श्रीनगर/शोपियां: जम्मू-कश्मीर (J&K) के शोपियां जिले के 2012 बैच के भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारी इनामुल हक के बारे में उनके पिता रफीक अहमद कहते हैं, “अल्लाह ने उसे बहुत तेज़ दिमाग दिया है. वह हमेशा टॉपर रहा है…वह बंद के दौरान भी पढ़ाई करने के लिए अपनी कक्षाओं में जाता था.”
हक, 2009 में संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) परीक्षा में टॉप करने वाले पहले कश्मीरी शाह फैज़ल के नक्शेकदम पर चले. फैज़ल की तरह 38 वर्षीय हक भी सिविल सेवा परीक्षा पास करने से पहले डॉक्टर थे.
ज़ैनपोरा के शांत गांव द्राग्गड़ में अपने दो मंजिला घर के बड़े, खाली ड्राइंग रूम में पारंपरिक गुलाबी ऊनी कालीन पर पैर को क्रॉस करके बैठे अहमद ने संयमित गर्व के लहजे में कहा, “उसने (हक़) जम्मू-कश्मीर में एमबीबीएस परीक्षा में भी टॉप किया था. लेकिन फिर, शाह फैज़ल ने उसे यूपीएससी परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया, और उसने एक ही बार में इसे पास कर लिया.”
सेवानिवृत्त लेखा अधिकारी अपने छोटे बेटे शम्सुल हक के बारे में पूछे जाने पर कम ही बोलते हैं. जनवरी 2019 में उनके घर से कुछ किलोमीटर दूर एक मुठभेड़ में वह मारा गया था. अपने भाई की तरह, शमसुल भी मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था.
मुठभेड़ से कुछ महीने पहले शम्सुल उग्रवाद में शामिल हो गया था. अहमद कहते हैं, “मैं क्या कह सकता हूँ? क्या कोई माता-पिता चाहेंगे कि उनका बेटा बंदूक उठाए?” “बंदूक उठाने का मतलब है मौत को बुलावा देना. मैं ऐसा क्यों चाहूँगा?”
जम्मू-कश्मीर पुलिस के हलकों में इनामुल और शम्सुल की कहानी को इस स्थिति की आधारशिला माना जाता है – यह उनके देश में पुलिस और उग्रवाद, कानून और अपराध, अच्छाई और बुराई के बीच की सीमाओं की कड़ी की एक गंभीर और कठोर याद दिलाती है.
दुविधाओं, अपराधबोध, बहिष्कार और मौत के चिरकालिक भय की ऐसी ही भयावह कहानियां जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारियों से लेकर कांस्टेबलों तक में व्याप्त हैं.
एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी कहते हैं, “कश्मीर में पुलिस और उग्रवाद एक ही कक्षा में, एक ही परिवार में, कभी-कभी एक ही व्यक्ति के भीतर मौजूद होते हैं. यहाँ पुलिस बनना आसान नहीं है…इनामुल अपने ही भाई को हथियार छोड़ने के लिए राजी नहीं कर सका. आप अपने लोगों को कैसे मनाएँगे? बल के ज़रिए.”
1980 के दशक के उत्तरार्ध से, जम्मू-कश्मीर पुलिस को सक्रिय रूप से आतंकवाद विरोधी बल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. कश्मीरियों के साथ-साथ उग्रवादियों के लिए भी पुलिस “राज्य दमन” के प्रतीक के रूप में ऐसा चेहरा है जो सबसे आसानी से दिख जाता है.
उग्रवाद से निपटने वाले बल के रूप में, पुलिस का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वे स्थानीय हैं. वे वही भाषा बोलते हैं, उन्हीं गांवों से आते हैं, उनके सोशल सर्किल न केवल आम कश्मीरियों वाले हैं, बल्कि उग्रवादियों के भी हैं. सेना, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) या सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तुलना में उनका सूचना नेटवर्क बेजोड़ है.
लेकिन यही बात उन्हें कश्मीरियों का दुश्मन बनाती है- ‘वे हमारे खिलाफ कैसे हो सकते हैं’ की भावना? सेना और सीआरपीएफ के विपरीत, शाम को काम के बाद, एक पुलिसकर्मी को आज़ादी के समर्थकों या उग्रवादियों के बीच घर लौटना पड़ता है, जिनसे वे दिन भर पेलेट-गन, आंसू गैस के गोले और एके-47 के साथ लड़ते हैं.
