नई दिल्ली: क्या केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति पर भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी अपने कैडर राज्य में पोस्टिंग से इनकार कर सकते हैं? य़ह मामला तब बहस का केंद्र बना जब नागालैंड कैडर के एक पुलिस अधिकारी ने नागालैंड का डीजीपी बनाए जाने पर ‘अनिच्छा’ जताई. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस छिड़ गई है.
शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा ने गृह मंत्रालय (एमएचए) से सोमवार को एक हलफनामा दायर कर यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या डीजीपी के रूप में नियुक्ति के लिए सेंट्रल डेप्यूटेशन पर “एक अधिकारी की सहमति” जरूरी है.
अदालत की यह टिप्पणी नागालैंड सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जाने के बाद आई कि संयुक्त लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने 15 दिसंबर को संभावित डीजीपी का एक “पैनल” राज्य को भेजा था, लेकिन सूची में केवल एक नाम था – 1992-बैच के अधिकारी रूपिन शर्मा, जो इस महीने की शुरुआत में नागालैंड के डीजीपी के रूप में नियुक्त किये गए थे.
हालांकि, यूपीएससी ने 1991 बैच के एक अन्य योग्य नागालैंड-कैडर के आईपीएस अधिकारी, ए. सुनील अचया का नाम इस आधार पर छोड़ दिया था कि उन्होंने इस पद को भरने के लिए अपनी “अनिच्छा” व्यक्त की थी. अचया वर्तमान में एक केंद्रीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) में तैनात हैं.
शीर्ष अदालत में अपने सबमिशन में नागालैंड सरकार ने कहा कि अचया के पास अपने ट्रांसफर को अस्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं था और पैनल में उनका नाम शामिल नहीं करके, यूपीएससी ने राज्य को “विकल्प” चुनने के अधिकार से भी वंचित कर दिया.
राज्य ने आगे कहा कि 2018 में एमएचए ने अचया को इस आधार पर कार्यमुक्त करने से इनकार कर दिया था कि वह एक संवेदनशील पद पर हैं. लेकिन वर्तमान मामले में, पेश किए गए पेपर में यह कहा गया है कि आपत्ति केवल अधिकारी की ओर से आई थी न कि मंत्रालय की ओर से.
नागालैंड सरकार ने यह भी तर्क दिया कि एक अधिकारी की सहमति केवल विदेशी पोस्टिंग के मामले में आवश्यक है, और यह कि यूपीएससी के पास अचया को उम्मीदवार के रूप में छोड़ने का कोई भी कारण नहीं था. दिप्रिंट के पास अदालत में पेश किए गए सारे पेपर मौजूद हैं.
दिप्रिंट ने इस विषय पर जिन वरिष्ठ सेवारत और सेवानिवृत्त आईपीएस और आईएएस अधिकारियों से बात की, वे इस बात पर बंटे हुए लग रहे थे कि क्या अखिल भारतीय सेवा (एआईएस) के सदस्यों के पास उनकी पोस्टिंग, पदों और पैनल में “विकल्प” हैं.
जबकि कुछ अपने मत को लेकर साफ थे, दूसरों ने संकेत दिया कि यह एक ग्रे एरिया है.
दिप्रिंट से बात करते हुए सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी और पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने गृह मंत्रालय और यूपीएससी के तर्कों को ‘अवांछनीय’ बताया.
सिंह ने कहा, “एक अधिकारी के यह कहने का सवाल ही नहीं उठता कि क्या वह पैनल में शामिल होने या किसी विशेष पद पर तैनात होने के लिए इच्छुक या अनिच्छुक है.”
उन्होंने आगे कहा, ”किसी भी अधिकारी की पोस्टिंग और ट्रांसफर एक गोपनीय ब्यूरोक्रेटिक एक्सरसाइज है. इस मामले में अधिकारी से परामर्श किए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. यही नहीं उसकी पसंद या राय के बारे में नहीं पूछा जाना चाहिए. एआईएस के नियम इसी तरह काम करते हैं.”
