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निशा दिल्ली के रोहिणी जिले में अपने घर के पास एक प्रीस्कूल में काम कर रही थी. उसे महीने में सिर्फ 6000 रुपये मिलते थे. तीन बहनों की शादी हो चुकी है. एक छोटा भाई और एक बीमार मां – तीन लोगों के अपने परिवार में 19 साल की निशा एक मात्र कमाने वाली सदस्य थी. अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए वह करियर के नए रास्ता तलाश रही थी. और जब किसी ने उसे एक नंबर के साथ ये कार्ड दिया तो वह खुश हो गई. इसमें उसकी जिंदगी बदलने का वादा किया गया था. निशा ने उस नंबर पर फोन किया.
फोन करने के बाद निशा की जिंदगी बदल गई, लेकिन कुछ इस तरह से, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी.
हर्बल उत्पाद बेचने वाली कंपनी से जुड़ने के दस दिन बाद, 16 जनवरी 2019 को निशा अपने ऑफिस से घर नहीं लौटी थी. उसके परिवार और रिश्तेदार रिपोर्ट लिखवाने के लिए एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन भागते रहे. लेकिन निशा करोल बाग में एक तीन मंजिला इमारत में कैद थी, जहां कुछ लोगों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया. 17 जनवरी को वह इमारत के नीचे पड़ी मिली. वह गंभीर रूप से घायल थी. पीसीआर आई और उसे दक्षिणी दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया. तीन दिन बाद 20 जनवरी को निशा की मौत हो गई.
कई अन्य बलात्कार पीड़िताओं की तरह, निशा के मामले में भी ढुलमुल रवैया अपनाया गया था– 16 घंटे बाद उसकी गुमशुदगी की शिकायत दर्ज की गई. परिवार वाले पुलिस की लापरवाही और उदासीनता के खिलाफ विरोध करते रहे. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. जिस दिन निशा की मौत हुई उस दिन एफआईआर दर्ज की गई. और दायर की गई चार्जशीट में ‘बलात्कार’ के बजाय व्यापक रूप से ‘सेक्स’ शब्द का इस्तेमाल किया गया था.
यह घटना 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के सात साल बाद की है. निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. चलती बस में 22 साल की फिजियोथेरेपी की छात्रा के सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई थी. लोग गुस्से में सड़कों पर उतर आए और जोरदार विरोध प्रदर्शन किया गया. इसके बाद से भारत में महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले यौन हिंसा के कानून को बदलने को लेकर बहस तेज हुई और फिर ज़ीरो एफआईआर की नई अवधारणा को लाया गया. इसका मतलब है किसी भी पुलिस स्टेशन में घटना से संबंधित शिकायत दर्ज कराई जा सकती है और बाद में शिकायत संबंधित पुलिस स्टेशन में ट्रांसफर कर दी जाएगी.
लेकिन ये संशोधन भी कमोबेश कानून का एक सजावटी पहलू बनकर रह गया, जो शायद ही कभी कागज से बाहर आता है. जिस पल महिलाएं पुलिस स्टेशन में कदम रखती हैं, उसके बाद से उन्हें न्याय प्रणाली से एक अलग लड़ाई लड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है. निशा जैसी महिलाओं के लिए न्याय एक दूर की कोड़ी है. समय पर गुमशुदगी की शिकायतें दर्ज करने में चूक से लेकर फोरेंसिक साक्ष्य के मिटाने और फोरेंसिक रिपोर्ट को पेश करने में देरी, अदालतों में पीड़ित और पीड़ितों के परिवारों को डराने-धमकाने तक – ऐसा लगता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली, पीड़ितों पर मुकदमे चला रही है.
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एफआईआर दर्ज कराना बड़ी चुनौती
निशा और उसके परिवार के लिए उनका निकटतम पुलिस स्टेशन कंझावाला था. कंझावाला ने इस फरवरी में दिल्ली में ‘सर्वश्रेष्ठ पुलिस स्टेशन’ का पुरस्कार जीता था. ऐसे में इस मामले में शहर या देश की पुलिस व्यवस्था से कहीं बेहतर की उम्मीद की जा सकती थी.