जैसा कि कुछ पुलिसकर्मी निजी तौर पर स्वीकार करते हैं कि उनका जीवन गुस्से, अपराधबोध और कर्तव्य के बीच झूलता रहता है.
पहला हमला
राजनीतिज्ञ नूर अहमद बाबा कहते हैं कि कश्मीर 1947 से ही पुलिस राज्य रहा है. वे कहते हैं, “इससे भी पहले, 13 जुलाई 1931 को महाराजा की सेना ने उनके शासन के खिलाफ आंदोलन कर रहे 21 मुस्लिम प्रदर्शनकारियों को मार डाला था.”
पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने गोलीबारी को ‘कश्मीर का जलियांवाला बाग हत्याकांड’ बताया. दिसंबर 2019 तक इसे कश्मीर शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता था, जब केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन ने इस दिन को राजपत्रित छुट्टियों की सूची से हटा दिया.
बाबा कहते हैं, “इस अर्थ में, पुलिस हमेशा से ही अत्यधिक राजनीतिक रही है.”
अस्सी वर्षीय शिक्षाविद कहते हैं कि 1953 में शेख अब्दुल्ला के खिलाफ आधी रात को तख्तापलट के बाद बख्शी गुलाम मोहम्मद के प्रधानमंत्री बनने के बाद जम्मू-कश्मीर एक “निगरानी राज्य” में बदल गया.
“बड़े होने पर, मुझे याद है कि पुलिस मामूली उकसावे पर भी गोली चला देती थी. यह हमारे लिए सामान्य बात थी… यह केवल 1976 में हुआ जब मैं जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) आया, और पुलिस को बिना कोई कार्रवाई किए छात्रों के विरोध प्रदर्शनों पर चुपचाप नज़र रखते हुए देखा, तब मुझे एहसास हुआ कि हम एक पुलिस राज्य में रह रहे थे.”
बाबा कहते हैं कि 1975 में अब्दुल्ला की रिहाई और इंदिरा-शेख समझौते पर हस्ताक्षर के बाद घाटी में नागरिक स्वतंत्रता का आभास हुआ और उसके बाद 10 साल से अधिक समय तक शांति का दौर चला – जो 1987 में फिर से खत्म हो गया.
1956 बैच के कश्मीर पुलिस सेवा (केपीएस) के अधिकारी एएम वटाली, जिन्हें बाद में आईपीएस के रूप में पदोन्नत कर दिया गया था, याद करते हुए कहते हैं, 1980 के दशक के अंत तक, कश्मीर में पुलिसकर्मी की नौकरी देश के किसी भी अन्य काम की तरह ही थी. श्रीनगर में अपने आलीशान घर में एक कलफ लगे सफेद कुर्ते और ग्रे नेहरू जैकेट में बैठे हुए वे कहते हैं, “यह अपराध से लड़ने के लिए था और यहाँ कश्मीर में, भारत के अन्य हिस्सों की तुलना में अपराध भी कम था.”
वटाली 1989 में सेवानिवृत्त हुए, जिस वर्ष कश्मीर में उग्रवाद शुरू हुआ. कश्मीर घाटी में उप महानिरीक्षक (डीआईजी) के रूप में तैनात वटाली याद करते हैं, “सशस्त्र उग्रवाद के बारे में पहली जानकारी पुलिस से मिली. हमें घुसपैठ की सूचना मिली थी… कि स्थानीय युवा सीमा पार जा रहे हैं और हथियार लेकर वापस आ रहे हैं.”
वटाली, जिनके संस्मरण ‘गन्स अंडर माई चिनार’ में कश्मीर में आतंकवाद के शुरुआती वर्षों का इतिहास लिखा है, कहते हैं कि पहला आतंकवादी हमला वास्तव में उनके घर पर हुआ था.
