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Thursday, 25 April, 2024
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जम्मू और कश्मीर के बीच पुल है ‘दरबार मूव’

राजनीतिक कारणों से ‘दरबार मूव’ की अर्धवार्षिक परंपरा को खत्म करने के तमाम सुझावों और फैसलों का अभी तक विरोध ही होता रहा है.

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जम्मू: लगभग 147 साल पहले ‘दरबार मूव’ की जो अर्धवार्षिक परंपरा जम्मू कश्मीर के पूर्व डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह (1856-1885) ने शुरू की थी, उसने बदलते वक्त के साथ न केवल अपने को सदृढ़ किया है बल्कि मौजूदा हालात में इसकी प्रासंगकिता और अधिक बढ़ गई है.

‘दरबार मूव’ की यह परंपरा आज एक ऐसे दौर से गुज़र रही है जब राज्य के दोनों प्रमुख हिस्सों में गहरी खाई पैदा हो चुकी है और एक ही राज्य के दो भाग लगातार बढ़ रहे अविश्वास भरे वातावरण का शिकार हो रहे हैं. ऐसे में ‘दरबार मूव’ की परंपरा सही अर्थों में भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हुए एक मजबूत ‘पुल’ का काम कर रही है. यह कहना गलत नहीं होगा कि आज ‘दरबार’ और ‘दरबार मूव’ परंपरा का महत्व पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है.

ध्रुवीकरण का शिकार हैं दोनों हिस्से

वर्षों पहले जब महाराजा रणबीर सिंह ने ‘दरबार मूव’ परंपरा को शुरू किया तो उसे शुरू करने के पीछे मुख्य वजह कश्मीर के कड़क ठंडे मौसम और जम्मू के सख्त गर्म मौसम से बचाव था. महाराजा ने शायद ही कभी सोचा होगा कि 2019 आते-आते यह परंपरा जम्मू कश्मीर की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने में कितनी बड़ी भूमिका निभा रही होगी.


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यहां यह गौरतलब है कि आतंकवाद और लगातार बढ़ रहे ध्रुवीकरण के कारण कश्मीर और जम्मू में बहुत अधिक दूरियां पैदा हो चुकी हैं. एक ही राज्य के दो मज़बूत व महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद नईं पीढ़ी एक दूसरे की खूबसूरत संस्कृति से अनजान है. जम्मू की एक पूरी पीढ़ी ने कश्मीर नहीं देखा है और न ही कश्मीर की एक पूरी पीढ़ी ने जम्मू को जाना व पहचाना है. दोनों ही हिस्सों के लोगों का इधर से उधर आना-जाना बेहद सीमित हो चुका है. एक अनचाहे भय व पूर्वाग्रह से राज्य के दोनों हिस्सों के लोग ग्रस्त हैं.

इस माहौल में कश्मीर और जम्मू संभाग के लोगों के बीच ‘दरबार’ ही एकमात्र ऐसी कड़ी बची है जो किसी न किसी तरह से दोनों ही क्षेत्र के लोगों को जोड़ने का काम कर रही है. व्यावहारिक रूप से कहीं न कहीं सिर्फ ‘दरबार’ ही एकमात्र ऐसा संपर्क रह गया है जो कुछ हद तक दोनों हिस्सों के लोगों को आपस में जोड़े हुए है.

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‘दरबार’ की वजह से यहां हज़ारों सरकारी कर्मचारियों को हर छह महीने बाद जम्मू से कश्मीर और इसी तरह से कश्मीर से जम्मू आने का मौका मिलता है, वहीं आम लोगों को भी ‘दरबार’ में अपने कामकाज के सिलसिले में दोनों हिस्सों में आना-जाना पड़ता है. इस प्रकिया में दोनों ही क्षेत्र के लोगों का आपस में संपर्क व संवाद बना रहता है और इसी बहाने एक दूसरे को जानने समझने का अवसर भी मिलता रहता है.

क्या है ‘दरबार मूव’ की परंपरा ?

‘दरबार’ के गर्मियों में श्रीनगर और सर्दियों में जम्मू स्थानांतरित होने की वर्षों से चली आ रही यह परंपरा जम्मू कश्मीर के पूर्व डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह ने 1872 में शुरू की थी जो वक्त बदलने के बावजूद आज भी जारी है. उन दिनों महाराजा का पूरा ‘दरबार’ पूरे लाव-लश्कर के साथ मौसम बदलने पर सर्दियों में जम्मू और गर्मियों में श्रीनगर आ जाता था. महाराजा खुद भी मौसम के बदलने पर जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू आ जाया करते थे. महाराजा रणबीर सिंह के दौर से शुरू हुआ यह सिलसिला अंतिम डोगरा महाराजा हरि सिंह तक बिना किसी रुकावट के चलता रहा.

