नई दिल्ली : हर साल स्वतंत्रता दिवस पर अनगिनत प्लास्टिक के छोटे तिरंगे आपको स्कूली बच्चों के हाथों में, गाड़ी या ऑटो रिक्शा में लगे दिख जायेंगे. 15 अगस्त बीतने के बाद वही झंडे आपको धूल खाते सड़कों पर बिखरे दिखेंगे. इस दौरान सोशल मीडिया तिरंगे की बेकद्री की शिकायत करती तस्वीरों से पट जाता है. तिरंगे के हो रहे अपमान को देखते हुए गृह मंत्रालय ने पिछले साल विशेष आदेश दिया था कि प्लास्टिक के झंडे की जगह कपड़े के झंडे का इस्तेमाल होना चाहिए. पर इतनी बड़ी संख्या में इसके निर्माण को काबू में रख पाना मुश्किल है. ऐसे में एक मां ने पर्यावरण बचाने से लेकर झंडे के सम्मान को ध्यान में रखकर सीड फ्लैग्स का निर्माण करती हैं.
इधर-उधर फैले तिरंगे को देख विचलित हुई मांं
मुंबई की स्वाति दधीच की चौथी क्लास में पढ़ने वाली बेटी जब स्वतंत्रता दिवस पर स्कूल से घर पर प्लास्टिक के छोटे तिरंगे लेकर आती है तो स्वाति के लिए उन तिरंगों को संभाल कर रखना एक बड़ा सवाल बन जाता था. प्लास्टिक के ये तिरंगे नष्ट नहीं किये जा सकते. एक बार उपयोग हो जाने के बाद ये इधर उधर बिखरे पड़े रहते थे. ऐसे में स्वाति को लगा कि क्यूं न इस तरह के तिरंगे बनाये जाएं जिससे पर्यावरण को नुकसान भी न हो और इनका निपटान सही तरीके से हो सके. इसी विचार से सीड फ्लैग्स का जन्म हुआ. इस काम में उनकी मदद की उनके एक मित्र ने जो ’21 फूल्स’ नाम की एक कंपनी चलाते हैं जहां सीड पेपर बनाने का काम किया जाता है. इससे पर्यावरण के बचाव को नई उम्मीद मिली है.
कैसे बनता है सीड फ्लैग
स्वाति की इस पहल को देश ने हाथों हाथ लिया है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि एक फ्लैग को बनाने में बेकार हो चुके कपड़े, गोंद, पानी और बीजों का इस्तेमाल होता है. ये बीज अधिकतर फूलों के पौधों के होते हैं. तिरंगे की कीमत मात्र 10 रुपये है. इस नयी पहल को स्कूल और कॉलेज के छात्र, गैर सरकारी संस्थाओं, कॉर्पोरेट, हाउसिंग सोसायटी इत्यादि से काफी सपोर्ट मिल रहा है. स्वाति ने बताया कि बिना किसी विशेष प्रचार प्रसार के सोशल मीडिया के माध्यम से अब तक 50,000 के करीब तिरंगे लोगों ने खरीदे हैं. और ऑर्डर लगातार मिल ही रहा है. बता दें की तिरंगे को आदर सहित मिट्टी में दफना देना भारतीय ध्वज संहिता के अनुसार मान्य है.
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क्या है सीड पेपर
सीड पेपर यानी ऐसा कागज जिसे हाथ से प्राकृतिक चीज़ों का इस्तेमाल करते हुए बनाया जाता है. इस कागज़ को बनाने में लकड़ी का इस्तेमाल बिलकुल नहीं होता. कागज़ बनाते हुए इसमें विभिन्न पौधों के बीज डाल दिए जाते हैं ताकि जब कागज़ को खराब होने के बाद ज़मीन में बोया जाए तो उससे पौधा उग सके. इसी विचार के साथ स्वाति और उनके मित्र ने हाल ही में ऐसे कई सीड फ्लैग्स बनाये.
पर्यावरण के बचाव में अब देश के युवा बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं. सीड फ्लैग के साथ नागपुर के सीड कैलेंडर वाले भी सामने आए हैं. मजेदार बात ये है कि इस कैलेंडर से तारीख और महीने के समाप्त होने के बाद आप कैलेंडर के उस पन्ने को घर के गमले या फिर खेत में दबा दें. यकीन मानिए कुछ दिन की आपकी थोड़ी सी देख-रेख के बाद उससे जमीन से पौधा निकलेगा और वो उस सीज़न की सब्जी होगी.