17 जनवरी की सुबह करीब 1 बजे कंझावाला थाने के कर्मचारियों ने परिवार से कहा कि वे निशा के ऑफिस मादीपुर में शिकायत दर्ज कराने के लिए जाएं.
निशा के भाई ने बताया, ‘मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी मां को घर में अकेला छोड़कर नहीं जा सकता हूं.’
कंझावला पुलिस ने एक सामान्य या दैनिक डायरी में एक एंट्री तक नहीं की, जो एफआईआर दर्ज होने से पहले किसी भी शिकायत मिलने पर की जाती है. जांच के दौरान और अदालत में इसे काफी महत्वपूर्ण माना जाता है.
अगले दिन सुबह करीब 10 बजे निशा का परिवार मादीपुर पुलिस स्टेशन गया. उन्हें वहां से कनॉट प्लेस ले जाया गया. ये वही जगह थी जहां निशा को उसकी कंपनी ने कथित तौर पर एक मीटिंग के लिए भेजा था. आखिरकार शाम करीब 4.50 बजे गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की गई.
निशा के भाई ने कहा, ‘पुलिस हमारी बात ही नहीं सुन रही थी. हमने इसका विरोध भी किया. वे मामले की जांच नहीं कर रहे थे और हमें कुछ भी नहीं बताते थे.‘
निशा की मौत के दिन ही करोल बाग के प्रसाद नगर थाने में प्राथमिकी दर्ज हुई थी, जहां वह घायल मिली थी. पहले आईपीसी की धारा 308 (गैर इरादतन हत्या का प्रयास) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी. बाद में निशा की मौत की खबर आने के बाद, उसे धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) में बदल दिया गया था.
निशा के इलाके के प्रधान चंदन कुमार ने कहा, ‘हमें संदेह था कि लड़की के साथ कुछ गलत किया गया है. उसके हाथ में काटने के निशान थे. हम पुलिस से पूछते रहे लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया सिवाय इसके कि उसने इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली है.’
इस सिलसिले में 24 जनवरी को पांच आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था. कुमार के अनुसार, पुलिस स्टेशन के कई चक्कर लगाने के बाद, 28 जनवरी को परिवार को इस बारे में सूचना दी गई थी.
चार्जशीट के अनुसार, निशा के संपर्क में आने वाले पहले व्यक्ति, एक किशोर सहित सभी पांच आरोपियों पर सामूहिक बलात्कार, आत्महत्या के लिए उकसाने और अपहरण का आरोप लगाया गया है. फोरेंसिक रिपोर्ट के बाद पूरक चार्जशीट भी दाखिल की गई. किशोर को छोड़कर, कथित रूप से उनका बचाव करने वाली महिला सहित अन्य सभी आरोपी सलाखों के पीछे हैं.
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‘पुलिस की लापरवाही से गंवाई जान’
2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार या ‘निर्भया कांड’, के बाद भारतीय पुलिस की एफआईआर करने में देरी को लेकर आलोचना की गई थी. दरअसल विवाद अधिकार क्षेत्र को लेकर होता है. निर्भया कांड के बाद आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार लाने के लिए गठित जस्टिस वर्मा कमेटी ने अपनी 2013 की रिपोर्ट में सबसे पहले ‘जीरो एफआईआर’ की अवधारणा का सुझाव दिया था.
इस कानून के पेश किए जाने के छह साल बाद स्थिति में कुछ बदलाव नहीं आया. नवंबर 2019 के अंत में हैदराबाद में जानवरों की एक डाक्टर ‘दिशा’ के परिवार को पुलिस यहां से वहां दौड़ाती रही थी. हैदराबाद -बेंगलुरु राष्ट्रीय राजमार्ग में उसकी जली हुई लाश मिलने से एक रात पहले तक पुलिस अधिकार क्षेत्र का हवाला देती रही. अधिकार क्षेत्र पर पुलिस के साथ विवाद के कारण महत्वपूर्ण समय हाथ से निकल गया. जिसकी वजह से जांच और पीड़ित की तलाश में देर होती चली गई. बाद में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज करने में देरी के आरोप के चलते तीन पुलिस अधिकारियों को ड्यूटी में लापरवाही बरतने पर निलंबित कर दिया गया था.