उन्होंने कहा, “मैं उस समय राज बाग में रह रहा था जब तीन आदमी मेरे घर आए. उनमें से एक ने शॉल ओढ़ रखी थी. उसने बाहर खड़े कांस्टेबल से बोला कि वह मुझसे मिलना चाहता है,” बड़े, काले फ्रेम वाले चश्मे से उनकी आँखें बाहर को निकली हुई दिख रही थीं. “जब कांस्टेबल ने कहा कि वह अभी नहीं आ सकते, तो उस आदमी ने एक बड़ी बंदूक निकाली और हाथापाई शुरू हो गई…बाहर खड़े उसके दो साथियों ने गोली चलानी शुरू कर दी और एक गोली उसे (आतंकवादी) लगी और वह मर गया.”
जब वटाली बाहर आए, तो आतंकवादी को पहले ही अस्पताल ले जाया जा चुका था. लेकिन वह अपने पीछे “बड़ी बंदूक” छोड़ गया था, जो हाल ही में समाप्त हुए सोवियत-अफगान युद्ध से आई एके-47 थी. कुछ ही समय में, घाटी में इस नए हथियार की बाढ़ आ गई. तब तक, जैसा कि वटाली कहते हैं, कश्मीर में किसी ने इसे नहीं देखा था. “हम पुलिस वालों के पास आपकी .303 राइफलें थीं.”
जांच के दौरान पुलिस को पता चला कि आतंकवादी का नाम एजाज डार था, जो कश्मीरी था और 1987 के विधानसभा चुनावों तक मोहम्मद यूसुफ शाह उर्फ सैयद सलाहुद्दीन का सहयोगी बनकर घूमता था. एक पुलिसकर्मी को बचपन में डार के साथ क्रिकेट खेलना याद है, जो कि बचपन में उसका पड़ोसी था.
सलाहुद्दीन ने कई अन्य हथियारबंद आतंकवादियों की तरह 1987 में चुनाव लड़ा था. नेशनल कॉन्फ्रेंस के गुलाम मोहिउद्दीन शाह से हारने के बाद, जिसे व्यापक रूप से पूरी तरह से धांधली वाला चुनाव माना जाता है, वह नियंत्रण रेखा पार कर गया और हिजबुल मुजाहिदीन का नेतृत्व करने लगा.
वटाली कहते हैं, “तो, एक तरह से आतंकवादियों का पहला निशाना हम पुलिसवाले थे. लेकिन हमने – अकेले पुलिस ने – उसके बाद एक बहुत ही सफल अभियान चलाया और घाटी में 72 लड़कों को उनके हथियारों के साथ पकड़ा. सब कुछ नियंत्रण में रहा,” वे दावा करते हैं. “उस समय तक, सब कुछ शांतिपूर्ण था. पर्यटक आते रहे, पंडित सुरक्षित और शांत थे. सब कुछ नियंत्रण में था.”
एक अन्य सेवारत केपीएस अधिकारी इस बात से सहमत हैं. अधिकारी ने कहा, “1989 में घाटी में 133 आतंकवादी थे और पुलिस उनमें से हर एक को नाम से जानती थी. हर खुफिया जानकारी, हर ऑपरेशन पुलिस द्वारा किया गया.”
हालांकि, केंद्र ने जोर देकर कहा कि कश्मीर पुलिस आतंकवाद विरोधी अभियान के लिए सीआरपीएफ को तैनात करे, वटाली कहते हैं. “मुझे मुख्य सचिव ने बताया कि गृह मंत्री को लगता है कि मुझे सीआरपीएफ को तैनात करना चाहिए… मेरा जवाब था ‘वे बहुत असुरक्षित व कमज़ोर स्थिति में होंगे. अगर उन पर हमला होता है, तो पुलिस के विपरीत, उन्हें नहीं पता होगा कि कहां जाना है, कहां से जानकारी प्राप्त करनी है… वे पुलिस की तरह कश्मीर को नहीं जानते हैं.”
वटाली आज भी, 35 साल बाद, तत्परता के भाव से बोलते हैं, “पुलिस वही भाषा बोलती है, लोगों की मान्यताओं और संस्कृति को जानती है. आतंकवाद विरोधी अभियान का नेतृत्व उन्हें करने की जरूरत थी.”
हालांकि, जो मुख्य सचिव का सुझाव मात्र प्रतीत हुआ, वह जल्द ही तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला का आदेश बन गया, वटाली कहते हैं. “सीआरपीएफ को तैनात किया गया; सेना ने नियंत्रण संभाला; पुलिस बैकसीट पर आ गयी. मुझे पता था कि स्थिति बिगड़ने वाली है.”
