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Wednesday, 20 November, 2024
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भारत के सबसे बड़े मुस्लिम संगठनों में से एक जमीयत गुट 14 साल बाद, ‘फिर से एक होने की राह पर’

2008 में असद मदनी की मौत के तुरंत बाद जमीयत दो गुटों में बंट गया था. उनके बेटे महमूद अपने चाचा अरशद के संगठन चलाने के तरीके से खुश नहीं थे.

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नई दिल्ली: अलग होने के चौदह साल बाद और आखिरी बार फिर से एक होने की बात करने के सात साल बाद इस्लामी विद्वानों के एक प्रमुख संगठन ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ के अरशद और महमूद मदनी गुटों का फिर से एक हो जाना निश्चित हो गया है. संगठनों के शीर्ष नेताओं के अनुसार, ‘अगले कुछ महीनों में’ प्रक्रिया को पूरा कर लिया जाएगा.

मुस्लिम समुदाय के ‘बढ़ते दबाव’ के चलते जून में अरशद मदनी गुट और फिर उसके अगले महीने महमूद मदनी गुट ने विवाद सुलझाने की कवायद वाले प्रस्ताव की पुष्टि की थी. जमीयत देश के सबसे बड़े मुस्लिम सामाजिक-धार्मिक संगठनों में से एक है.

सुलह प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कवायद के तौर पर अध्यक्ष समेत महमूद मदनी गुट के कुछ सदस्यों ने देवबंद की यात्रा भी की थी.

एक गुट के अध्यक्ष और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े इस्लामिक मदरसा दारुल उलूम देवबंद में एक वरिष्ठ शिक्षक मौलाना अरशद मदनी ने कहा ‘हमने कुछ दिन पहले सुलह पर एक बैठक की थी. लेकिन यह ऐसा कुछ था, जिसका एक बैठक में समाधान नहीं निकाला जा सकता. हमारे पास देश के हर राज्य में, हर जिले में करोड़ों कार्यकर्ता हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि अल्लाह की रहमत से अगले दो से चार महीनों में प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. बड़ी बात यह है कि अब दोनों पक्ष सुलह चाहते हैं.’

महमूद मदनी गुट के सचिव मौलाना नियाज़ फारूकी ने दिप्रिंट को बताया, ‘प्रक्रिया जारी है. अब संगठन के दोनों धड़ों की बैठक होगी. यह एक बड़ा काम है. हर जिले, हर राज्य में हमारी इकाइयां हैं. वो सब एक हो जाएंगे और यह काम किसी एक दिन में नहीं हो सकता. इसके लिए ऐसी कोई समय-सीमा तय नहीं है. लेकिन मौजूदा पदाधिकारियों का कार्यकाल लगभग दो सालों में खत्म हो जाता है और हम इसे (विलय) वर्तमान कार्यकाल के भीतर पूरा करने की उम्मीद कर रहे हैं. इसलिए हमने इसकी प्रक्रिया काफी पहले से शुरू कर दी थी.’

विलय के दौरान जिन मसलों को हल करने की जरूरत होगी उनमें से एक यह है कि फिर से एक हो जाने के बाद विभिन्न स्तरों पर पदाधिकारियों को कौन सा पद दिया जाएगा.

मदनी ने कहा, ‘हमने तय किया है कि किसी भी कार्यकर्ता को किसी भी स्तर पर हटाया नहीं जाएगा. क्योंकि ये प्रतिबद्ध जमीयत कार्यकर्ता हैं जिनके मूल्य हमारे संगठनात्मक लोकाचार में निहित हैं. इस पर दोनों पक्षों में सहमति बन गई है. जहां तक पदाधिकारियों का सवाल है, कार्य समितियों ने हमें निर्णय लेने का अधिकार दिया है.’

22 जुलाई को जारी एक बयान में कार्य समिति की ओर से विवाद सुलझाने की कवायद की पुष्टि के बाद महमूद मदनी गुट ने कहा, ‘लंबे विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से यह फैसला लिया गया कि जमीयत उलमा-ए-हिंद की कार्य समिति (WC) संगठन की हालिया सुलह प्रक्रिया की सराहना करता है और सुलह की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए सहमत है. इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए WC ने जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी को जमीयत के संविधान के अनुसार सुलह की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए अधिकृत किया है. इसके लिए यह भी जरूरी समझा गया है कि संबंधित पक्ष न केवल खुद को मौखिक विचार-विमर्श तक सीमित रखेगा बल्कि अपने सुझाव और स्थिति लिखित रूप में प्रस्तुत करेगा.’

योजना के अनुसार, सभी WC सदस्यों, विशेष रूप से आमंत्रित कार्यकर्ताओं , राज्य अध्यक्षों और महासचिवों को दोनों गुटों के सदस्यों वाली एक नई कार्यसमिति के गठन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महमूद मदनी को अपना इस्तीफा सौंपना होगा.


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पहले भी रखा गया था शांति प्रस्ताव

2008 में ‘जमीयत’ असद मदनी की मौत के तुरंत बाद दो गुटों में विभाजित हो गया था. मदनी ने 40 सालों से ज्यादा सालों तक संगठन का नेतृत्व किया था. लेकिन उनके बेटे महमूद अपने चाचा अरशद के संगठन चलाने के तरीके से सहमत नहीं थे, जिन्होंने मदनी की मौत के बाद अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला था. वैसे यह पहली बार नहीं है जब दोनों गुटों ने फिर से एक होने की बात कही है. 2015 में महमूद और धुबरी के सांसद बदरुद्दीन अजमल ने सुलह करने के लिए शांति प्रस्ताव के साथ अरशद से मुलाकात की थी. हालांकि तब यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई थी.

मौलाना अरशद मदनी ने दिप्रिंट को बताया, ‘अंतर यह है कि उस समय सिर्फ एक पक्ष विलय चाहता था, दूसरा नहीं. फिलहाल दोनों पक्ष विलय के इच्छुक हैं. क्योंकि इन बातों को काफी साल बीत चुके हैं, इसलिए मुझे याद नहीं है कि कौन सा पक्ष विलय चाहता था और किस पक्ष को इससे सरोकार नहीं था.’

फारूकी ने कहा कि अप्रत्याशित परिस्थितियों की वजह से पहले वाला प्रस्ताव काम नहीं कर पाया था. उन्होंने बताया, ‘वह प्रस्ताव ऐसे समय में रखा गया जब पदाधिकारियों का कार्यकाल पूरा होने को था और इसे एक साथ आने का प्रयास करने का एक अच्छा समय माना जा रहा था. लेकिन समय कम होने की वजह से प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी और फिर उसके बाद कोविड आ गया. हमने अपने अध्यक्ष मौलाना कारी उस्मान मंसूरपुरी को भी खो दिया था.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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