी के लिए उनके पास आए थे, तो उनमें से किसी ने भी सहमति नहीं दी थी.
वे जमीन की वर्तमान भूमि चार गुना मुआवजा चाहते थे, लेकिन येडा केवल दो गुना की ही पेशकश कर रहा था. वाजिब मुआवजे के लिए उनका संघर्ष गांव के मंदिर की सीढ़ियों पर शुरू हुआ जहां वे अपने आंदोलन की योजना बनाने के लिए एक साथ आए थे. उन्होंने राजमार्गों पर रास्ता रोका, राज्य के कई अधिकारियों से मुलाकात की और यहां तक कि जेल भी गए. एक बुजुर्ग किसान ने कहा, ‘लेकिन हमें चुप करा दिया गया और हमारी जमीन जबरदस्ती हमसे छीन ली गई.’
सरकार ने उनके नाम पर जो पैसा आवंटित किया था, मगर जिसे किसानों ने स्वीकार नहीं किया था, उसे सरकारी कोषागार (ट्रेज़री) में जमा करवा दिया गया था. आज बिना जमीन, बिना रोजी-रोटी कमाने के किसी जरिये और बिना किसी भी तरह के मुआवजा के, ये लोग निराश होकर उसी मंदिर की सीढ़ियों पर अपनी जमीन के कागजात लेकर बैठे हैं.
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85 वर्षीय श्री राम सिंह, जो इस गांव में लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं और उन 34 किसानों में शामिल हैं जिन्होंने विरोध करने के लिए एक पखवारा जेल में बिताया, कहते हैं, ‘जब चरण एक के मामले ही अभी भी हल नहीं हुए हैं तो सरकार दूसरे चरण में कैसे जा सकती है?’
सिंह और उनके भाइयों ने सरकार के हाथों अपनी 16 एकड़ जमीन गंवाने का दावा किया है, लेकिन उनका कहना है कि वे ट्रेजरी में रखे अपने मुआवजे के पैसे निकालने में भी असमर्थ हैं.
सिंह कहते हैं, ‘हर बार जब हम ट्रेजरी में जाते हैं, तो वे हमें यह कहते हुए वापस भेज देते हैं कि एक या दो कागज गायब हैं. यह हमें परेशान करने की उनकी रणनीति है.’
इस एयरपोर्ट ने उनके गांव को बांट कर रख दिया दिया है. मंदिर से चंद ही कदम की दूरी पर उन लोगों द्वारा बनाए गए बड़े-बड़े घर हैं जिन्होंने येडा द्वारा दी गई दर को स्वीकार कर लिया था.
भूमि अधिग्रहण के दूसरे दौर में भी उचित मुआवजे की राशि तय करना (विवाद का) मुख्य बिंदु है. भूमि अधिग्रहण अधिनियम में कहा गया है कि शहरी इलाकों में सर्किल रेट (या बाजार दर) से दो गुना मुआवजा दिया जाना चाहिए और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए यह दर चार गुना होनी चाहिए.
साल 2015 में, राज्य सरकार ने गौतम बुद्ध नगर जिले के 80 गांवों के वर्गीकरण को ग्रामीण से बदल कर शहरी कर दिया था, जिनमें से दो गांवों- दयानतपुर और रणहेरा- को जेवर हवाई अड्डे के दायरे में रखा गया है.
साल 2018 में, सरकार ने 16 और गांवों को शहरी सूची में जोड़ दिया. इसके साथ ही हवाईअड्डे के लिए अधिग्रहित किए जाने वाले सभी गांव रातों-रात शहरी टाउनशिप के अंतर्गत आ गए और मुआवजे की राशि आधी हो गई. खेड़ा दयानतपुर गांव के एक किसान कार्यकर्ता अजय प्रताप सिंह, जिन्हें इस प्रक्रिया में अपना घर और खेत भी छोड़ना पड़ा था, पूछते हैं, ‘अगर कोई गांव पूरी तरह से कृषि-प्रधान है, तो वह शहरी कैसे हो सकता है?’