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कम्युनिटी पुलिस से आतंकवाद विरोधी बल तक
1990 के दशक की शुरुआत में, जम्मू-कश्मीर पुलिस सेना और केंद्रीय बलों की निष्क्रिय सहयोगी बन गई थी. सेवारत और सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों को याद है कि कोई भी पुलिस को गंभीरता से नहीं लेता था – न तो आतंकवादी, न ही केंद्रीय बल. एक अधिकारी के अनुसार, पुलिस सिर्फ़ कागजी शेर थी.
वटाली याद करते हैं, “इस बात पर कम से कम कुछ हद तक संदेह था कि पुलिस आज़ादी के मुद्दे से सहानुभूति रखती होगी और उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था. कुछ मामले ऐसे भी थे जब पुलिस कर्मियों ने भी इस्तीफ़ा दे दिया और आतंकवादियों में शामिल हो गए, लेकिन वे बहुत ज़्यादा नहीं थे.”
एक कश्मीरी सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि यह धारणा निराधार नहीं थी कि पुलिस ‘आज़ादी’ के मुद्दे से सहानुभूति रखती है. “1990 के दशक तक, वे बहुत अच्छे थे…वे समाज का हिस्सा थे. यह एक ऐसा समय था जब आप अपने दिल में आज़ादी के मुद्दे का समर्थन कर सकते थे और फिर भी पुलिस में सेवा कर सकते थे.”
1993 में, मामला तब चरम पर पहुंच गया जब बांदीपुरा जिले के निवासी कांस्टेबल रेयाज अहमद गनई को हजरतबल दरगाह पर सेना के जवानों ने कथित तौर पर गोली मार दी. अपने साथी की हत्या के विरोध में सैकड़ों पुलिसकर्मी श्रीनगर की सड़कों पर उतर आए और अपनी सर्विस बंदूकें लहराईं. कुछ रिपोर्टों के अनुसार, पुलिस ने एक सप्ताह से अधिक समय तक सेना विरोधी प्रदर्शन किया, जिसे सेना को अंततः सीआरपीएफ के साथ एक संयुक्त अभियान के माध्यम से दबाना पड़ा.
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अफहादुल मुजतबा कहते हैं, “वह आखिरी बार था जब जम्मू-कश्मीर पुलिस ने विरोध प्रदर्शन किया था. उसके बाद, पुलिस के चरित्र में ही एक बुनियादी बदलाव आया.”
1994 में, आतंकवाद विरोधी गतिविधियों में निष्क्रिय जम्मू-कश्मीर पुलिस को शामिल करने और इन अभियानों को स्थानीय चेहरा देने के लिए एक आतंकवाद विरोधी विंग की स्थापना की गई थी. इस प्रकार स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ), जिसे अब स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) के रूप में जाना जाता है, का गठन किया गया, जिसमें कश्मीरी, गुज्जर, डोगरा और सिख जातीय समूहों के अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के साथ 1,000-सदस्यीय स्वयंसेवी बल शामिल था. इनमें से कुछ लोग खुद आतंकवाद के शिकार थे.
एक अन्य सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी कहते हैं, “जब एसटीएफ का गठन किया गया था, तो इसमें लाए गए ज़्यादातर लोग जम्मू से थे. वे डोडा, पुंज, राजौरी के मुसलमान थे, लेकिन उनके घर घाटी में नहीं थे. वे तकनीकी रूप से जम्मू-कश्मीर पुलिस का हिस्सा थे, लेकिन उनके पास सेना वाली दूरी और गुमनामी थी. उन्होंने कुछ बहुत अच्छे ऑपरेशन किए, लेकिन जनता से उनका संपर्क टूट गया.”
जैसा कि कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर ने 2002 में लिखा था, एसटीएफ दो चीजों का पर्याय बन गया था- उग्रवादियों को मारना और कथित मानवाधिकार उल्लंघन.
