scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमदेशतलाक के मामलों में नहीं होगी तलाशी, कैसे अदालतें कर रही हैं 'निजता के अधिकार' की रक्षा

तलाक के मामलों में नहीं होगी तलाशी, कैसे अदालतें कर रही हैं ‘निजता के अधिकार’ की रक्षा

भारत में अदालतें वैवाहिक और आपराधिक मामलों सहित कई अन्य मामलों में व्यक्तियों की गोपनीयता और गरिमा की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए सक्रिय हो गए हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन क्या है? कुछ हालिया कानूनी तर्कों के अनुसार, इसमें अदालतों द्वारा तलाक के मामले के लिए होटल के बिलों और कॉल रिकॉर्ड के विवरण की मांग करना, बम विस्फोट के आरोपी की कपड़े उतारकर तलाशी लेना, अधिकारियों द्वारा पहचान प्रमाण की मांग करना शामिल है.

पुट्टस्वामी आधार मामले में 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से वादियों द्वारा उनके “निजता के अधिकार” का दावा कई गुना बढ़ गया है. इस ऐतिहासिक फैसले में, अदालत ने गोपनीयता को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया, जो किसी व्यक्ति की गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है.

इसके बाद, गोपनीयता पर केंद्रित मामलों में अक्सर सार्वजनिक नीति, व्यक्तिगत अधिकारों और यहां तक कि राष्ट्रीय हित या सामाजिक कल्याण के जटिल विचार शामिल होते हैं. विशेष रूप से, निजता का अधिकार डेटा संरक्षण विधेयक की धुरी भी है जिसे आगामी मानसून सत्र में संसद के समक्ष पेश किए जाने की संभावना है.

कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, अदालतें विभिन्न मामलों में व्यक्तियों की गोपनीयता की सुरक्षा के लिए अधिक सक्रिय हो गई हैं.

सुप्रीम कोर्ट के वकील स्वर्णेंदु चटर्जी ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, “पुट्टास्वामी फैसले ने व्यक्तिगत गोपनीयता से संबंधित मामलों के फैसले के तरीके में एक आदर्श बदलाव ला दिया है. यह व्यक्तिगत गरिमा और अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक नई चेतना लेकर आया है.”

उन्होंने कहा, “वैवाहिक, आपराधिक या अन्य मामलों में, अदालतें अब विवेकपूर्ण तरीके से वादियों की गोपनीयता की रक्षा करने में अधिक सक्रिय हैं, जिसे मैं कहूंगा कि यह एक स्वागत करने योग्य विकास है.”

यहां कुछ मामले हैं जो बताते हैं कि निजता के अधिकार के विभिन्न पहलुओं को कैसे लागू किया गया है और अदालतों ने कैसे प्रतिक्रिया दी है.


यह भी पढ़ें: क्या हनुमान चालीसा का पाठ करना राजद्रोह की श्रेणी में आएगा


व्यक्तिगत गलती बनाम सार्वजनिक अपराध

इस बात में एक बड़ा बदलाव आया है कि कैसे वादी न्यायपालिका से अपनी निजता के अधिकार की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं.

इसे सुप्रीम कोर्ट में आए एक मामले में देखा जा सकता है, जहां एक पति ने दिल्ली हाई कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ अपील की है, जिसने उसकी पत्नी को यह साबित करने के लिए उसके फोन रिकॉर्ड और होटल के बिलों तक पहुंचने की इजाजत दी थी कि उसका अफेयर चल रहा है.

पति ने तर्क दिया है कि चूंकि व्यभिचार एक निजी गलती है, न कि कोई अपराध या सार्वजनिक अपराध, इसलिए उसके कॉल रिकॉर्ड और होटल बिलों तक पहुंच, जैसा कि उसकी पत्नी ने मांग की थी, उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा. यह भी तर्क दिया गया है कि ऐसे रिकॉर्ड तक पहुंच को केवल तभी उचित ठहराया जा सकता है जब यह राष्ट्रीय हित में हो.

इस महीने की शुरुआत में मामले की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने शख्स की पत्नी को नोटिस भेजा और जवाब देने को कहा.

वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि जहां गोपनीयता संबंधी चिंताएं महत्वपूर्ण हैं, वहीं किसी व्यक्ति के अपने मामले को साबित करने के अधिकार पर भी विचार किया जाना चाहिए.

लूथरा ने कहा, “कॉल रिकॉर्ड और डीएनए से जुड़े निजी पक्षों के बीच दुष्कर्म में, किसी को अपनी बेगुनाही साबित करने या अपना पक्ष रखने का अधिकार होना चाहिए. मेरे विचार में, किसी के मामले को साबित करने का अधिकार निजता के अधिकार के साथ-साथ मौजूद रहना चाहिए.”

उन्होंने कहा, हालांकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने काफी हद तक इसके ख़िलाफ़ निर्णय लिया है, लेकिन कुछ मामलों में मैं न्यायालय के फैसले से बिल्कुल सहमत नहीं हूं. एक संतुलन की जरूरत है – एक की चिंता को कई की चिंताओं के मुकाबले संतुलित किया जाना चाहिए.’

उन्होंने आगे कहा, “यह याद रखना चाहिए कि व्यक्तियों के बीच निजता का कोई अधिकार नहीं है, यह केवल सरकार के खिलाफ है.”

‘कपड़े उतारकर तलाशी, कैदी की निजता के अधिकार का उल्लंघन’

न्यायालयों ने निजता के अधिकार के सिद्धांत को सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू किया है, भले ही वे कानून के पक्ष में न हों.

यह 1993 के बॉम्बे ब्लास्ट के आरोपी अहमद कमाल शेख के मामले में स्पष्ट है, जिन्होंने दावा किया था कि अदालत की सुनवाई के बाद मुंबई जेल के प्रवेश द्वार पर उनकी “कपड़े उतारकर तलाशी” ली गई थी.

कानूनी सहारा लेते हुए, उन्होंने शिकायत की कि यह प्रक्रिया, जो हथियारों या अन्य प्रतिबंधित वस्तुओं की तलाश के लिए किया जाता है, उनके निजता के अधिकार का उल्लंघन है.

इस अप्रैल में पारित एक आदेश में, महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत विशेष न्यायाधीश शेख से सहमत थे कि इस तरह की तलाशी से उनकी निजता के अधिकार का उल्लंघन होता है.

न्यायाधीश ने कहा, ”निश्चित रूप से, यूटीपी (विचाराधीन कैदी) को नग्न करके तलाशी लेना उसकी निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, और यह अपमानजनक भी है.”

उन्होंने जेल अधीक्षक को यह सुनिश्चित करने के लिए भी कहा कि ऐसी कोई घटना न हो और कपड़े उतारकर तलाशी लेने के बजाय स्कैनर जैसे गैजेट का उपयोग किया जाए.


यह भी पढ़ें: SC ने कई राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने पर विचार करने के लिए दिया 3 महीने का वक्त


‘शीर्ष 10 अपराधी’, और ‘तिरस्कार’ से सुरक्षा

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2021 में फैसला सुनाया कि कानूनी उद्घोषणा के अभाव में कथित “शीर्ष 10 अपराधियों” की सूची प्रकाशित करने की उत्तर प्रदेश पुलिस की प्रथा गरिमा के लिए हानिकारक थी और निजता के अधिकार का उल्लंघन है.

अदालत का निर्णय तीन व्यक्तियों – जीशान, बलवीर और दूध नाथ – द्वारा दायर एक याचिका पर आधारित था, जो ऐसी सूची में अपने नाम के प्रकाशन से व्यथित थे. लोगों ने तर्क दिया कि वे केवल एक मामले का सामना कर रहे थे और राजनीतिक दुश्मनी के कारण उनका नाम सूची में शामिल किया गया था. उन्होंने यह भी दावा किया कि ऐसी सूची प्रकाशित करने से उनकी गोपनीयता का उल्लंघन हुआ है.

