नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने मोरक्को के 17 वर्षीय फ्रांसीसी नागरिक की घातक पुलिस गोलीबारी में मौत पर निशाना साधते हुए अपने एक संपादकीय में लिखा की “जागरूकता से पर्दा” वाला इस्लामवाद उदार लोकतंत्र को गंभीर तनाव में डाल रहा है.
27 जून को, पेरिस के एक उपनगर में यातायात उल्लंघन के लिए रोके जाने के बाद फ्रांसीसी पुलिस ने नाहेल मेरज़ौक को गोली मार दी थी. इस घटना के कारण फ्रांस में दंगे हुए और नस्लवाद के आरोप लगे.
ऑर्गनाइज़र ने कहा, “अराजकता से क्रांति की ओर ले जाना उनका लक्ष्य है. यूरोपीय उदारवाद इस संयोजन से अस्तित्वगत खतरे का सामना कर रहा है. जब तक उन्हें समाधान नहीं मिल जाता, उन्हें दूसरों को वह उपदेश नहीं देना चाहिए जिसका वे अभ्यास नहीं कर सकते.”
द इंडियन एक्सप्रेस में अपने कॉलम में, आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारी राम माधव ने भी पुलिस गोलीबारी के बारे में बात करते हुए कहा कि फ्रांस में अप्रवासी बहस “कई मिथकों और स्पष्ट अतिशयोक्ति में फंसी हुई है”.
इसके अलावा, हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस भारत के पूर्वोत्तर के “ईसाईकरण” और कर्नाटक में एक जैन भिक्षु की हत्या को लेकर भी चिंतित दिखा.
इस सप्ताह के समाचारों का सारांश यहां नीचे दिया गया है.
फ्रांस में अशांति को लेकर
ऑर्गनाइज़र ने अपने संपादकीय में फ्रांस में अशांति को “सांस्कृतिक मार्क्सवाद” से जोड़कर देखा, जिसमें कहा गया कि उदारवाद की आड़ में सांस्कृतिक मार्क्सवादी देश के “तथाकथित अल्पसंख्यकों को देश के कानून का पालन न करने का लाइसेंस” दे रहे थे.
यहां उन राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों का जिक्र किया जा रहा था जो नाहेल मेरज़ौक की गोलीबारी के बाद भड़के थे.
संपादकीय में लिखा गया, “दुर्भाग्य से, सांस्कृतिक मार्क्सवाद की विचारधारा, जो कभी भी सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप में विश्वास नहीं करती थी, कानून का पालन करने वाले बहुमत में अपराध की भावना पैदा करती है.”
इसमें आगे लिखा गया, “कानून के शासन के मूल सिद्धांत के अनुसार, अधिकारियों द्वारा किसी नागरिक की हत्या निंदनीय और संदिग्ध है. गलत तरीके से की गई गोलीबारी से नाहेल मेरज़ौक की मौत कोई अपवाद नहीं है. (लेकिन) क्या विरोध के नाम पर आगजनी और लूटपाट को उचित ठहराया जा सकता है? और यही पहला सवाल है?”
संपादकीय में लिखा गया है कि मेरज़ौक 17 साल की उम्र में कार चला रहा था जो फ्रांसीसी कानून के तहत एक अपराध है.
पेरिस के उपनगर में जिस किशोर की पुलिस की गोलीबारी में मृत्यु हुई थी वह लाल बत्ती पार कर तेज रफ्तार से कार चला रहा था. उसने बस लेन में भी तेज़ गति से गाड़ी चलाई और कई चेतावनियों के बावजूद नहीं रुका. इसमें लिखा गया है, “उसके पास न्यायिक फ़ाइल में 15 दर्ज घटनाएं थीं, जिनमें झूठी लाइसेंस प्लेटों का उपयोग करना, बिना बीमा के गाड़ी चलाना और ड्रग्स ले जाना शामिल था.”