हत्याओं के पीछे मजबूत प्रेरणाएं थीं. जैसा कि पूर्व पुलिस अधिकारियों ने कहा, मारे गए प्रत्येक आतंकवादी से एसटीएफ को 35,000 से 50,000 रुपये के बीच की कमाई होती थी. हथियारों और गोला-बारूद के साथ आतंकवादियों को पकड़ने पर अतिरिक्त इनाम मिलता था. इसके अलावा, बिना बारी के पदोन्नति भी जल्दी होती थी. जैसा कि एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है, सैकड़ों अधिकारियों रैंक बेहतर हो गया, जबकि सैकड़ों पुलिसकर्मी कुछ ही वर्षों में अधिकारी बन गए, जिसका श्रेय एसटीएफ में उनके कार्यकाल को जाता है.
ऊपर जिनका ज़िक्र किया गया है, वह केपीएस अधिकारी कहते हैं, “चूंकि एसटीएफ का काम अलोकप्रिय और जोखिम भरा था, इसलिए यह महसूस किया गया कि कम से कम शुरुआत में उनके द्वारा किए गए बुरे कामों के लिए सहनशीलता होनी चाहिए.”
1990 के दशक के आखिर तक एसटीएफ का “वॉलंटियर” पहलू गायब हो गया. “यह किसी भी अन्य पोस्टिंग की तरह हो गया, अगर हमें जाने के लिए कहा जाता, तो हमें जाना पड़ता.” इसकी अलोकप्रियता इतनी थी कि 2002 में महबूबा मुफ़्ती ने वादा किया था कि अगर पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) सत्ता में आई तो एसटीएफ को भंग कर दिया जाएगा. उन्होंने कहा, “एसओजी ने लोगों पर अनगिनत अत्याचार किए हैं. सत्ता संभालने के बाद एसओजी को भंग करना हमारा पहला काम होगा.”
1984 बैच के केपीएस अधिकारी मुजतबा, जिन्हें बाद में आईपीएस में पदोन्नत किया गया, कहते हैं, “दुनिया में कहीं भी पुलिस का काम लोगों से बातचीत करना और कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करना है.” 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने तक, जम्मू-कश्मीर में कश्मीर प्रशासनिक सेवा, कश्मीर वन सेवा और केपीएस से 50 प्रतिशत अधिकारियों को क्रमशः आईएएस, आईएफएस और आईपीएस में पदोन्नत करने का प्रावधान था. 2019 से, यह आंकड़ा देश के बाकी हिस्सों की तरह कम करके 33 प्रतिशत के स्तर पर कर दिया गया.
मुजतबा, जो पिछले साल ही राज्य सेवा आयोग के सदस्य के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं, कहते हैं, “आपको पूछना होगा कि पुलिस किस लिए है?”
एक लंबा, पठान-स्टाइल का कुर्ता-पायजामा पहने कांस्टेबल उनके घर पर गश्त करता है. कई अन्य सेवानिवृत्त कश्मीरी पुलिस अधिकारियों की तरह, मुजतबा को सेवानिवृत्ति के बाद भी सुरक्षा दी गई है. वे कहते हैं, “पुलिस की मुख्य भूमिका उग्रवाद से निपटना नहीं है.”
वे कहते हैं, “सेना और पुलिस का रुख पूरी तरह से अलग है…सेना का काम जमीन की रक्षा करना है, पुलिस का काम लोगों की रक्षा करना है. जब दोनों मिल जाते हैं, जैसा कि कश्मीर में हुआ है, तो चीजें मुश्किल हो जाती हैं.”
मुजतबा कहते हैं कि दशकों तक एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने के दौरान, पुलिस और सेना ने एक-दूसरे की विशेषताओं को अपना लिया है. “यहां पुलिस सेना जैसी हो गई है, जबकि सेना ने पुलिस की विशेषताओं को अपना लिया है.”
ऊपर जिनका जिक्र किया गया है उन सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि अगर बातचीत “राज्य की ज्यादतियों” पर केंद्रित होती है, तो पुलिस सबसे आगे होती है. “वे स्थानीय लोग थे, उन्हें अपने मालिकों को यह साबित करना था कि वे राजा से ज़्यादा वफ़ादार हैं. 1990 और 2000 के दशक में, पुलिस ने उग्रवाद को दबाने के लिए पूर्व उग्रवादियों को भी अपने रैंक में भर्ती किया…वे लोग सबसे ज़्यादा कुख्यात हुआ करते थे.”
