scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होमदेशमणिपुर के सबसे खराब संपर्क वाले जिले में क्यों इन ग्रामीणों ने सड़क के लिए छोड़ दिए अपने अधिकार

मणिपुर के सबसे खराब संपर्क वाले जिले में क्यों इन ग्रामीणों ने सड़क के लिए छोड़ दिए अपने अधिकार

पीढ़ियों से तामेंगलॉन्ग के ग्रामीणों को बुनियादी जरूरतों, यहां तक कि स्वास्थ्य सुविधाओं तक के लिए मीलों पैदल चलकर जाना पड़ता था. 10 गांवों के लोग अब मुफ्त जमीन देने के लिए तैयार हो गए हैं, ताकि एक सड़क बनाई जा सके.

Text Size:

तामेंगलॉन्ग: मॉनसून के दौरान मणिपुर के फेलॉन्ग गांव के वासियों को सबसे नजदीकी जिला मुख्यालय तामेंगलॉन्ग तक पहुंचने के लिए जोखिम भरे पहाड़ी इलाकों से होते हुए 20 किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है. फेलॉन्ग के एक 28 वर्षीय निवासी पूदिनबू नियुमे ने कहा कि वो आखिरी बार जुलाई में इस रास्ते से पैदल चलकर गया था, जब उसे एटीएम इस्तेमाल करना था.

उसने दिप्रिंट से कहा, ‘मॉनसून के दौरान (जुलाई से सितंबर) जब किसी गाड़ी के हमारे गांव तक पहुंचने की उम्मीद ना के बराबर होती है, तो हम तब तक कहीं नहीं जाते, जब तक बहुत जरूरी न हो’. उसने आगे कहा कि गर्मियों और सर्दियों में, उनके पास गाड़ी से जाने का विकल्प होता है.

फेलॉन्ग गांव में जो एक पहाड़ी पर स्थित है, तिकोनी छतों वाले कुछ घर हैं, एक छोटा स्कूल है, एक चर्च और एक प्रार्थना स्थल है. लेकिन यहां और ज़्यादा कुछ नहीं है. बुनियादी चीज़ें हासिल करने या अपनी उपज को बेचने का इनके पास एक ही रास्ता है- लंबी दूसरी का पैदल सफर.

Phellong village | Simrin Sirur | ThePrint
फेलॉन्ग गांव | सिमरन सिरून/दिप्रिंट

पचास वर्ष पहले, गांव वासियों को इम्फाल तक जाने के लिए 150 किलोमीटर पैदल चलकर जाना होता था. 1969 में ये दूरी घटकर 20 किलोमीटर रह गई, जब तामेंगलॉन्ग मुख्यालय स्थापित किया गया. अड़तालीस साल बाद 2017 में मिट्टी खोदने वाले यंत्रों की सहायता से रास्ते को इतना चौड़ा कर दिया गया कि उसपर एक गाड़ी आ सके. मुख्यालय जाने का एक और रास्ता भी है लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि उससे सफर चार से छह घंटे लंबा हो जाता है.

जिले में चिकनी और काली परत की सड़कें बनाने के वायदे, किसी न किसी कारण से कभी पूरे नहीं हो पाए, जिनमें कठिन इलाका, धन की कमी, राजनीतिक रूचि की कमी और क्षेत्र में काम कर रहे भूमिगत ग्रुप्स की ओर से व्यवधान आदि शामिल हैं.

एक बाकायदा सड़क का सपना तामेंगलॉन्ग के अंदरूनी इलाकों में स्थित बहुत से गावों से मिला है, जहां कोई कार नहीं जा सकती.

तामेंगलॉन्ग को मणिपुर का सबसे खराब संपर्क वाला जिला माना जाता है, जहां मुख्यालय से होकर जाने वाली कुछ गिनी चुनी सड़कें या तो टूटी हुई हैं या उनकी मरम्मत चल रही है.

2020 में तामेंगलॉन्ग को असम से जोड़ने वाली एक 100 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का प्रस्ताव सामने आया था. इससे तामेंगलॉन्ग के दस दूर-दराज़ के गांव सीमा के उसपार हैफलॉन्ग से जुड़ जाएंगे.

लेकिन राह में एक अड़चन थी- लागत. राज्य सरकार के अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि परियोजना की अनुमानित लागत 1,895 करोड़ रुपए थी. इसमें से 500 करोड़ रुपए से अधिक जमीन खरीद के मुआवज़े के लिए था.

