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Friday, 20 December, 2024
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1962 के युद्ध के बाद सबसे निचले स्तर पर पहुंचा रक्षा बजट, सांसदों ने जताई चिंता

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संसदीय समिति ने चिंता व्यक्त की है कि 2017-18 में भारत का रक्षा व्यय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.56 प्रतिशत था जो कि – 2014-15 के  2.6 प्रतिशत से नीचे है और  यह चीन के साथ हुए 1962 के युद्ध के बाद से सबसे कम है। संसदीय समिति ने कहा कि देश दो तरफ़ा युद्ध में “आत्मसंतुष्टि बर्दाश्त नहीं कर सकता”

नई दिल्ली: भारत की संसदीय समिति ने कम रक्षा व्यय को ले कर आपत्ति जताई है कि, भारत के वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य में, देश के दो तरफ़ा युद्ध के लिए की जाने वाली तैयारी के सवाल पर भारत ” आत्मसंतुष्टि बर्दाश्त नहीं कर सकता।”

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सूत्र : इंस्टिट्यूट ऑफ़ डिफेन्स स्टडीज और एनालिसिस । एंड्रू क्लारन्स के द्वारा ग्राफ़िक /द प्रिंट

संसदीय समिति ने रक्षा क्षेत्र के देशीकरण में धीमी गति से हो रही वृधि के बारे में भी चिंता व्यक्त की है और बताया है कि,” पिछले साल मई में किए गए अनावरण ‘रणनीतिक साझेदारी मॉडल’ के कार्यान्वयन के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया गया है।”

ये अवलोकन ‘सशस्त्र बलों की तैयारी, रक्षा उत्पादन और खरीद’ पर अनुमान समिति की ड्राफ्ट रिपोर्ट का हिस्सा हैं।

संसद के सदस्य हुई मंत्रणा के बारे में गुप्त रूप से बताते हैं कि,” भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति इस तथ्य के बारे में चिंतित है कि भारत का रक्षा व्यय 2017-18 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.56 प्रतिशत है  जो कि – 2014-15 के 2.6 प्रतिशत से कम  और  यह चीन के साथ हुए 1962 के युद्ध के बाद से सबसे निचले स्तर पर है।“

समिति को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों से यह पाया गया कि, 2014-15 तक  रक्षा व्यय में मामूली वृद्धि हुई थी लेकिन केंद्र सरकार के द्वारा किया गया व्यय  2014-15 में 13.15 प्रतिशत की तुलना में घटकर 2017-18 में 12.2 था।

स्टॉकहोम अंतर्राष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान, जो वैश्विक सुरक्षा पर अनुसंधान आयोजित करता है के अनुसार जीडीपी के हिस्से के रूप में रक्षा व्यय चीन और फ्रांस के बराबर है, सऊदी अरब और रूस के मामले में वृद्धि हुई है और पिछले दशक (2007-2017) में अमेरिका और ब्रिटेन के मामले में कमी आई है।

हालांकि, अनुमान समिति ने अपनी ड्राफ्ट  रिपोर्ट में कहा है कि विकसित देशों के जीडीपी के पैमाने को ध्यान में रखते हुए, जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भारत के रक्षा व्यय में कमी अधिक नज़र आती है।

अस्वीकार्य आवंटन

अनुमान समिति एक कुल रक्षा व्यय के रूप में पूंजीगत व्यय के “असामान्य रूप से कम” अंश के बारे में भी नाखुश है, जो कि 2013-14 में 39% से 2017-18 में 33% तक साल दर साल गिरता रहा है।

एक सांसद ने दिप्रिंट को बताया, “अधिक चिंताजनक स्थिति और यह भी है कि खरीद को सरकार द्वारा किए गए बजटीय आवंटनों के अनुसार समायोजित किया जाना है जबकि सरकार लॉन्ग-टर्म इंटीग्रेटेड पर्सपेक्टिव प्लान (एलटीआईपीपी) के अनुसार अनुमानित आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रख रही है। ”