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, “लेकिन यह भी सच है कि अगर कोई ऐसी ताकत है जिसने उग्रवाद को सबसे ज़्यादा दबाया है, तो वह पुलिस ही है. यह अंतरंग दुश्मन है,” आखिरकार, वे 1983 में प्रकाशित राजनीतिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी की प्रसिद्ध पुस्तक के शीर्षक का उपयोग करते हुए कहते हैं.
मौत और कर्तव्य के बीच
मुजतबा इस स्थिति से सहमत हैं. वे कहते हैं कि जबकि सेना और सीआरपीएफ को कश्मीर में कोई नहीं जानता, लेकिन पुलिस स्थानीय है. “हर कोई आपको जानता है और आपको करीब से जानता है…आप, आपका परिवार हमेशा खतरे में रहता है.”
2016 में मारे जाने से पहले, जिसने कश्मीर को आग में झोंक दिया था, आतंकवादी बुरहान वानी ने पुलिस से अपील की थी कि वे अपने ही लोगों के खिलाफ काम न करें. उन्होंने कहा कि कश्मीरी पुलिसकर्मी “कश्मीरी राष्ट्र” का हिस्सा हैं और वे (आतंकवादी) उन्हें या उनके परिवारों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते.
हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर ने 2015 में एक वीडियो संदेश में कहा, “हमारी पुलिस, हमारी अपनी होने के बावजूद, हमारे खिलाफ भारतीय बंदूक उठाती है…हम उनसे ऐसा न करने की अपील करते हैं.”
उसने कहा कि पुलिसकर्मी “हमारे परिवारों” को परेशान करते हैं, और आतंकवादी भी ऐसा ही कर सकते हैं. “(लेकिन) हमारा धर्म हमें इसकी अनुमति नहीं देता…हम उनके परिवारों को अपना मानते हैं.”
फिर भी, पुलिस अक्सर आतंकवादियों और यहां तक कि गुस्साए स्थानीय लोगों का पहला लक्ष्य बनी हुई है. जम्मू-कश्मीर पुलिस के सूत्रों के अनुसार, 1989 में आतंकवाद की शुरुआत के बाद से, आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में 1,900 पुलिसकर्मी मारे गए हैं और गोलीबारी, आईईडी, ग्रेनेड और पत्थरबाजी में 10,000 घायल हुए हैं.
बेशक, एक तरह से वटाली उग्रवादियों का पहला निशाना थे. लेकिन हमले में वह बच गए. हालांकि, एक साल बाद उनके छोटे भाई डॉ. गुलशन वटाली बच नहीं पाए. केपीएस अधिकारी याद करते हैं, “वटाली साहब के भाई की हत्या सबसे दिल दहला देने वाले तरीके से की गई…बेशक, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वटाली साहब पुलिस में थे. वह उनके अपने बेटे की तरह थे…आज भी, अगर आप उनके साथ लंबे समय तक बैठते हैं, तो वह उनके बारे में बात करना शुरू कर देंगे.”
लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत तो बस शुरुआत थी. पुलिस, उग्रवादियों और स्थानीय लोगों के बीच नफरत और हिंसा का खूनी चक्र आने वाले कई सालों तक जारी रहा. एक हेड कांस्टेबल याद करते हैं, “मैं 2000 में पुलिस में शामिल हुआ…वे बहुत मुश्किल साल थे. 2008 में, हमें अमरनाथ भूमि हस्तांतरण आंदोलन के दौरान लोगों पर लाठीचार्ज करना पड़ा.”
मई 2008 में जब केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार ने मुख्य कश्मीर घाटी में श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड (एसएएसबी) को 99 एकड़ वन भूमि हस्तांतरित करने के लिए समझौता किया था, उसके बाद घाटी में हिंसक प्रदर्शन हुए थे.
उन्होंने कहा, “हमें अपने लोगों पर लाठीचार्ज करना पड़ा. हमारे प्रति उनकी नफरत बढ़ती गई.” उन्होंने कहा, “उन वर्षों में, हम दिन में घर भी नहीं जा सकते थे…हम अपराधियों की तरह रात के सन्नाटे में जाते थे. पारिवारिक शादियों और अंतिम संस्कारों में जाना तो दूर की बात थी. आप कभी नहीं जानते थे कि कब आपके अपने पड़ोसी भी आप पर हमला कर देंगे.”