फेलॉन्ग के सचिव गुजिरंग नियुमे ने बताया, ‘जिला प्रशासन के साथ कई दौर की बातचीत हुई कि सड़क कहां और कैसे बनेगी और उसकी लागत क्या होगी. अगर हम मुआवजे पर अड़े रहते, तो हमारे सामने सड़क योजना के रद्द हो जाने का खतरा था, जैसा कि पहले कई बार हो चुका है’.

महीनों तक विचार-विमर्श चलता रहा और अंत में सभी 10 गांव मिलकर एक फैसले पर पहुंच गए.

नियुमे ने कहा, ‘हमने जमीन मुफ्त देने का फैसला कर लिया. ये एक त्याग था. लेकिन आप नहीं जानते कि बिना सड़क के रहना कैसा होता है. हज़ारों लोगों की उम्मीदें और सपने इसी पर टिके हैं’.


यह भी पढ़ें: अमरुल्ला सालेह की बेटी ने कहा- तालिबान की वापसी अफगानों की नई पीढ़ी के लिए सबसे बड़ा आघात


खुशहाली की सड़क

जब गांव वाले मुआवजे को छोड़ने का फैसला करते हैं- तो तामेंगलॉन्ग के अलावा ऐसी केवल एक ही मिसाल है- इसके पीछे बरसों का अनैच्छिक अलगाव प्रेरणा होती है. 2019 में, चीन की सीमा से लगे अरुणाचल प्रदेश के 10 गांवों ने ऐलान किया कि वो मुआवज़ा छोड़ना चाहते हैं ताकि उनकी जमीन पर एक 150 किलोमीटर लंबा हाई-वे बनाया जा सके.

देश के किनारे पर स्थित इन गांवों के लोग आज़ादी के समय से बिना सड़कों के रह रहे थे और इस प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए बेचैन थे.

तामेंगलॉन्ग का अधिकतर हिस्सा इसी तरह निर्जन और असहाय है, जहां जिले के करीब 50 प्रतिशत गांवों में हर मौसम में गाड़ियां चलने योग्य सड़कों की सुविधा नहीं है.

उत्तर-पश्चिम में असम और उत्तर-पूर्व में नागालैंड की सीमा पर बसे, इस जिले का 90 प्रतिशत हिस्सा घने जंगलों से ढका है.

यहां का कुदरती नज़ारा बिल्कुल प्राचीन है और जहां तक निगाह जाती है वहां तक हरी-भरी पर्वत श्रृंखलाएं फैली हुई हैं. लेकिन इस सुंदरता के नीचे वो कठिनाई छिपी हुई है, जिसका सामना जंगलों के बीच रहने वाले यहां के लोग करते हैं और जिन्होंने इस क्षेत्र में विकास न होने की भारी कीमत चुकाई है.

जिले के 18 गांवों में एक सरकारी संस्था भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक सर्वे में पता चला कि संपर्क के न होने से यहां स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ा था. सर्वे किए गए केवल 25 प्रतिशत गांवों में चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं और केवल 21 गांवों तक बस से पहुंचा जा सकता था.

दायलॉन्ग के सचिव हियामकमांग गेनमेइ ने कहा, ‘हमने दशकों तक मुसीबतें उठाई हैं. मेरे पिता और उनके पिता ने कष्ट सहा है. अस्पताल पहुंचने के लिए हमें सात-आठ किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है. कभी-कभी इसलिए नहीं जा पाते कि रास्ता बहुत खराब होता है’. हियामकमांग के पूर्वजों ने 646 ईसवीं सदी में इस गांव की स्थापना की थी.

दायलॉन्ग जिला मुख्यालय से केवल 10 किलोमीटर दूर है. लेकिन मॉनसून में इस दूरी को तय करने में एक घंटा तक लग जाता है क्योंकि सड़क की बनावट बदलती रहती है- कहीं सड़क बिल्कुल चिकनी है, कहीं काली परत की कंकड़ उखड़ी हुई है, कहीं मैली दलदल है, तो कहीं सड़क है ही नहीं. सिर्फ जिप्सी या 4×4 की कोई गाड़ी ही इस इलाके को झेल सकती है, वो भी तब जब वाहन की नियमित रूप से मरम्मत होती रहे- एक ऐसी विलासिता जिसे गांवों में शायद ही कोई वहन कर सकता है.