सांसद ने कहा, “समिति को वर्तमान स्थिति अस्वीकार्य लगती है क्योंकि एलटीआईपीपी के अनुसार आवंटन नहीं किए जा रहे हैं, इस वजह से लम्बी अवधि की रक्षा योजनाओं के उद्देश्य नाकाम हो रहा है।

सांसद ने आगे कहा कि रिपोर्ट को अंतिम रूप देने से पहले पैनल रक्षा मंत्री को बयान के लिए बुला सकता है।

2014-15 और 2015-16 में, बजटीय-अनुमान चरण में किए गए आवंटन संशोधित-अनुमान स्तर पर लगातार कम हुए थे और यहाँ तक कि कम किये गए आवंटनों का भी पूर्ण रूप से उपयोग नहीं किया जा सका था। इसलिए समिति के सदस्य रक्षा अधिग्रहण सचिव द्वारा बयान के दौरान की गयी टिप्पणियों कि “वे रक्षा विभाग से सुनते हैं कि सेनाओं के लिए आवश्यकता बहुत अधिक की है और फंड आवंटन उस हद तक नहीं है” की सराहना करने में सक्षम नहीं थे।

पीपीपी कहाँ है?

एक अन्य सांसद के अनुसार समिति सिफारिश कर सकती है कि रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (डीपीयूएस) को “पर्याप्त स्वायत्तता और संसाधन” दिए जाएँ ताकि वे वाणिज्यिक आधार पर कार्य करने में और सरकार पर निर्भर हुए बिना वैश्विक ग्राहकों को अपने उत्पाद बेचने में सक्षम हो सकें।

समिति ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में कहा है कि “टकराव के मामले में, राष्ट्रीय सशस्त्र बलों को प्राथमिकता दी जाएगी।

एक सदस्य ने कहा कि रक्षा में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के बारे में सरकार के अडिग रहने के बावजूद समिति ने पाया है कि रक्षा क्षेत्र में इसे(सार्वजनिक-निजी भागीदारी) सहूलियत देने के लिए “कोई भी तंत्र मौजूद नहीं है”।

रिपोर्ट से उद्धरण देते हुए एक अन्य सदस्य ने कहा, “रक्षा निर्माण के लिए प्रतिपादित रणनीतिक-साझेदारी मॉडल प्रमुख रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए एक स्पष्ट भूमिका निर्दिष्ट नहीं करता है।  जहाँ तक रक्षा क्षेत्र में सार्वजानिक-निजी साझेदारी के लिए एकीकृत दृष्टिकोण का सवाल है, तो यहाँ अब तक सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय की एक सम्पूर्ण कमी दिखाई देती है। ”

डीआरडीओ की लगी फटकार

अपनी मसौदा रिपोर्ट में समिति ने यह कहते हुए कि यह “देश की उम्मीदों को पूरा करने में सक्षम नहीं है” रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की फटकार लगाई है।

2015 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने बताया कि डीआरडीओ प्रयोगशालाओं द्वारा चलाई गईं 14 मिशन-मोड परियोजनाएं अपनी समयसीमा के अंतर्गत संपन्न होने में विफल रही थीं और इन्हें पूरा होने की संभावित तिथि कई बार बढ़ाई गई थी।

ये मिशन-मोड परियोजनाएं एस-बैंड निगरानी प्रणाली, रोहिणी रडार, सुरक्षित वीडियो और एयरबोर्न प्लेटफ़ॉर्म और ग्राउंड स्टेशन मेघदूत एवं संशोधित मिग -29 लड़ाकू विमान के लिए इलेक्ट्रॉनिक युद्ध सूट के मध्य फैक्स संचार से संबंधित थीं।

एक उच्चस्तरीय रक्षा समिति ने कहा कि डीआरडीओ की कम से कम 11 प्रयोगशालाओं को बंद करने की जरूरत है। अनुमान समिति ने अपनी ड्राफ़्ट रिपोर्ट में बताया है कि डीआरडीओ की कार्य प्रणाली को एक बड़ी मरम्मत की और देश की आवश्यकताओं के संदर्भ में इसके योगदान की फिर से जाँच की जरूरत है।

Read in English : Is India ready for a two-front war? Our MPs don’t think so

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