उनके तर्क में योग्यता पाते हुए, अदालत ने कहा कि गोपनीयता अधिकारों ने किसी को अधिकार के अंधाधुंध प्रयोग से बचाया है. इसमें आगे कहा गया कि पुलिस स्टेशनों पर “फ्लाईशीट बोर्ड” पर उनके नामों का प्रकाशन उनकी मानवीय गरिमा और गोपनीयता के लिए अपमानजनक था.

अदालत ने कहा था, “जीवन के अधिकार के रूप में निजता के एक पहलू पर ध्यान केंद्रित करने वाले इस फैसले ने किसी व्यक्ति को कानून या राज्य द्वारा अधिकार के प्रयोग से अलग कर दिया है ताकि किसी व्यक्ति को उपहास या तिरस्कार का पात्र न बनाया जा सके.” पुलिस को आदेश देते हुए अदालत ने कहा कि जब तक वैधानिक उद्घोषणा जारी न की जाए ऐसी सूचियां न लगाएं जाए.

व्यक्तिगत दस्तावेजों की मांग

यहां तक कि व्यक्तिगत दस्तावेजों के पुलिस सत्यापन से जुड़े मामलों में भी, अदालतों ने गोपनीयता अधिकारों के अनुरूप होने की आवश्यकता पर जोर दिया है.

यह तब स्पष्ट हुआ जब दिल्ली हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति आशा मेनन ने पिछले साल जुलाई में एक प्रतिवादी के व्यक्तिगत दस्तावेजों के पुलिस सत्यापन की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया.

एक विवाद के बाद, याचिकाकर्ता ने आधार कार्ड और ड्राइवर के लाइसेंस जैसे व्यक्तिगत दस्तावेजों के माध्यम से प्रतिवादी की असली पहचान की पुष्टि करने में पुलिस से सहायता मांगी थी.

हालांकि, न्यायाधीश इस तर्क से सहमत नहीं थे, उन्होंने कहा कि इस तरह का “रूटीन इन्वेशन” अस्वीकार्य था.

आदेश में कहा गया है, “याचिकाकर्ता की इस मांग को छोड़कर, बिना किसी अच्छे कारण के किसी नागरिक को उसके दस्तावेजों सहित पुलिस जांच के अधीन करना, प्रतिवादी के निजता के अधिकार का गंभीर उल्लंघन होगा.”

भूल जाने का अधिकार

गोपनीयता संबंधी फैसले के बाद भारतीय अदालतों ने भी “भूल जाने के अधिकार” को मान्यता दे दी है. यह कुछ परिस्थितियों में निजी जानकारी हटाने का अधिकार प्रदान करता है.

इसे एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में, अदालतों ने कभी-कभी “डिजिटल स्थायित्व” के आसपास एक रास्ता खोजने का प्रयास किया है – यह विचार कि इंटरनेट पर जो है वह इंटरनेट पर ही रहता है.

उदाहरण के लिए, जून में, दिल्ली हाई कोर्ट ने एक कानूनी वेबसाइट को उस व्यक्ति का नाम “छिपाने” का निर्देश दिया, जिसे अभियोजक की गवाही अविश्वसनीय पाए जाने के बाद बलात्कार के मामले में बरी कर दिया गया था.

उस व्यक्ति ने मदद के लिए हाई कोर्ट से संपर्क किया था और दावा किया था कि फैसले के ऑनलाइन होने के कारण उसे बहुत कुछ सहना पड़ा है.

उनका तर्क था कि उक्त मामले में उनका नाम जुड़ने से उनकी छवि खराब हुई है और उनकी निजता के अधिकार में “भूल जाने का अधिकार” भी शामिल है.

दिल्ली हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह ने सहमति व्यक्त की और निर्देश दिया कि उनका नाम वेबसाइट से हटाया जाना चाहिए. उन्होंने वेबसाइट को भूल जाने के अधिकार पर अपनी नीति दर्ज करने का भी निर्देश दिया.

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादन: अलमिना खातून)


यह भी पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून पर लगाई रोक, बोली- अगर मामला दर्ज हो तो अदालत का दरवाजा खटखटाएं


 

share & View comments