यह भी पढ़ें: राहुल गांधी से मिलने के बाद बोले बघेल- जब तक कांग्रेस हाईकमान चाहेगा तब तक CM पद पर बना रहूंगा


विकास की कीमत

तामेंगलॉन्ग जिला मुख्यालय को हफलॉन्ग से जोड़ने के लिए सड़क की योजना सबसे पहले 1980 में बनी थी, जिसका जिम्मा इलाके के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए बनी सरकारी नोडल एजेंसी पूर्वोतर परिषद (एनईसी) के पास था.

आगे के वर्षों में हाई-वे पर होने वाले काम की गति धीमी पड़ गई और 1997 तक काम को पूरा करने का जिम्मा कथित रूप से सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) को दे दिया गया.

बीआरओ को सड़क का नक्शा सही नहीं लगा और उसने एक बदलाव प्रस्तावित किया. उन्होंने मणिपुर सार्वजनिक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) को निर्देश दिया कि वो जांच करे और ‘खराब नक्शे के लिए जवाबदेही तय करे’ लेकिन 2008 में एक स्थानीय अखबार संगाई एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार, विभाग ने उसे टाल दिया. 2008 तक एनईसी ने सड़क के लिए फंड्स निलंबित कर दिए, जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सका.

तॉसेम छात्र संगठन के एक कार्यकर्ता नेहेमिया ज़ेमे ने कहा, ‘हमें समय-समय पर सड़क के वायदों का प्रलोभन दिया जाता रहा है. जब काम शुरू होता है, तो या तो वो पूरा नहीं होता या फिर सड़क खराब क्वालिटी की होती है जो भारी मॉनसून को सह नहीं पाती’. तॉसेम तामेंगलॉन्ग की सबसे खराब संपर्क वाला सब-डिवीज़न है, जिसमें फेलॉन्ग समेत 53 गांव आते हैं.

ज़ेमे ने आगे कहा, ‘कभी कभार सांसद विकास निधि से सड़कें बन जाती हैं. लेकिन जिले को जोड़ने का कोई सम्मिलित प्रयास नज़र नहीं आता’.

मणिपुर एक कम आय वाला राज्य है. पीआरएस विधायी शोध के पांच वर्षों के विश्लेषण से पता चला है कि सूबे का 90 प्रतिशत राजस्व केंद्र से स्थानांतरित होता है और सिर्फ 10 प्रतिशत इसके अपने करों और संसाधनों से आता है. 2015 से 2021 के बीच मणिपुर ने अपने बजट का केवल 4.2 प्रतिशत पैसा सड़कों पर खर्च किया, जो उत्तर-पूर्व के दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत कम है- अरुणाचल प्रदेश में 15.8 प्रतिशत, मिज़ोरम में 9.2 प्रतिशत और मेघालय में 7.3 प्रतिशत खर्च किया गया.

A road in Tamenglong | Simrin Sirur | ThePrint
तामेंगलॉन्ग की एक सड़क | सिमरन सिरून/दिप्रिंट

2012 में तामेंगलॉन्ग डिप्टी कमिश्नर आर्मस्ट्रॉन्ग पामे (उस समय सब-डिवीज़नल ऑफिसर) ने एक क्राउंडफंडिंग अभियान शुरू करके तामेंगलॉन्ग-हफलॉन्ग मार्ग बनाने का प्रयास किया, जिसे पीडब्ल्यूडी नहीं बना पाया था. लेकिन वो सड़क सभी मौसमों के लिए नहीं थी और जल्द ही खराब हो गई.

इंपा गांव के रहने वाले तामेंगलॉन्ग निवासी पामे ने दिप्रिंट को बताया, ‘जब मैं छोटा था तो स्कूल जाने के लिए मुझे अपने गांव से पैदल चलकर, तामेंगलॉन्ग मुख्यालय जाना पड़ता था. चूंकि मेरा गांव बहुत दूर था, इसलिए मुझे सफर में दो-तीन दिन लग जाते थे’. उन्होंने आगे कहा, ‘एक आईएएस अधिकारी होने के नाते ये मेरा सपना और फर्ज़ है कि ये सड़क पूरी हो जाए’.

पामे दिल्ली गए ताकि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं वाले राज्यों में सड़क निर्माण की निगरानी करने वाली सरकारी कंपनी, राष्ट्रीय राजमार्ग एवं अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) को इस सड़क को बनाने के लिए राज़ी कर सकें.