हालांकि, निशा के मामले में पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करवाने से पहले परिवार को कई दरवाजे खटखटाने पड़े थे. उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन की सहायता से दिल्ली महिला आयोग (DCW) और सोशल एक्शन फोरम को पत्र लिखकर कदाचार, लापरवाही और कार्रवाई में देरी का आरोप लगाया था. आखिरकार 13 फरवरी 2019 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के पास शिकायत पहुंची.
एक प्रारंभिक जांच शुरू की गई और अधिकारियों को गैर-संवेदनशील पोस्टिंग या गैर-संवेदनशील इकाइयों में स्थानांतरित कर दिया गया. हालांकि, पिछले साल की शुरुआत में एक एसीपी के नेतृत्व में हुई जांच में उनमें से तीन को एक लिखित चेतावनी के साथ छोड़ दिया गया था. इसमें अधिकारियों की दैनिक डायरी प्रविष्टि को ‘मामूली चूक’ बताया गया था.
इसके बावजूद एनएचआरसी ने अधिकारियों को दोषी ठहराया. जांच में यह पाया गया कि ‘पुलिस अधिकारियों की लापरवाही के कारण (पीड़िता) ने अपनी जान गंवाई’. और पुलिस आयुक्त, दिल्ली को निशा के परिवार को 3 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया गया. इसके अलावा 50,000 रुपये का अतिरिक्त भुगतान करने के लिए भी कहा गया, जो पहले ही किया जा चुका था.
एनएचआरसी की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘अगर पुलिस पीड़िता की तलाश करने के लिए तुरंत कोई कदम उठा लेती तो पीड़िता की जान बचाई जा सकती थी.’
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‘जैसे वो ही अपराध की वजह है’
इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 ने भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के कई प्रावधानों में संशोधन किया. लेकिन, लगभग हर बार पुलिस स्टेशन जाना पीड़िता या पीड़ित के परिवार के लिए किसी परेशानी से कम नहीं होता है. सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में, ‘पुलिस अक्सर पीड़िता से आरोपी की तरह सवाल करती है.’
अदालत ने 2018 के अपने फैसले में कहा था, ‘अगर पीड़िता एक युवा लड़की है जो एक लड़के के साथ डेटिंग कर रही है, तो उससे अजीब शब्दों में और धमकाने वाले लहजे में पूछा जाता है कि वह एक लड़के को क्यों डेट कर रही है. न्याय के साथ पीड़िता का पहला कदम ही दुखदायी हो जाता है. वहां उसे यह महसूस कराया जाता है कि गलती उसकी है और अपराध की वजह वो खुद है’
दिशा के मामले में भी जब उसके परिवार वाले गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस के पास गए, तो उनसे पूछा गया पहले सवाल था- क्या उसका कोई प्रेमी है. साथ ही सलाह भी दी कि वह उसके साथ भाग गई होगी.
2018 के रेवाड़ी सामूहिक बलात्कार मामले में भी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी ने पीड़िता से कहा था कि वह ‘युवा लड़कों पर दोष क्यों मढ़ना चाहती है.’
उसकी मां ने बताया, ‘उन्होंने एफआईआर दर्ज करने में देरी की. रिपोर्ट लिखने की बजाय वे मेरी बेटी से पूछताछ करने में लगे थे.’
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2020 में बलात्कार के मामलों की संख्या में मामूली गिरावट दर्ज की है. 2019 में जहां मामलों की संख्या 32,033 थी वह 2020 में घटकर 28,046 पर आ गए. इसका मतलब है कि महामारी और देशव्यापी लॉकडाउन के साल में भी हर दिन औसतन 77 बलात्कार के मामले देखे गए.
हालांकि एनसीआरबी की रिपोर्ट ने सजा दर में बढ़ोतरी की बात कही है. 2019 में 27.8 प्रतिशत लोगों को इस अपराध की सजा दी गई थी. 2020 में 39.3 प्रतिशत आरोपियों पर अपराध तय हुआ था और उन्हें सजा दी गई. अगर हम देखें तो ये इस तथ्य की तुलना में बहुत कम है कि चार्जशीट दर 82.2 प्रतिशत पर बनी हुई है. कहने का मतलब है, जहां पुलिस 100 में से 82 मामलों में चार्जशीट दाखिल करती है, वहीं 100 में से केवल 39 मामलों में ही दोष साबित हो पाता है.