2015 में हुए पेरिस हमलों के बाद 2017 में एक कानून बनाया गया था जो पुलिस को किसी ऐसे व्यक्ति को गोली मारने का लाइसेंस देता है जिसके बारे में उनका मानना है कि इससे उनकी और दूसरों की सुरक्षा को “खतरा” हो सकता है.
यूरोप की अशांति को लेकर अपने अपने लेख में, माधव ने दावा किया कि हिंसा ने यूरोप में आप्रवासन को एक बार फिर नजरों में ला दिया, खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद.
उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा, “अपने यूरोपीय समकक्षों के विपरीत, इन आप्रवासियों, ज्यादातर उत्तरी अफ्रीका और पश्चिम एशिया से आए हुए, ने फ्रांसीसी सामाजिक व्यवस्था के साथ एकीकृत होने से इनकार कर दिया और अपनी विशेष पहचान बनाए रखने पर जोर दिया. इनमें से अधिकतर गरीब थे और कई देश में अवैध रूप से घुसे हुए थे.”
उन्होंने लिखा, “बहुसंस्कृतिवाद के पौराणिक विचार के नशे में धुत” उदारवादी-वामपंथी प्रतिष्ठान ने उनका जमकर स्वागत किया.
माधव ने लिखा, “फ्रांस, अपनी संवैधानिक परंपराओं के अनुसार, अपने नागरिकों के लिए फ्रांसीसी राष्ट्रीय पहचान को छोड़कर किसी भी पहचान को मान्यता नहीं देता है. यह धार्मिक या अन्य प्रोफाइल का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता है. फिर भी, यह वह ‘फ्रांसीसीपन’ है जिसका आप्रवासियों की नई लहर के कुछ वर्गों ने पालन करने से इनकार कर दिया है.”
उन्होंने लिखा, जब इन आप्रवासियों ने “फ्रांसीसी राष्ट्रगान के लिए खड़े होने से इनकार कर दिया या जब उन्होंने फ्रांसीसी टीम को अपमानित करने और स्टेडियम में अल्जीरियाई झंडे लहराने का फैसला किया, तो फ्रांस में कुछ लोग इस नए खतरे के प्रति जाग गए”.
उन्होंने लिखा, “अमेरिका में नस्लवाद की बहस की तरह, फ्रांस में आप्रवासी बहस भी कई मिथकों और स्पष्ट अतिशयोक्ति में फंसी हुई है. सभी नागरिकों के लिए फ्रांसीसी जीवन शैली के सम्मान की किसी भी बात को वामपंथी-उदारवादियों द्वारा तुरंत एकीकरणवाद और नस्लवाद करार दिया जाता है. बहुसंस्कृतिवाद को जश्न मनाने की ट्रॉफी के रूप में बरकरार रखा गया है.”
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‘बौद्धिक क्षत्रियों’ की जरूरत
ऑर्गेनाइज़र के एक अन्य लेख में “बौद्धिक क्षत्रियों” से “राष्ट्रवादी आख्यानों को प्रस्तुत करने” में मदद करने और “फर्जी आख्यानों” का जवाब देने का आह्वान किया गया.
‘World awaits India to take role of Vishwaguru, intellectual kshatriyas need to come to the fore’ शीर्षक वाले एक लेख में लेखक पंकज जगन्नाथ जयसवाल लिखते हैं कि “आज दुनिया भारत की ओर देख रही है और हमारे प्राचीन ग्रंथ इसे बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं. इसमें आध्यात्मिक, बौद्धिक, आर्थिक, प्रबंधन, वैज्ञानिक और तकनीकी तत्व शामिल हैं.”
यह लेख और इसका आह्वान “बौद्धिक क्षत्रिय” आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा पिछले सप्ताह पुणे, महाराष्ट्र में एक कार्यक्रम में इसी तरह की अपील करने के एक सप्ताह बाद आया है.