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सिंह का आरोप है कि जब मई 2020 में किसानों ने काफी विरोध किया, तो गांवों को उनका ग्रामीण दर्जा वापस दे दिया गया, लेकिन कृषि भूमि के स्वरुप को शहरी क्षेत्रों के रूप में बरकरार रखा गया. सिंह बताते हैं, ‘इन गांवों की स्थिति अब ऐसी है कि उन पर न तो पंचायत का शासन है और न ही उन्हें कोई नगर पालिका दी गई है.’ 50 अन्य किसानों के साथ मिलकर वह इस मामले में लड़ाई को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ले गए जहां उनके मामले अभी भी लंबित हैं.
भूमि अधिग्रहण अधिनियम गांवों के सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (सोशल इम्पैक्ट एनालिसिस – एसआईए) को अनिवार्य बनाता है. एक बार विशेषज्ञ समिति द्वारा एसआईए को मंजूरी मिलने के बाद, येडा जैसे प्राधिकरणों को उस क्षेत्र के कम-से-कम 70 प्रतिशत जमीन मालिकों की सहमति लेने की आवश्यकता होती है जिसे अधिग्रहित किया जाना है. लेकिन परियोजना के पहले और दूसरे चरण के गांवों के किसानों का कहना है कि उनसे कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया. दयानतपुर गांव के 74 वर्षीय जगत सिंह कहते हैं, ‘कोई सार्वजनिक बैठक नहीं हुई. किसी ने भी हमसे कोई राय नहीं ली.‘
किसान इस बात पर भी सवाल उठा रहे हैं कि यह एसआईए कैसे किया गया. इस एसआईए को गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय को आउटसोर्स किया गया था और गांवों के दो प्रतिनिधियों के साथ एक विशेषज्ञ टीम का गठन किया गया था. दूसरे चरण में शामिल नंगला हुकुम सिंह गांव के धर्मेंद्र चौधरी इन दो सदस्यों में से एक थे. लेकिन वे कहते हैं कि उनका प्रतिनिधित्व केवल औपचारिक था.
चौधरी कहते हैं, ‘मुझे बैठक से ठीक पहले की शाम को एसआईए रिपोर्ट की 200-पन्नों वाली प्रति सौंपी गई. मेरे पास इसे पढ़ने के लिए 24 घंटे से भी कम समय था. बैठक में यह रिपोर्ट अंग्रेजी में पढ़ी गई जो एक ऐसी भाषा जिसमें मैं सहज नहीं हूं. लेकिन मेरे विरोध के बावजूद वह बैठक 20 मिनट में खत्म हो गई और हमें हस्ताक्षर करने को कहा गया. इस तरह से इस रिपोर्ट को मंजूरी दी गई.’ उन्होंने कहा, ‘एक कप चाय पर हुई एक बैठक में ही जेवर के सैकड़ों किसानों की किस्मत का फैसला हो गया.‘
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मगर, येडा में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (भूमि अधिग्रहण), बलराम सिंह का कहना है कि यह प्रक्रिया पारदर्शी थी. वे कहते हैं, ‘एसआईए एक स्वतंत्र प्राधिकरण द्वारा किया गया है और उन्होंने इसके लिए वैज्ञानिक पद्धति का पालन किया है, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है. शायद गांव वाले इस प्रक्रिया को समझ नहीं पाए हैं.’
दूसरी तरफ, ग्रामीण जो बात अच्छे से समझते हैं वह यह है कि जेवर हवाई अड्डे ने उनके ग्रामीण जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया है. अब यह उनका ‘भविष्य’ है जिसके लिए गांव नंगला हुकुम सिंह के गुलाब चौधरी जैसे ग्रामीण अभी भी लड़ने को दृढ़ संकल्पित हैं.
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