सामाजिक कार्यकर्ता और PARI (पीपल अगेंस्ट रेप्स इन इंडिया) की संस्थापक योगिता भयाना ने कहा, ‘बलात्कार पीड़िता और उनके परिवारों के लिए न्याय अभी भी एक दूर की कौड़ी है. अगर निचली अदालत आदेश सुना देती है, तो पुलिस जांच में गड़बड़ी के कारण मामला उच्च न्यायालयों में जाकर फंस जाता है और यह सब प्रारंभिक स्तर से शुरू हो जाता है – साक्ष्य एकत्र करने वाले फील्ड अधिकारी प्रशिक्षित नहीं होते हैं, एसओपी का पालन नहीं किया जाता है और कई बार तो अधिकारी अपराध स्थल को तुरंत सील भी नहीं करते हैं. जिसकी वजह से फोरेंसिक साक्ष्य में फिर से छेड़छाड़ की जाती है.’
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जयपुर के एक थाने में ‘पिंक’ मूवी वाली सोच
‘नो मीन्स नो.’ अमिताभ बच्चन ने 2016 की बॉलीवुड फिल्म ‘पिंक’ में अपनी तेज आवाज में इस लाइन को दोहराते हुए ‘सहमति’ के मुद्दे को आम लोगों के बीच पहुंचा दिया था. लेकिन इससे भी आगे आते हुए फिल्म ने ‘जीरो एफआईआर’ के बारे में कई लोगों को बताया था. इसलिए जब स्वाति (* अनुरोध पर बदला हुआ नाम) 2017 में एक ठंडी फरवरी की रात में जयपुर पुलिस स्टेशन पहुंची तो वह जानती थी कि वह जो कर रही है वो सही है. वह अपने उस साथी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए आई थी जिसे वह दो साल से जानती थी. उसने न केवल उसके साथ बलात्कार किया बल्कि बुरी तरह से पीटा भी था.
स्वाति ने कहा कि पुलिस अधिकारियों ने शुरू में उसे उस शहर में जाने के लिए कहा जहां उसके साथ बलात्कार किया गया था. वे स्वाति से दक्षिणी राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में एफआईआर दर्ज करने को कह रहे थे. लेकिन वह घंटों तक वहीं डटी रहीं.
उन्होंने कहा, ‘मैं बस यही सोच रही थी कि मेरे साथ कुछ बहुत गलत हुआ है. मैंने पहले कभी कोर्ट कचहरी से डील नहीं की थी. लेकिन उस समय मेरे दिमाग में पिंक जैसी फिल्में चलती रहीं. मुझे पता था कि जीरो एफआईआर दर्ज की जा सकती है इसलिए मैं अपने दो दोस्तों के साथ पुलिस स्टेशन पहुंच गई थी. मेरे चेहरे और मेरे शरीर पर पिटाई के निशान साफ दिखाई दे रहे थे.’
जीरो एफआईआर दर्ज कराने के लिए स्वाति को एक एनजीओ से जुड़े अपने दोस्तों को बुलाना पड़ा था.
स्वाति की शिकायत के अनुसार, ऋषभ सिंह को वह लगभग दो सालों से जानती थी. उसने उसके साथ तीन बार बलात्कार किया और 24 व 25 फरवरी 2017 की सर्द रात में उसकी पिटाई भी की थी.
स्वाति ने के एक बड़े संस्थान से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है. तब वह डेवलपमेंट सेक्टर क्षेत्र में काम कर रही थी. वह चित्तौड़गढ़ शहर घूमने के लिए आई थी. वह पहले भी अपने दोस्तों के साथ यहां आ चुकी थी. उसी रात ऋषभ ने उसके साथ रेप किया. जब उसने इसका विरोध किया तो उसने यह कह कर धमकाया कि उसके पास पिस्तौल है.
उस रात स्वाति ने अपनी एक दोस्त के साथ चैट करते हुए इसके बारे में बताया था. इसमें उसने लिखा-‘उसके पास पिस्तौल है’, ‘उसे कॉल मत करना, ‘अगर तुमने ऐसा किया तो , वह मुझे मार डालेगा’, ‘मुझे यहां से बाहर निकलना है.’
