नई दिल्ली: दिल्ली के लाजपत नगर में बम विस्फोट के 24 दिन बाद 14 जून 1996 को नौशाद को गिरफ्तार किया गया था. इस आतंकी घटना में 13 लोगों की मौत हो गई और 38 अन्य घायल हुए थे. चौदह साल बाद अप्रैल 2010 में एक ट्रायल कोर्ट ने उसे मौत की सजा सुनाई थी.
नवंबर 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसकी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. अदालत ने नौशाद को हत्या के आरोपों से बरी करते हुए, उसे इस घटना की ‘साजिश’ का दोषी माना था. फैसले को ‘अनुचित’ बताते हुए नौशाद ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की थी. अदालत ने अप्रैल 2013 में उसकी अपील पर नोटिस जारी किया था.
तब से लेकर अब तक पिछले नौ सालों में 56 साल के नौशाद के मामले को 24 बार सूचीबद्ध तो किया गया है लेकिन एक बार भी इस पर सुनवाई नहीं की गई. उसके मामले को हर बार किसी न किसी वजह- ज्यादातर तकनीकी आधार पर स्थगित किया जाता रहा है.
इन सालों में नौशाद की जमानत पाने की कोशिशों को भी बहुत कम सफलता मिली है. उसकी अपील पर 2013 में नोटिस जारी किया गया था. इसलिए उसने पांच बार जमानत के लिए याचिका दायर की लेकिन हर बार इसे ठुकरा दिया गया.
मामले की आखिरी सुनवाई 14 मार्च 2022 को हुई थी, जब न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अवकाश पीठ के समक्ष उसकी अपील को सूचीबद्ध करने के लिए 30 मई की तारीख निर्धारित की. लेकिन वह सुनवाई कभी नहीं हुई क्योंकि उस दिन अदालत की बैठक नहीं हुई थी. मौजूदा समय में मामले की सुनवाई के लिए कोई अगली तारीख नहीं है.
नौशाद के बेटे हैदर नौशाद ने दिप्रिंट को बताया कि पिछले 26 सालों में उसके पिता छह बार हिरासत से पैरोल पर बाहर आए हैं– पैरोल, उस कैदी की अस्थायी रिहाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला एक शब्द है, जो अभी भी कोर्ट की कस्टडी और पुलिस की निगरानी में है.
हैदर ने दिप्रिंट को बताया, ‘14 साल के लंबे मुकदमे के दौरान वह एक बार तीन घंटे और तीन बार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बाहर आया है.’
2016 में सुप्रीम कोर्ट ने नौशाद को अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए तीन घंटे के लिए हिरासत से पैरोल पर रिहा किया था. पिछले साल वह दो बार मार्च में तीन दिन और नवंबर में पांच दिन के लिए अपनी बेटी और बेटे की शादी में शामिल होने के लिए बाहर आया था.
हालांकि उम्रकैद की सजा काट रहा एक अपराधी 14 साल की जेल पूरी करने के बाद रिमिशन यानी छूट के लिए आवेदन करने का पात्र है. रिमिशन पोलिसी के तहत जेल में एक कैदी के आचरण के आधार पर एक राज्य के सजा समीक्षा बोर्ड द्वारा समय से पहले रिहाई को मंजूरी दी जा सकती है. लेकिन नौशाद की सर्वोच्च न्यायालय में अपील के चलते, उसकी इस तरह की याचिका दायर करने की संभावना को रोक दिया है.
नौशाद के वकील फारुख रशीद ने दिप्रिंट को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उसकी अपील के कारण दिल्ली समीक्षा बोर्ड से छूट के उनके अनुरोध को ठुकरा दिया गया था.
सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता सीयू सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि शीर्ष अदालत द्वारा 26 साल से जेल में बंद एक व्यक्ति की अपील पर सुनवाई नहीं करना, काफी विस्मित कर देने वाला है.
सिंह ने कहा, ‘ऐसा नहीं होना चाहिए. उसके मामले का कोई तो क्लोजर हो.’
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अभियोजन पक्ष के दावे और परिवार की परेशानी
मामले में अभियोजन पक्ष का दावा है कि 21 मई, 1996 को लाजपत नगर के भीड़-भाड़ वाले सेंट्रल मार्केट में विस्फोटकों से भरी एक चोरी की मारुति कार में शाम करीब 6:30 बजे विस्फोट किया गया था.
दिल्ली पुलिस ने इस मामले में नौ कश्मीरियों और नौशाद को मिलाकर कुल दस लोगों को गिरफ्तार किया था. जांचकर्ताओं ने बाद में दावा किया कि उन्हें नौशाद के घर में विस्फोटक मिले थे.
नौशाद पर मामले में अपने सह-आरोपियों को साजो-सामान मुहैया कराने का आरोप लगाया गया.
हालांकि, परिवार का दावा है कि नौशाद को ‘अटकलों के आधार पर’ गिरफ्तारी से एक पखवाड़े पहले 28 मई, 1996 को अवैध रूप से हिरासत में ले लिया गया था.
हैदर ने दिप्रिंट को बताया, ‘पुलिस ने दावा किया कि मेरे पिता के नाम का खुलासा सह-आरोपी जावेद अहमद खान ने किया था. लेकिन खान की कन्शफेन यानी कबूलनामे में ऐसा कोई जिक्र नहीं था.’
हालांकि चार्जशीट में गैंगस्टर दाऊद इब्राहिम समेत 17 लोगों के नाम थे लेकिन मामले में सिर्फ 10 पर ही मुकदमा चला था.