सिंह ने, विशेष रूप से, भारत में पुलिस सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1996 में, उन्होंने पुलिस के मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप के मुद्दे को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. 2006 में, SC ने नियुक्तियों और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों में सुधार लाने वाला एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था.
जब यूपीएससी के वकील नरेश कौशिक से टिप्पणी करने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि इस मामले पर उनके पास कोई जवाब नहीं है.
उन्होंने कहा, “यह मामला फिलहाल अदालत में है. अभी तक कुछ पक्का सामने नहीं आया है.उन्होंने यह भी कहा कि कुछ चीजों की कोई परिभाषा नहीं होती है. अभी मामला कोर्ट में चल रहा है और कोई नहीं जानता कि कोर्ट क्या रुख अपनाएगी. ”
यह भी पढ़ें: ‘कॉर्बूसियर का विजन ताक पर रखा गया’—चंडीगढ़ फेज-1 में ‘अपार्टमेंटलाइजेशन’ पर रोक लगाने का SC का आदेश
‘पूछने का कोई सवाल ही नहीं’
अगर ट्रांसफर पोस्टिंग को देखें तो यह एक इंटरनल प्रोसेस है और एक डीजीपी की नियुक्ति आमतौर पर यूपीएससी और राज्य सरकार के बीच परामर्श के बाद की जाती है, लेकिन नागालैंड के मामले में दोनों के बीच पिछले कुछ समय से मतभेद रहे हैं.
नागालैंड के डीजीपी की नियुक्ति के मामले का एक लंबा और पेचीदा इतिहास रहा है. यह उस समय का है जब राज्य सरकार ने पिछले साल पिछले डीजीपी टी. जॉन लॉन्गकुमेर का कार्यकाल बढ़ाया था, बता दें कि वह यूपीएससी की सिफारिशों के खिलाफ सेवानिवृत्त होने वाले थे. यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था.
17 अक्टूबर 2022 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से DGP पद के लिए नामों की सूची देने को कहा था. राज्य सरकार ने तब रूपिन शर्मा और सुनील अचया की सिफारिश की थी. लेकिन बाद में, एमएचए ने नोट किया था कि अचया सेंट्रल डेप्यूटेशन से वापस नहीं जाना चाहते थे ऐसे में यूपीएससी ने केवल शर्मा के नाम को आगे बढ़ाया था.
इस बीच, लोंगकुमेर ने पद छोड़ दिया और शर्मा को इस महीने की शुरुआत में डीजीपी नियुक्त किया गया, लेकिन अचया मुद्दे ने एक नया मोर्चा खोल दिया है.
प्रकाश सिंह के मुताबिक इस मामले में गलती यूपीएससी की है.
उन्होंने कहा, “यूपीएससी ने इस विशेष मामले में सीधे तौर पर चूक की है. उनके पास एक नाम भेजने का कोई अधिकार नहीं है. यह गंभीर और गलत बात है. यूपीएससी को इस मामले में तीन अधिकारियों का एक पैनल तैयार करना चाहिए. ”
सिंह ने कहा कि अधिकारियों को सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया गोपनीय होनी चाहिए. उन्होंने कहा, ‘झुकाव और नापसंदगी का सवाल ही नहीं उठता.’ “वास्तव में, अधिकारी को इस बात की जानकारी भी नहीं होनी चाहिए कि उसके नाम पर विचार किया जा रहा है या नहीं.”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए आदेश में कहा है कि यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 15 नवंबर 2022 को, यूपीएससी ने एमएचए को लिखा था कि उसे नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे राज्यों में डीजीपी के लिए 30 साल की सेवा की पात्रता को कम कर के 25 साल तक करने का अधिकार दिया जाना चाहिए. जहां तीन सदस्यीय पैनल बनाने के लिए पर्याप्त वरिष्ठ अधिकारी नहीं थे.