स्वाति ने बताया कि उसने किसी तरह से ऋषभ का विश्वास जीता और अगली सुबह वहां से जल्दी निकल गई. वह अपने दोस्त के घर जयपुर पहुंची और फिर दोनों साथ में थाने गए.
उन्होंने कहा, ‘बेशक, मुझे बाद में एहसास हुआ कि जो फिल्मों में दिखाया जाता है वो तो पूरे मामले का बस एक हिस्सा भर होता है. दिन के हर सेकंड, हर मिनट में हम और हमारा परिवार किस तरह के तनाव और डर से गुजरता हैं, यह कोई नहीं दिखाता है.’
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‘एक से ज्यादा बॉयफ्रेंड और ड्रग्स’
महिलाओं के लिए यौन हिंसा के मामलों में, अपराध के बाद मिलने वाली दुख-तकलीफ एक नया रूप ले लेती है. देश की न्याय प्रणाली इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभाती है. लगता है मानों महिलाओं पर मुकदमा चलाया जा रहा है. न्यायाधीश अक्सर उनके आरोपों पर राय बनाने के लिए, पहले उनकी जीवनशैली और यौन अनुभवों की बारीकी से जांच करना चाहते हैं.
ऋषभ को अप्रैल के पहले सप्ताह में गिरफ्तार किया गया था. एफआईआर दर्ज होने के एक महीने बाद 11 अप्रैल 2017 को एक अदालत के आदेश पर उसे कुछ ही दिनों के भीतर जमानत दे दी गई थी. आदेश में कहा गया था – ‘उपलब्ध तस्वीरों से पता चलता है कि लड़की के कई बॉयफ्रेंड हैं और वह ड्रग्स भी लेती थी’ आदेश के अनुसार, ऋषभ ने ‘उसके नशे में होने की तस्वीरें और वीडियो’ जमा किए थे.
इस आदेश को बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था. कोर्ट ने इस तथ्य को भी महत्व दिया कि स्वाति ऋषभ से मिलने के लिए ‘अपनी मर्जी से’ चित्तौड़गढ़ गई थी. वह उसे सालों से जानती थी और वे ‘रात भर चैट करते थे.’
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सितंबर 2017 को एक आदेश पारित किया था. इस आदेश में कोर्ट ने उस साल मई में अपने साथ विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक छात्रा के साथ बार-बार सामूहिक बलात्कार और आपराधिक रूप से डराने के लिए दोषी ठहराए गए तीन लोगों को जमानत दे दी थी. अदालत ने उनकी 20 साल की सजा को भी निलंबित कर दिया, जिसमें पीड़ित के लिए ‘कइयों के साथ शारीरिक संबंध’, ‘एडवेंचरिज़म’ और ‘यौन संबंधों में नए-नए प्रयोग’ के कई संदर्भ थे.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ा और उनकी जमानत रद्द कर दी.
अगस्त 2021 में, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) गुवाहाटी के एक छात्र उत्सव कदम को अपनी साथी छात्रा से बलात्कार के आरोप में जमानत दे दी थी कि आरोपी और पीड़िता , दोनों ही ‘राज्य की भविष्य की संपत्ति’ हैं, आदेश यह देखते हुए पारित किया गया था कि हालांकि आरोपी के खिलाफ ‘स्पष्ट रूप से प्रथम दृष्टया’ मामला है.
स्वाति ने कहा कि उन्हें यह भी नहीं पता था कि ऋषभ को कुछ दिनों बाद तक जमानत दे दी गई थी.
2018 में किए गए एक संशोधन से इसे बदलने का प्रयास किया गया. संशोधन के अनुसार ,बलात्कार के मामले में जमानत अर्जी की सुनवाई के समय पीड़िता या पीड़िता द्वारा अधिकृत कोई भी व्यक्ति अदालत में उपस्थित होना अनिवार्य है. लेकिन स्थिति अभी भी पहले जैसी ही है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून 2020 में टिप्पणी करते हुए कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता को अभी भी अधिकांश मामलों में जमानत याचिकाओं की सुनवाई करते हुए अदालतों द्वारा सूचित नहीं किया जा रहा है.
