नई दिल्ली: जम्मू की एक विशेष अदालत ने नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) की उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें एजेंसी ने 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए हमले को अंजाम देने वाले आतंकियों को खाना और लॉजिस्टिक सपोर्ट देने के आरोप में गिरफ्तार दो लोगों का पॉलीग्राफ टेस्ट कराने की अनुमति मांगी थी.
29 अगस्त को यह अर्जी इसलिए खारिज कर दी गई क्योंकि बशीर अहमद जोथर और परवेज अहमद ने अदालत में इन टेस्ट के लिए सहमति देने से इनकार कर दिया था.
बशीर और परवेज, जो बैसारन घाटी के स्थानीय टट्टूवाले हैं, को एनआईए ने इस साल 22 जून को गिरफ्तार किया था.
ये गिरफ्तारियां ठीक दो महीने बाद हुईं, जब पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) से जुड़े आतंकियों ने 22 अप्रैल को 26 लोगों की हत्या कर दी थी. इनमें एक स्थानीय व्यक्ति भी शामिल था. इस घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान के भीतर आतंकियों के ठिकानों और ढांचे के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया था.
“एनआईए की जांच के मुताबिक परवेज और बशीर ने हमले से पहले तीन सशस्त्र आतंकियों को हिल पार्क स्थित एक मौसमी ढोक (झोपड़ी) में पनाह दी थी. दोनों ने आतंकियों को खाना, आश्रय और अन्य सुविधाएं दीं. इन आतंकियों ने उसी दोपहर धार्मिक पहचान के आधार पर पर्यटकों की चुन-चुन कर हत्या की थी, जिससे यह हमला अब तक के सबसे भयावह आतंकी हमलों में से एक बन गया,” एनआईए के प्रवक्ता ने जून में उनकी गिरफ्तारी के बाद कहा था.
झूठ पकड़ने वाले इस टेस्ट (पॉलीग्राफ टेस्ट) में डॉक्टर हृदय गति, रक्तचाप, सांस और त्वचा की संवेदनशीलता जैसी शारीरिक प्रतिक्रियाएं रिकॉर्ड करते हैं, जबकि आरोपी सवालों के जवाब देते हैं. यह टेस्ट इस धारणा पर आधारित है कि झूठे जवाब शरीर में बदलाव लाते हैं, जिन्हें पॉलीग्राफ मशीन पकड़ लेती है.
इन टेस्टों के नतीजे अदालत में सबूत के तौर पर मान्य नहीं होते. लेकिन इस प्रक्रिया से मिले किसी भी तथ्य या सबूत को ट्रायल के दौरान अदालत में पेश किया जा सकता है.
एनआईए की याचिका को खारिज करते हुए विशेष एनआईए जज संदीप गंडोत्रा ने कहा कि आरोपियों की सहमति के बिना ऐसे वैज्ञानिक टेस्ट कराना उनके आत्म-अभियोग न करने के अधिकार का उल्लंघन होगा.
“इस अदालत की विनम्र राय में, नार्को-एनालिसिस या पॉलीग्राफ टेस्ट जैसे वैज्ञानिक तरीकों का जबरन इस्तेमाल करना संविधान के अनुच्छेद 20 (3) में दिए गए ‘आत्म-अभियोग से बचाव के अधिकार’ का उल्लंघन होगा. क्योंकि इस अधिकार का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार किए गए बयानों की विश्वसनीयता और स्वेच्छा बनी रहे. जनहित का हवाला देकर ऐसे संवैधानिक अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता,” गंडोत्रा ने आदेश में कहा.
एनआईए, जिसने घटना के तुरंत बाद अपनी टीम घटनास्थल पर भेजी थी जबकि जम्मू-कश्मीर पुलिस ने शुरुआती जांच शुरू की थी, ने अपनी दलील में कहा था कि पॉलीग्राफ टेस्ट से जांच में “सटीक और ठोस” सफलता मिल सकती है.
एजेंसी ने अदालत में यह भी कहा था कि दोनों आरोपी मामले से जुड़े कई पहलुओं पर “असंगत” जवाब दे रहे हैं और इस वजह से जांच में बाधा आ रही है.
एजेंसी ने यह भी दावा किया था कि दोनों आरोपियों ने पॉलीग्राफ टेस्ट के लिए सहमति दी थी. लेकिन 29 अगस्त को उन्होंने अदालत में कहा कि वे इन टेस्टों के लिए तैयार नहीं हैं.
गंडोत्रा ने आदेश में लिखा, “आज दोनों आरोपियों को अदालत में ठीक तरह से पेश किया गया. उनसे पूछा गया कि क्या वे उर्दू भाषा समझते हैं, जिस पर उन्होंने हां कहा. उन्हें पॉलीग्राफ/नार्को-एनालिसिस टेस्ट की पूरी प्रक्रिया उनकी भाषा यानी उर्दू में समझाई गई और उनसे पूछा गया कि क्या वे अपनी इच्छा से और बिना किसी दबाव के यह टेस्ट कराना चाहते हैं.”
जज ने आगे कहा, “दोनों आरोपियों ने खुले कोर्ट में कहा कि वे पॉलीग्राफ/नार्को-एनालिसिस टेस्ट कराने के लिए तैयार नहीं हैं.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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