जयसवाल ने ऑर्गनाइज़र में लिखा, “सच्चा काम उन बौद्धिक क्षत्रियों को जगाना है जो सक्रिय हैं, सही इरादे से सावधानीपूर्वक अध्ययन करते हैं, सच्चाई सामने लाते हैं, राष्ट्रवादी आख्यानों को सामने रखते हैं, समय पर चिंताओं को उजागर करते हैं, और समय समय पर नकली आख्यानों और कहानियों का जवाब देते रहते हैं.”
तो ये “बौद्धिक क्षत्रिय” कौन हैं? जयसवाल के अनुसार, इसका एक उदाहरण 17वीं सदी के मराठा राजा शिवाजी की मां जीजाबाई हैं और जिन्होंने “हिंदवी स्वराज्य” या “हिंदू लोगों के स्व-शासन” की उनकी अवधारणा को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई थी.
‘ईसाईकरण के कारण जल रहा मणिपुर’
दैनिक जागरण में अपने कॉलम में, बीजेपी नेता हरेंद्र प्रताप ने मणिपुर में जातीय संघर्ष को “पूर्वोत्तर के ईसाईकरण” के लिए जिम्मेदार ठहराया.
अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में मेइती को शामिल करने की मांग का विरोध करने के लिए निकाले गए ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ के बाद 3 मई को मणिपुर में आदिवासी कुकी और गैर-आदिवासी मेइती के बीच पहली बार झड़पें हुईं. पुलिस आंकड़ों के अनुसार, जारी हिंसा में 157 से अधिक लोग मारे गए हैं और 50,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं.
उन्होंने लिखा, “दिमाहसाओ जिले की कचारी जनजाति को छोड़कर, नागा-कुकी और हमार जनजातियों को ईसाई बना दिया गया है. पूर्वोत्तर के आठ राज्यों- सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय और असम में नागालैंड में 86.47 प्रतिशत, मिजोरम में 94.43 प्रतिशत और मेघालय में 86.14 प्रतिशत जनजातियां/आदिवासी हैं. ये तीन आदिवासी बहुल राज्य अब ईसाई बहुल हो गए हैं.”
प्रताप के अनुसार, आदिवासियों के इस “ईसाईकरण” के कारण उनके बीच राष्ट्र-विरोधी ताकतें भी सक्रिय हो गई हैं.
उन्होंने कॉलम में लिखा, “वास्तव में, पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय सशस्त्र अलगाववादी समूह पहले से ही भारत के एक और विभाजन की योजना बना रहे हैं. उनका कहना है कि अगर मुस्लिम बहुल इलाकों को भारत से काटा जा सकता है तो ईसाई बहुल इलाकों को क्यों नहीं? इसके कारण, परिवहन कठिनाइयों और औद्योगीकरण के अभाव में अलगाववाद की हिंसक राजनीति वहां पनपती रही है.”
उन्होंने लिखा कि इस क्षेत्र को विकसित ईसाई देशों जैसा बनते देखने की इच्छा यहां जोर पकड़ रही है.
प्रताप ने लिखा, “इससे अलगाववादियों का हौसला बढ़ गया. भारतीय और देशभक्ति के प्रति समर्पित लोग पूर्वोत्तर में सेवा कार्य भी न करें, इसके लिए उनके प्रवेश को रोकने की साजिश रची गई. यहां तक कि वनवासी कल्याण आश्रम और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारियों की भी हत्या कर दी गई.”
उन्होंने लिखा, बीजेपी ने पूर्वोत्तर को प्राथमिकता दी है.
प्रताप ने अपने कॉलम में लिखा, “इसके लिए केंद्र सरकार ने एक अलग मंत्रालय बनाया है. इससे वहां के राजनीतिक माहौल में बदलाव आया है. बीजेपी ने अपने दम पर अरुणाचल, मणिपुर, त्रिपुरा और असम में सरकार बनाई है. इसके बावजूद मणिपुर पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है क्योंकि आदिवासी भाइयों के बीच सक्रिय राष्ट्रविरोधी ताकतें साजिशें रच रही हैं. वे कुकी-मेइती संघर्ष का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर रहे हैं.”