तब से यह मामला न्यायिक भूलभुलैया में फंसा हुआ है. ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय करने में चार साल और एक मामले में फैसला सुनाने में 10 साल का समय लिया, जिसमें 107 गवाहों जिसमें ज्यादातर पुलिसकर्मियों ने गवाही दी. अदालत ने अपने फैसले में चार लोगों को बरी कर दिया. एक व्यक्ति को 10 साल और दूसरे को छह साल की सजा हुई थी.
नौशाद और जावेद अहमद खान सहित चार को मौत की सजा सुनाई गई. चारों ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी सजा के खिलाफ अपील की. अदालत ने 18 मई 2012 तक मामले में सुनवाई पूरी कर ली थी लेकिन फैसला सुनाने में छह महीने और लग गए. अदालत ने मिर्जा निसार हुसैन और मोहम्मद अली भट को बरी कर दिया लेकिन नौशाद और खान को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
खान और नौशाद दोनों ने ‘सुप्रीम कोर्ट के इस त्रुटिपूर्ण फैसले’ के खिलाफ अलग-अलग चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी. उधर 2013 में दिल्ली पुलिस ने भी हाई कोर्ट द्वारा बरी किए गए दोषियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
हैदर छह महीने का था जब उसके पिता को गिरफ्तार किया गया था. उसने कहा, ‘मेरे परिवार ने 10 साल की उम्र तक मुझे कभी नहीं बताया कि मेरे पिता कहां हैं.’
हैदर ने कहा, ‘ मेरी बहन, जो 2.5 साल बड़ी है, उसे और मुझे बताया गया था कि हमारे पिता दिल्ली से बाहर काम करते हैं.’ बाद में जब उन्हें अपने पिता के बारे में पता चला तो अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर, मुकदमेबाजी पर आने वाले खर्च के लिए पैसा जुटाने में मदद करने के लिए अपने दादा के कबाड़ के कारोबार से जुड़ गए. हैदर ने दिप्रिंट को बताया कि इसके बावजूद उनका परिवार इस कमाई से मुकदमेबाजी के खर्चे को वहन नहीं कर पा रहा था. और आखिरकार उन्हें तुर्कमान गेट की अपनी संपत्ति का एक हिस्सा बेचना पड़ा.
हैदर अपने पिता से पहली बार 2006 में तिहाड़ में मिले थे. वह अपनी बहन के साथ उनसे मिलने गए थे. इसके बाद दोनों बच्चों ने उसकी सभी अदालती सुनवाई में भाग लेने का फैसला किया, भले ही इसका मतलब स्कूल न जाना हो.
उन्होंने कहा, ‘यही एक ऐसा तरीका था जिससे हम उसके साथ अपनी कुछ यादें बना सकते थे.’
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कानूनी पहेली
राशिद ने दिप्रिंट को बताया कि अब सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति उस अपराध के लिए साजिश का दोषी हो सकता है जिसे अदालत ने उसे बरी कर दिया हो.
राशिद ने कहा, ‘हाई कोर्ट ने उसे हत्या की साजिश के लिए दोषी ठहराया है. जबकि नौशाद ने कभी न तो बम लगाया था या न किसी की हत्या की थी.’
23 अगस्त 2013 को, सुप्रीम कोर्ट के तीन-बेंच न्यायाधीश ने उसकी जमानत अर्जी को ठुकरा दिया. जुलाई 2014, फरवरी 2017, मार्च 2018 और जनवरी 2021 में आगे की जमानत याचिकाओं का भी ऐसा ही हश्र हुआ.
उधर उच्च न्यायालय के बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी थी. इस वजह से शीर्ष अदालत को दो क्रॉस-अपीलों को क्लब करना पड़ा. इस प्रकार नौशाद के मामले में और देरी हुई.
जांचकर्ताओं और राशिद ने दावा किया कि मामले को और ज्यादा ‘जटिल’ बनाने के प्रयास में 5,000 से ज्यादा पेजों में चल रहे दस्तावेज़ दायर किए गए.
राशिद ने कहा, ‘गुजरात के दस्तावेजों का नौशाद से कोई संबंध नहीं है लेकिन यह सह-आरोपी जावेद (अहमद खान) के खिलाफ 1996 में गुजरात में दर्ज एक मामले से जुड़े हैं.’
सुप्रीम कोर्ट की वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता सी.यू.सिंह की सहयोगी मीनाक्षी अरोड़ा ने दिप्रिंट को बताया कि यह अदालती लिस्टिंग को पूरी तरह से ऑटोमेटिक बनाने का समय है.
अरोड़ा ने कहा, ‘जिस पल कोई याचिका रजिस्टर की जाती है, उसे नामित पीठ के समक्ष ऑटोमेटिक लिस्टेड हो जाना चाहिए और कंप्यूटर के जरिए मामलों की एक और सूची को मैनेज किया जाना चाहिए.’
राशिद अपने अगले कानूनी कदम पर विचार कर रहा है. हैदर ने पूछा कि क्या पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के दोषी ए.जी.पेरारिवलन की तरह उनके पिता को रिहा कर पाना संभव है.’
उसने कहा, ‘हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया क्योंकि राज्यपाल ने उनकी दया याचिका पर समय पर फैसला नहीं लिया. मेरे पिता का मामला पिछले 26 साल से अदालतों में लंबित है. क्या यह भी असामान्य देरी नहीं है?’
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