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‘मैं लड़ाई जारी रखूंगी’
चित्तौड़गढ़ में स्वाति के बुरे अनुभव अभी खत्म नहीं हुए हैं. उसने कहा, पिछले दो साल सबसे खराब रहे थे. तब उनकी मां को स्तन कैंसर का पता चला था और वह अदालत की सुनवाई में भाग लेती रहीं थीं.
स्वाति ने बताया, ‘जब मैं कोर्ट रूम में दाखिल हुई, तो ऋषभ मेरे सामने आकर बैठ गया और मुझे घूरता रहा. मैं फिर से डर गई थी, घबराने लगी और लगभग बेहोश हो गई…और सुनवाई के दौरान ऐसा होता रहा. वह हमेशा कोर्ट रूम में मेरे आस-पास घूमता रहता था.’
तब स्वाति ने इस बारे में शिकायत करते हुए सुप्रीम कोर्ट और राजस्थान हाईकोर्ट को पत्र और ईमेल लिखे. वह कहती हैं, हालांकि उन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. लेकिन जब ऋषभ को कोर्ट रूम के दूसरे कोने में खड़ा कर दिया गया, तब जाकर स्थिति बेहतर हुई.
उन्होंने और भी कई पत्र लिखे. इन पत्रों में आरोप लगाते हुए उन्होंने लिखा कि ऋषभ उसे और अन्य गवाहों को धमकाने की कोशिश कर रहा है.
बलात्कार पीड़ितों को कोर्ट रूम के भीतर अक्सर डराया -धमकाया जाता रहा है. इसके चलते पुरुष पर चलने वाला मुकदमा पीड़िता के लिए दुख-तकलीफ में बदल जाता है. इसे ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में देश के सभी उच्च न्यायालयों को हर उच्च न्यायालय और न्यायिक जिला अदालत में एक संवेदनशील गवाह बयान केंद्र (VWDC) बनाए जाने के लिए कहा था. इन केंद्रों में कमजोर गवाहों को डराया -धमकाया नहीं जा सकता है, यहां उन्हें बेहतर माहौल दिया जाता है. हालांकि, एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 25 उच्च न्यायालयों में से 9 ने अभी भी अपने परिसर में केंद्र स्थापित नहीं किए हैं और कई जिला अदालतें उनके बिना भी बनी हुई हैं.
दिल्ली में 2012 से बहुत पहले से वीएचडीसी था. इसमें कमजोर गवाहों में शुरू में केवल नाबालिगों को शामिल किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2022 में इसकी परिभाषा का विस्तार करते हुए, यौन उत्पीड़न के सभी पीड़ितों को इसमें शामिल किया था.
स्वाति ने पिछले साल स्तन कैंसर से अपनी मां को खो दिया था, लेकिन वह अकेले लड़ने के लिए तैयार हैं.
स्वाति ने कहा, ‘वह मेरे साथ लड़ते हुए मर गई. वह बहुत तनाव में रहती थी… अब उससे कौन शादी करेगा? समाज ऐसे सवाल करके जीवन को और मुश्किल बना देता है. मरने से पहले मां ने मुझसे कहा कि मुझे यह लड़ाई जारी रखनी है और मैं ऐसा ही करूंगी.’
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निक्का सिंह से हाथरस तक
किसी भी बलात्कार के मुकदमे में, पीड़िता के मेडिकल और फोरेंसिक सबूत अक्सर मामले को बना या बिगाड़ सकते हैं. इन सभी से न केवल बलात्कार का आरोप साबित करने में मदद मिलती है बल्कि डीएनए सबूत से अपराधी की पहचान भी की जाती है. हालांकि, ट्रायल के दौरान इस तरह के सबूत कम ही पेश किए जाते हैं. लैब में नमूने भेजने में देरी से लेकर देश के सीमित फोरेंसिक संसाधनों की वजह से रिपोर्ट काफी दिनों बाद ही मिल पाती है.