यूपीएससी के वकील ने अदालत को यह भी बताया कि गृह मंत्रालय इस प्रस्ताव से सहमत हो गया है. सुप्रीम कोर्ट ने गृह मंत्रालय को अपने आदेश में इस बातचीत को रिकॉर्ड पर रखने के लिए कहा है.
कोई जगह नहीं
जनवरी 2014 में, कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने एआईएस नियमों में संशोधन करते हुए एक अधिसूचना जारी की थी कि “सिविल सेवा बोर्ड की सिफारिश पर कैडर अधिकारियों की सभी नियुक्तियां की जाएंगी”. इसके अलावा, “कैडर पदों पर सभी नियुक्तियां” राज्य सरकार द्वारा की जाएंगी.
डेप्यूटेशन के मामले में, एआईएस नियम, जो आईएएस और आईपीएस दोनों अधिकारियों पर लागू होते हैं, कहते हैं कि एक कैडर अधिकारी को “संबंधित राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की सहमति से” केंद्र सरकार या किसी अन्य राज्य में डेप्यूटेशन पर भेजा जा सकता है. यदि इस मामले में कोई विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है तो नियम के अनुसार, “मामला केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाएगा और संबंधित राज्य सरकार या राज्य सरकारें केंद्र सरकार के निर्णय को ही मानेंगी”.
नियमों में कैडर पोस्टिंग के लिए अधिकारी की सहमति का उल्लेख नहीं है.
इस बारे में पूछे जाने पर, MHA में IPS पोस्टिंग संभालने वाले एक भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) अधिकारी ने स्वीकार किया कि “आपके हां या न या फिर पोस्टिंग के लिए मना करने की कोई गुंजाइश नहीं है”. उन्होंने कहा, ‘पोस्टिंग के मामले में अधिकारियों की पसंद जानने का कोई नियम नहीं है.’
हालांकि, उन्होंने कहा कि अधिकारी अपने काम की इमरजेंसी की बात बताकर इसे रोक सकते थे.
आईएएस अधिकारी ने कहा, “अधिकारी सरकार से विचार करने का अनुरोध कर सकते हैं. अचया के मामले में भी उन्होंने ऐसा ही किया. गृह मंत्रालय ने उनके (कैबिनेट सचिवालय के तहत रॉ में) पद की गंभीरता का मूल्यांकन करते हुए मंजूरी दे दी.’
इस हफ्ते अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर केंद्र सरकार का मानना है कि सेंट्रल डेप्यूटेशन के तहत ‘राष्ट्र के हित में’ अचया की सेवाओं की आवश्यकता थी, तो उनका ट्रांसफर इसमें रोड़ा नहीं बनेगा. हालांकि, इसमें यह भी कहा कि अधिकारी का कहना, “हां या नहीं कहना पूरी तरह से अप्रासंगिक है” और एमएचए और नागालैंड सरकार को एक दूसरे के साथ विचार करने की जरूरत है.
सिंह का भी यही कहना था. उन्होंने कहा, ”नियमानुसार, एमएचए और राज्य के बीच पैनल तय किए जाने चाहिए. राज्य चाहे तो अधिकारी को मानना ही पड़ेगा. अगर गृह मंत्रालय अधिकारी को कार्यमुक्त नहीं करना चाहता है, तो वह रह सकता है.”
हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि राज्य को उसका अधिकार मिलना चाहिए. “कोई भी राज्य अपने कैंडिडेट पर उतना ही अधिकार रखता है जैसा कि किसी माता-पिता का होता है. यदि राज्य जोर देता है, तो अधिकारी को पोस्टिंग स्वीकार करनी होगी.”
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)
(संपादन: अलमिना खातून)
यह भी पढ़ें: ‘कॉर्बूसियर का विजन ताक पर रखा गया’—चंडीगढ़ फेज-1 में ‘अपार्टमेंटलाइजेशन’ पर रोक लगाने का SC का आदेश