“अपने ही लोगों” के खिलाफ़ काम करने का अपराधबोध भी था. कांस्टेबल ने कहा, “हमारी तरफ़ से भी ग़लतियां हुई हैं…लेकिन आपको अपनी आवाज़ बंद करनी होगी और अपने कर्तव्य का पालन करना होगा.”
ऊपर जिनका जिक्र किया गया है जम्मू-कश्मीर के वह पुलिस अधिकारी कहते हैं, “एक बार जब आपके हाथ में बंदूक आ जाती है तो आप वही व्यक्ति नहीं रह जाते…अब ये सिर्फ़ आँकड़े हैं, लेकिन जब भी कोई जुलूस (विरोध प्रदर्शन) की ख़बर आती थी, तो मैं यह सोचकर काँप उठता था कि हमें कितने लोगों को मारना पड़ेगा.”
देश के कई हिस्सों में अपने जैसे लोगों की तरह, युवा पुरुष अक्सर सुरक्षित सरकारी नौकरी, रुतबे और सत्ता की खातिर जम्मू-कश्मीर पुलिस में भर्ती होते हैं. लेकिन यहीं पर समानता खत्म हो जाती है. यहाँ कश्मीर में, पुलिस के प्रति डर और सामाजिक बहिष्कार की कहानियाँ बहुत हैं.
एक जिले के स्टेशन हेड ऑफिसर (एसएचओ) पुलिस से अपने बैचमेट्स की ग्रुप चैट दिखाने के लिए अपना फोन निकालते हुए कहते हैं, “हर कोई अपने घर जाने का इंतजार करता है. हमें इससे डर लगता था, हमारा परिवार हमें नमाज के लिए या दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने के लिए भी बाहर नहीं निकलने देता था क्योंकि उन्हें लगता था कि हम मारे जा सकते हैं. हमें घर जाने का मन नहीं करता था. सादे कपड़ों में और बिना किसी सुरक्षा के, हम घर पर सबसे असुरक्षित थे.”
डिस्प्ले पिक्चर में पांच बैचमेट्स की तस्वीरों का एक कोलाज है, जो सभी आतंकवादियों द्वारा मारे गए हैं. वे कहते हैं, “जब मेरे एक दोस्त की मौत हुई, तो फेसबुक पर जश्न मनाने वाले पोस्टों की बाढ़ आ गई…कभी-कभी यह निराशाजनक हो जाता है.”
कश्मीर में एक और एसएचओ कहते हैं कि कोई भी अपनी बेटियों की शादी पुलिसवालों से नहीं करना चाहता था. वे कहते हैं, “वहां ऐसी बदनामी थी कि महिलाएं कहती थीं कि ‘हम मुलाजिम (नौकर) से शादी करेंगी, लेकिन पुलिसवाले से नहीं’.”
वे व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ कहते हैं, “कश्मीरी हमेशा हमसे नफरत करते थे. लेकिन दुखद सच्चाई यह है कि अगर हम दिल्ली जाते हैं, तो हमें देश के प्रति अपनी वफादारी साबित करने के लिए ‘भारत माता की जय’ कहने के लिए भी कहा जाएगा. कश्मीरी पुलिस धोबी के कुत्ते जैसी है मैडम, न घर की, न घाट की.”
पुलिस के ‘गौरव’ का क्षण
5 अगस्त, 2019 को जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह संसद में ‘टॉप सीक्रेट’ दस्तावेज लेकर पहुंचे, तो कथित तौर पर एक वाक्य निकला: ‘वर्दीधारी कर्मियों के वर्गों में हिंसक अवज्ञा की संभावना.’
एक सेवारत पुलिस अधिकारी कहते हैं, “यह केवल फ़ाइल में उल्लिखित संभावना थी क्योंकि सरकार को सभी परिस्थितियों के लिए तैयार रहना था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. आप मुझे एक भी ऐसी घटना बताइए जहाँ पुलिस ने विद्रोह किया हो.”
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें भी अन्य कश्मीरियों की तरह अनुच्छेद 370 के निरस्त होने पर विश्वासघात महसूस हुआ, पुलिस अधिकारी ने कहा: “भले ही मेरे मन में कुछ भावनाएँ रही हों, लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं पूरी तरह से बाड़ के दूसरी तरफ़ हूँ… वर्षों की सेवा के दौरान, हमारे अंतिम संस्कारों को भी निशाना बनाया गया है. अब मैं उन लोगों का पक्ष कैसे ले सकता हूँ?”