उदाहरण के तौर पर 2013 के पंजाब और हरियाणा के फैसले को ले सकते हैं. इसमें मौत की सजा पाने वाले निक्का सिंह को बरी कर दिया गया था. क्योंकि इस बात के पर्याप्त सबूत नहीं थे कि उसने अपनी 75 साल की बुआ के साथ बलात्कार कर और उसकी हत्या कर दी थी. सबूत के तौर पर नॉर्मल प्रोसीजर के उलट स्टिक के बजाय रूई के दो फाहों पर लिए गए योनि स्वॉब लिया गया था, जैसा कि अक्सर होता है. एक स्वॉब पर ‘फंगस जैसा कुछ’ था, जिसे अदालत ने टेस्ट के लिए भेजने में देरी को जिम्मेदार ठहराया था.
फैसले में साफतौर पर कहा गया था कि पुलिस जिन स्वॉब वाली दो छोटी बोतलों को फोरेंसिक लैब में भेजती है, वह लगभग एक महीने तक पहले मलखाना में धूल खाती रहती हैं.
ऐसा लगता है कि इतने सालों बाद भी कुछ नहीं बदला है. उत्तर प्रदेश के हाथरस में 20 साल की दलित महिला के कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में फिर से ऐसा ही देखने को मिला. एफएसएल रिपोर्ट में पीड़िता के बाल, कपड़े, नाखून, बिस्तर, योनि और गुदा के जिन नमूनों का इस्तेमाल किया गया था, वो घटना के आठ दिन बाद लिए गए थे. अपराध और हमले के 11 दिन बाद फोरेंसिक के लिए इसे भेजा गया था. स्वाभाविक रूप से, एफएसएल रिपोर्ट में बलात्कार से इनकार किया गया और उत्तर प्रदेश पुलिस भी इसी रिपोर्ट के बलबूते यह दावा करती रही कि उसके साथ बलात्कार नहीं किया गया था.
हालांकि, बाद में विशेषज्ञों ने समझाया है कि नमूने एकत्र करने में देरी के कारण इस रिपोर्ट का ‘कोई महत्व नहीं है’. सरकारी दिशा-निर्देशों में यह भी कहा गया है कि यदि घटना के 96 घंटे बाद रिपोर्ट दर्ज की जाती है तो मेडिकल एविडेंस एकत्र नहीं किए जाने चाहिए. क्योंकि इतने समय बाद लिए गए नमूनों से एफएसएल रिपोर्ट बलात्कार को निर्णायक रूप से साबित नहीं कर सकती है. 96 घंटे बीत जाने के बाद वीर्य सहित अन्य सबूत मिट सकते हैं.
निशा के मामले में भी घटना के पांच दिन बाद नमूने लिए गए थे – एक चूक जिसे एनएचआरसी ने नोट किया और कहा कि इससे ‘महत्वपूर्ण सबूत मिलने की संभावना … काफी दूर’ हो गई है.
आदेश में कहा गया, ‘इस मामले में जांच के लिए नमूनों को इक्ट्ठा करने में 5 दिनों की देरी की गई है. जांच के दौरान समय पर लिए गए नमूने बेहतर जांच की आधारशिला होते हैं, खासकर बलात्कार के मामले में. मेडिकल एविडेंस किसी भी मामले को संदेह से परे हल कर सकते हैं.’
डीएनए रिपोर्ट के लिए 1.5 साल
पिछले साल, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने ‘सॉरी स्टेट ऑफ अफेयर्स’ पर स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्यवाही शुरू की थी. यह एक ऐसा मामला था जिसमें एफएसएल रिपोर्ट जमा करने में चार साल लग गए थे. और यह भी कोर्ट की भर्त्सना के बाद हुआ था.
एक आदेश में उल्लेख किया गया है कि 30 नवंबर 2020 तक, सबूत के 35,738 नमूनों में से एफएसएल जांच में देरी के कारण लगभग 7,000 मामले लंबित थे. डीएनए रिपोर्ट के लिए औसतन डेढ़ साल का समय लगता है. डीएनए को बलात्कार के मामलों में एक जरूरी और महत्वपूर्ण सबूत के रूप में देखा जाता है.
अगस्त 2021 में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक सख्त समय-सीमा निर्धारित करते हुए मामलों को अपने हाथों में ले लिया था. कोर्ट चाहता था कि लैब से सभी रिपोर्ट एक महीने के भीतर प्रस्तुत की जाए। सात महीने हो गए हैं, लेकिन इसका कोई फोलो-अप नहीं है. क्या आदेश का पालन किया गया है!
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