उन्होंने तर्क दिया कि इस सड़क से न सिर्फ दूर-दराज़ के गांवों को पहुंच मिलेगी जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है, बल्कि इससे गुवाहाटी तक की यात्रा का समय भी, जो एक प्रमुख व्यापार केंद्र है, सात घंटे कम हो जाएगा. ऐसी सड़क से जिले में पर्यटन का विकास होगा और ये सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण साबित होगी, क्योंकि ये सड़क इम्फाल होते हुए म्यांमार तक भी जा सकती है.

लेकिन सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय संशय में थी कि क्या इस मार्ग पर कभी इतना ट्रैफिक हो पाएगा कि इस परियोजना की लागत पूरी हो सके.

मणिपुर में एनएचआईडीसीएल के कार्यकारी निदेशक राजीव सूद ने भी दिप्रिंट से यही कहा, ‘मंत्रालय इस परियोजना से सहमत नहीं होता, अगर उन्होंने बहुत ज़्यादा (मुआवज़ा) मांगा होता’.

पामे ने गांव वालों को एनएचआईडीसीएल के इस संकोच से अवगत कराया, जिनकी ज़मीन प्रभावित होने वाली थी और 2020 के शुरू में उनके बीच मुआवज़ा छोड़ने पर विचार-विमर्श शुरू हो गया.

तामेंगलॉन्ग में जमीनों के फैसले निजी तौर पर नहीं बल्कि साथ मिलकर लिए जाते हैं क्योंकि गांवों की जमीन कुनबों की साझा संपत्ति होती है. गांव पदाधिकारियों ने भी, जिन्हें स्थानीय विवादों पर फैसला करने के लिए कानूनी रूप से मान्यता मिली हुई है, निर्णय लेने की इस प्रक्रिया में मध्यस्थता का काम किया.

अंतिम शर्तें जिनपर गांववासी सहमत हुए और जिनपर पिछले सात अक्टूबर को दस्तखत किए गए, थोड़ी असामान्य हैं. दिप्रिंट द्वारा देखे गए दस्तावेज़ों के अनुसार, जमीन मालिक न केवल मुआवज़ा छोड़ेंगे, बल्कि आने वाले वर्षों में उनके भावी रिश्तेदार भी इसकी मांग नहीं कर सकते.

लेकिन समझौते में जोड़ा गया है कि भविष्य में यदि सड़क का विस्तार होता है, तो अधिग्रहीत की गई सारी अतिरिक्त जमीन का उचित मुआवज़ा दिया जाएगा और परियोजना के लिए जितने पेड़ गिराए जाएंगे, उतने ही फिर से उगाए जाएंगे.

दायलॉन्ग गांव के एक भू-स्वामी रामडियांग गोनमेइ ने कहा, ‘कृषि हमारी जीविका है. शुरू में मतभेद थे और ये कोई आसान फैसला नहीं था. लेकिन हम बहुत समय से ये सड़क चाह रहे थे- ये सड़क हमारे खर्च कम कर देगी, ये हमारे बच्चों की पढ़ाई आसान कर देगी. अगर इस सड़क के साथ विकास होता है, तो फिर मुआवज़े की कोई ज़रूरत नहीं है. हमारे लिए बस वही मुआवज़ा होगा’.

जिले में अधिकतर लोग झूम खेती के जरिए, धान और दूसरी फसलें पैदा करके आजीविका कमाते हैं, जिसमें मिट्टी के कटाव की वजह से कई साल खेती करने के बाद जमीन के उस हिस्से को छोड़ दिया जाता है.

हाई-वे के प्रस्तावित रूट का एक हिस्सा, ऐसी छोड़ी हुई भूमि से होकर गुज़रेगा लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि वो कितना होगा.

हालांकि जमीन मालिकों का कहना है कि उन्होंने जो छोड़ा है उसके बारे में उन्हें कोई गलतफहमी नहीं है लेकिन उनके मन में कहीं न कहीं अपने त्याग को मान्यता मिलने की इच्छा अभी भी बनी हुई है.

एक जमीन मालिक और फेलॉन्ग में गांव प्राधिकरण के पूर्व सदस्य रामदिकमांग पामेइ ने कहा, ‘बहुत अच्छी बात है कि हाई-वे बन रहा है. अगर सड़क बन जाती है तो मुआवजे की कोई ज़रूरत नहीं है. लेकिन अगर सरकार कर पाए तो अच्छा होगा कि हमारी खड़ी फसल के नुकसान के लिए हमें कुछ मिल जाए’.