मूडीज़ की रेटिंग कम है
दैनिक भास्कर में अपने कॉलम में दक्षिणपंथी लेखक मिन्हाज मर्चेंट ने अमेरिकी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज के ग्रेडिंग सिस्टम पर सवाल उठाए.
मूडीज़ ने भारत को सबसे निचले निवेश ग्रेड “Baa3” में रखा है – जो S&P और फिच द्वारा निर्दिष्ट ‘BBB-‘ के समान है. केंद्र सरकार कथित तौर पर अपग्रेड के लिए मूडीज के साथ बातचीत कर रही है.
उन्होंने लिखा, ग्रेडिंग ऐसी रेटिंग एजेंसियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है.
उन्होंने लिखा, “यह कितना विश्वसनीय है जब भारत पिछले 76 वर्षों में कभी भी संप्रभु ऋण डिफॉल्टर नहीं रहा है? इसके बाद, वैश्विक एजेंसियों द्वारा संप्रभु राष्ट्रों को दी जाने वाली रेटिंग प्रणाली पर सवाल उठाने की आवश्यकता महसूस की गई है. यह समस्या पूरी दुनिया में रेटिंग इकोसिस्टम से जुड़ी है. उदाहरण के लिए, फिच और एसएंडपी – अन्य दो शीर्ष अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों – ने भी अपनी मई 2023 की रिपोर्ट में भारत को बीबीबी की सॉवरेन रेटिंग दी है.”
उन्होंने आगे लिखा कि वैश्विक एजेंसियों की रेटिंग त्रुटिपूर्ण है, लेकिन वे अभी भी यह निर्धारित करते हैं कि विभिन्न संप्रभु धन निधि – राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विदेशों में निवेश की गई राज्य के स्वामित्व वाली संपत्ति – और पेंशन फंड अपना पैसा कहां निवेश करते हैं.
उन्होंने कहा, “वैश्विक एजेंसियां भी प्रेस की स्वतंत्रता, लोकतंत्र, भूख और विश्वविद्यालय रैंकिंग जैसे बिंदुओं पर विकासशील देशों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया दिखा रही हैं.”
उन्होंने आगे लिखा, “भारत में कई आईआईटी में पाठ्यक्रम सामग्री एमआईटी से अधिक कठिन है, लेकिन उन्हें 200वीं रैंक दी गई है. अब समय आ गया है कि क्रिसिल और केयर जैसी भारतीय रेटिंग एजेंसियां भी अलग-अलग देशों की सॉवरेन रेटिंग बनाना शुरू करें और दुनिया के देशों का अलग-अलग मापदंडों पर मूल्यांकन करना शुरू करें.”
जैन मुनि की हत्या
विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने अपनी पत्रिका हिंदू विश्व में कर्नाटक में एक जैन साधु की हत्या की निंदा की. 7 जुलाई को, कामकुमार नंदी का शव कर्नाटक के बेलगावी जिले में एक बोरवेल में टुकड़ों में मिला था. कथित तौर पर वित्तीय विवाद को लेकर हुई इस हत्या ने राज्य में राजनीतिक तूफान ला दिया था.
विहिप महासचिव मिलिंद परांडे ने अपने लेख में कहा कि हत्या और जिहादियों द्वारा उनके पवित्र शरीर को काटना किसी तरह राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की हिंदू विरोधी नीतियों का परिणाम प्रतीत होता है.
उन्होंने कहा, “आज राज्य में न तो साधु और न ही भारतीय समाज सुरक्षित हैं.”
उन्होंने आगे लिखा, “जब से नई राज्य सरकार के मंत्रियों ने गोहत्या विरोधी और धर्मांतरण विरोधी कानूनों को हटाने की बात शुरू की है, तब से धर्म-द्रोही (निंदक लोगों) और राष्ट्र-विरोधी ताकतों का दुस्साहस बढ़ गया है. समाज के लिए कांटे बने इन अपराधियों पर अंकुश लगाकर हत्यारों और उनके साथियों को अविलंब फांसी की सजा दी जानी चाहिए.”
(संपादन: ऋषभ राज)
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