जम्मू और कश्मीर की स्थिति को राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदलने से यह सुनिश्चित हो गया कि स्थानीय मुसलमानों द्वारा गठित पुलिस बल को अब केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करना होगा, न कि केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन को.
जम्मू-कश्मीर के दर्जे को राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदलने से यह सुनिश्चित हो गया कि स्थानीय मुसलमानों द्वारा गठित पुलिस बल को अब केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करना होगा, न कि केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन को.
मार्च में शाह ने कहा था कि केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव होने के बाद, केंद्रीय सैनिकों को जम्मू-कश्मीर से वापस बुला लिया जाएगा और पुलिस ही पूरी तरह से प्रभारी होगी.
उन्होंने कहा, “योजना पर काम चल रहा है…हम जम्मू-कश्मीर पुलिस को मजबूत कर रहे हैं, जो अब केंद्रीय बलों के साथ सभी आतंकवाद विरोधी अभियानों का नेतृत्व कर रही है. पहले, जम्मू-कश्मीर पुलिस पर दिल्ली में बैठे लोगों का भरोसा नहीं था. हमने जम्मू-कश्मीर पुलिस में गुणात्मक बदलाव किया है…वे अब सभी अभियानों में सबसे आगे हैं; पहले सेना और केंद्रीय बल ही नेतृत्व कर रहे थे.”
पुलिस इस बदलाव को महसूस कर सकती है.
सेवारत अधिकारी कहते हैं, “हम पहले से कहीं ज़्यादा सम्मानित हैं. 2019 के बाद, लोगों के नज़रिए में भी गुणात्मक बदलाव आया है. वे अब हमें दुश्मन के तौर पर नहीं देखते.”
उनके अनुसार, पुलिसिंग का स्वरूप भी बदल गया है. वे कहते हैं, “पहले, हमारा काम करने का तरीका बंदूक के साथ आतंकवादी को पकड़ना था. अब, हम उस लड़के के इर्द-गिर्द 20-30 लोगों को निशाना बनाते हैं, यह देखने के लिए कि वह किस (इस्लामी) विचारधारा से ताल्लुक रखता है, वह किस मस्जिद में जाता था, वह किस इमाम के पास जाता था, वह कौन से ऐप इस्तेमाल करता था, आदि… पहले, मीडिया, संस्थानों और उनके नैरेटिव के ज़रिए कश्मीर के लोगों के दिमाग में पाकिस्तान रहता था. अब, हम नैरेटिव वॉर जीतने के खेल में हैं और इसमें पुलिस की अहम भूमिका है.”
हालांकि, पुलिस जिसे समाज में सम्मान में बढ़ोत्तरी मानती है, उसे समाज से दूरी की बढ़ोत्तरी के रूप में भी समझा जा सकता है. एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं, “पहले, 80,000 में से 5,000-8,000 पुलिसकर्मी आतंकवाद विरोधी अभियान में शामिल थे. अब, लगभग पूरी पुलिस को आतंकवाद विरोधी बल में बदल दिया जा रहा है. चौकियों पर अब केवल पुलिस ही तैनात है. उनकी प्रकृति पूरी तरह बदल गई है… जाहिर है कि केंद्र अब पुलिस पर अधिक भरोसा करता है.”
ऊपर जिसका जिक्र किया गया है वह एसएचओ इससे असहमत हैं. अपने अधिकार क्षेत्र में एक स्थानीय चोरी की फाइल को जल्दी से देखते हुए, वे कहते हैं कि पुलिस आखिरकार सामुदायिक पुलिसिंग के अपने मूल काम पर लौट रही है. “लोग तेजी से हमारे पास आ रहे हैं और हमें अपना मानकर हम पर भरोसा कर रहे हैं.”
हालांकि, बाद में पुलिस स्टेशन में मौजूद एक जूनियर ने धीमी आवाज में कहा: “हम, उनसे (वरिष्ठ अधिकारियों से) ज़्यादा ज़मीनी हकीकत जानते हैं. मुझे नहीं पता कि लोग हम पर भरोसा कर रहे हैं या उन्होंने हार मान ली है.”
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