68 वर्षीय ऑयलैंग पामेइ ने कहा कि उन्हें सड़क तो चाहिए थी लेकिन मुआवज़ा भी मिल जाता तो अच्छा होता. उन्होंने आगे कहा, ‘हालात को देखते हुए हमने यही तय किया है. मैं और क्या कह सकता हूं?’


यह भी पढ़ें: अफगानिस्तान की स्थिति पर नज़र बनाए हुए हैं, अब तक 550 लोगों को निकाला गया: विदेश मंत्रालय


भविष्य की योजनाएं

अगर प्रस्ताव कोई संकेत हैं, तो ऐसा लगता है कि तामेंगलॉन्ग से सूबे का ‘सबसे पिछड़ा’ जिला होने का ठप्पा हट सकता है. न सिर्फ तामेंगलॉन्ग-हफलॉन्ग हाई-वे पर काम चल रहा है, बल्कि एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के सहयोग से राज्य सरकार, तामेंगलॉन्ग और इम्फाल को जोड़ने के लिए एक छोटी सड़क भी बना रही है. हाल ही में तैयार हुए वैगाइचुनपाओ रेलवे स्टेशन के भी अगले साल तक पूरी तरह चालू हो जाने की उम्मीद है.

लेकिन दस्तखत किए गए कागज़ी काम और समय सीमाओं का तामेंगलॉन्ग की कठोर वास्तविकताओं के साथ मेल कराना होगा: तामेंगलॉन्ग को दूसरे ज़िलों से जोड़ने वाली तीन ऑल वैदर रोड्स बुरे हाल में हैं, जिनपर निरंतर मॉनसून की मार पड़ती रहती है और दो साल से अधिक से चलने के बाद भी मरम्मत अभी तक पूरी नहीं हो पाई है.

उन्हीं में से एक मार्ग नेशनल हाई-वे 37 पर भूमिगत समूहों ने निर्माण में लगे श्रमिकों को अगुवा करके बंधक बना लिया- ऐसी अनियंत्रित घटनाएं जिले में होती रहती हैं, हालांकि केंद्र सरकार के साथ सीज़फायर पर दस्तखत कर दिए गए हैं.

थिंक टैंक विवेकानंद फाउंडेशन द्वारा 2017 में कराए गए एक सर्वे में कहा गया, ‘सभी विकास कार्यों पर अवैध टैक्स वसूला जाता है, इसलिए काम या तो अधूरा रहता है या फिर खराब स्तर का होता है, जिससे सरकार के पूर्वाग्रह और उसकी गैर-समावेशी नीतियों की अवधारणा को और बल मिलता है’.

इस संदर्भ में तामेंगलॉन्ग-हफलॉन्ग हाई-वे की तय समय सीमा, कुछ महत्वाकांक्षी लगती है. सड़क को मंजूरी मिल चुकी है और टेंडर का काम चल रहा है. सड़क को कवर करने वाले छह में से चार पैकेज, तीन निर्माण कंपनियों को दिए गए हैं, जो एक कड़े अनुबंध से बंधी हैं: दस्तखत हो जाने के बाद अपेक्षा है कि सड़क निर्माण 18 महीने के अंदर पूरा हो जाएगा, जिसमें विफल रहने पर कंपनियों को निर्माण के लिए अपनी जेब से खर्च करना होगा.

A crossroads that lies along the stretch where the road will come up | Simrin Sirur | ThePrint
वो रास्ता जहां से सड़क बनने वाली है | सिमरन सिरून/दिप्रिंट

तॉसेम छात्र संगठन के ज़ेमे ने कहा, ‘हमें उम्मीद है कि लोगों के त्याग को देखते हुए भूमिगत समूह अवैध टैक्स नहीं वसूलेंगे और सड़क निर्माण होने देंगे’.

इस बीच, उन 10 गांवों के लोग जिन्होंने अपनी ज़मीनें दीं हैं, उत्सुकता से इंतज़ार कर रहे हैं, पहले सड़क निर्माण शुरू होने का और फिर उसके पूरा होने का.

गुजिरंग नियोमे ने कहा, ‘हमें नहीं पता कि क्या अपेक्षा करें’. उन्होंने आगे कहा, ‘हम इतने लंबे समय तक बिना सड़क के रहे हैं. ये हमारे जीवन में किस तरह बदलाव लाएगी? देखते हैं’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘आओ कभी UP’— वर्दी में लहराती बंदूक के साथ इंस्टाग्राम वीडियो ने आगरा की कांस्टेबल को मुश्किल में डाला


 

share & View comments