सीड कैलेंडर भी प्रचलन में
नागपुर से 60 किलोमीटर दूर स्थित परदसिंगा नाम के एक गांव के निवासियों ने अनोखी पहल की है. यहां के कुछ छात्र, कलाकार व अन्य लोग मिलकर ग्राम प्रोजेक्ट नाम से एक कार्यक्रम पिछले 6-7 वर्षों से चला रहे हैं. ये समूह खेती से जुड़े नए प्रयोग कर गांव वालों की अजीविका के लिए काम करता है. इसी कार्यक्रम के दौरान पिछले साल इन सबने मिलकर सीड कैलेंडर बनाये. सीड फ्लैग्स की ही तरह ये कैलेंडर भी पूरी तरह से प्राकृतिक कागज़, कपड़े व रंगों का उपयोग करते हुए ही बने हैं. खास बात ये है कि इन्हें बनाने वाली 90 फीसदी उसी गांव की महिलाएं हैं. इस कैलेंडर के हर महीने के कागज़ में अलग अलग सब्जियों के बीज डाले जाते हैं. ये बीज उस महीने के मौसम के अनुकूल जांच कर डाले जाते हैं ताकि महीना ख़त्म होते ही सब्जियों के पौधे उगाये जा सकें. उनकी इस पहल को लोगों ने खूब पसंद किया और पहली बार में ही 200 कैलेंडर बिक गए.
इस समूह की सदस्य श्वेता भट्टड़ ने दिप्रिंट को बताया, ‘आने वाले साल के लिए वो अलग-अलग विषयों या कहानियों से जुड़े कैलेंडर बनायेंगे ताकि लोगों में कुछ विषयों को लेकर जागरूकता भी फैलाई जा सके’.
पर्यावरण के प्रति जागरूक समूह बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे हैं और ऐसी पहल देशभर में कई जगहों पर की जा रही है. ऐसे में इन उत्पादों के मांग बनी रहे, इसके लिए ज़रूरत है कि इनके लिए उपयुक्त बाज़ार खड़ा करने की. पर्यावरण के बचाव की दृष्टि से हर छोटी पहल अहम है और इस तरह के प्रयासों को बढ़ावा देने में नागरिकों की भूमिका महत्वपूर्ण है.
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सीड पेपर से बनी चीजें नई नहीं
सीड पेपर से बनी ये चीज़ें बाज़ार में नई नहीं हैं. इससे स्टेशनरी का सामान बनाने वाली कंपनी ‘इको फ्रैंडली जलेबी’ की संस्थापक रेणुका शाह का कहना है कि इससे बनी चीज़ें विदेश में बहुत प्रचलित थीं. पर भारत में जब हमने खोजा तो हमें कुछ ज्यादा खास नहीं मिला. जो पेपर हमारे हाथ लगे उनमें विदेशी बीज था जो भारत की जलवायु के अनुकूल नहीं था. ‘तब हमने खोज-बीन करके ऐसे कागज़ बनाने शुरू किए जिसमें अपने देश की जलवायु के अनुसार बीज डाले हों ताकि मिट्टी में दबा देने पर वो आसानी से उग आएं’.
स्वाति की ही तरह रेणुका को भी ये आइडिया अपने बेटे से आया. रेणुका ने बताया की जब उनका बेटा 10 माह का था तब उनके मन में सवाल आया कि आने वाली पीढ़ी के बेहतर भविष्य के लिए वे क्या कर रहे हैं? इस पर उन्हें सूझा की क्यूं न सीड पेपर से बनी स्टेशनरी बनायी जाए. बस इस आइडिया को हर तरह से प्रोत्साहन मिला और रेणुका की कंपनी अब जमीन में दबाने पर पौधा बन जाने वाली पेंसिल से लेकर नोटबुक तक बना रही हैं. यही नहीं, वे स्कूलों के बच्चों और स्लम एरिया के बच्चों के लिए मुफ्त में सीड पेपर नोटबुक और पेन्सिल बनाने की वर्कशॉप भी कराती हैं.’
हमारा मकसद है कि ऐसे तरीके खोजे जाएं जिससे पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो और लोगों को आजीविका के भी साधन मिलें. आखिर यही है जो हम अपने बच्चो के लिए छोड़ कर जा सकते हैं’ रेणुका ने दिप्रिंट को बताया.