इस ढंग से ट्रकों व बसों में सामान भर कर ‘दरबार मूव’ के दौरान भेजा जाता है. फाइल फोटो -अभय आनंद

1947-48 में डोगरा शासकों के शासन की समाप्ति के बाद भी महाराजा रणबीर सिंह द्वारा स्थापित परंपरा नही टूटी. फर्क सिर्फ इतना भर आया कि महाराजा के ‘दरबार’ की जगह राज्य सचिवालय व अन्य सरकारी कार्यालय ‘दरबार’ का अंग बन गए और गर्मियों में जम्मू से श्रीनगर और सर्दियों में श्रीनगर से जम्मू स्थानांतरित होते रहे. और यूं महाराजा द्वारा शुरू की गई ‘दरबार मूव’ परंपरा आज तक जारी है.

जम्मू कश्मीर की दो राजधानियां

यहां यह उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर में हर छह माह के लिए राज्य की राजधानी बदलती है. सर्दियों में छह माह के लिए राज्य की राजधानी जम्मू में रहती है जबकि गर्मियां आते ही राजधानी श्रीनगर स्थानांतरित हो जाती है. राज्य सचिवालय सहित सरकार के सभी प्रमुख कार्यालय ही ‘दरबार’ का हिस्सा हैं.

‘दरबार’ की इस प्रक्रिया में राज्य विधानसभा, राज्य विधानपरिषद, राज्य सचिवालय, राज्य उच्च न्यायालय, राज्यपाल व मुख्यमंत्री के कार्यालय के साथ-साथ पुलिस मुख्यालय सहित अन्य कईं कार्यालय जम्मू से श्रीनगर और फिर छह माह बाद सर्दी का मौसम आने पर श्रीनगर से जम्मू स्थानांतरित हो जाते हैं.


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‘दरबार’ के स्थानांतरण की इस प्रक्रिया के कारण ही श्रीनगर को जम्मू कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी कहा जाता है जबकि जम्मू राज्य की शीतकालीन राजधानी कहलाता है. वर्षों से चल रही अपनी तरह की यह अलग व अनोखी परंपरा पूरे देश में सिर्फ जम्मू कश्मीर में ही देखने को मिलती है.

श्रीनगर जाने को तैयार है ‘दरबार’

गर्मियों के मौसम ने दोबारा दस्तक दे दी है और मौसम में बदलाव के साथ ही एक बार फिर से ‘दरबार मूव’ होने की तैयारी हो चुकी है. हर बार की तरह ‘दरबार’ ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर जा रहा है.

इस बार 26 अप्रैल को राज्य की शीतकालीन राजधानी जम्मू में ‘दरबार’ बंद होगा जबकि छह मई को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में ‘दरबार’ खुलेगा. श्रीनगर में ‘दरबार’ के पहुंचने के बाद छह मई से सचिवालय सहित अन्य सरकारी कार्यालय अपना कामकाज शुरू कर देंगे. ‘दरबार’ के जम्मू से श्रीनगर स्थानांतरित होने की इस प्रक्रिया के दौरान राज्य सचिवालय सहित कईं अन्य कार्यालय 10 दिनों के लिए पूरी तरह से बंद रहेंगे.

कुशलता से होता है स्थानांतरण

सभी सरकारी विभागों द्वारा सरकारी रिकार्ड को संभालने का काम बेहद कुशलता से किया जाता है, गलती की कोई गुंजाइश नही रहने दी जाती. ‘दरबार मूव’ की प्रक्रिया को संपन्न करवाने में जुटे एक अधिकारी के अनुसार ऐसा कभी नही हुआ कि एक विभाग के दस्तावेज या अन्य कोई सामान गलती से भी किसी दूसरे विभाग में चला गया हो.

‘दरबार मूव’ के साथ भेजे जाने वाले सरकारी रिकार्ड, दस्तावेजों और अन्य सामान को संभालने कि लिए विभिन्न विभागों के अग्रिम दल पहले से ही भेज दिए जाते हैं. इस बार भी सभी विभागों की तरफ से अपने-अपने विभाग का एक अग्रिम दल 18 अप्रैल से श्रीनगर भेजा जा रहा है. हर अग्रिम दल में एक गजेटेड अधिकारी व पांच नॉन-गजेटेड कर्मचारी होते हैं. यह अग्रिम दल ‘दरबार मूव’ के साथ पहुंचने वाले रिकार्ड व सामान को संभालता और संबंधित अधिकारी या कर्मचारी तक पहुंचाता है.

सरकारी खजाने पर भारी बोझ

फायदों के बीच ‘दरबार मूव’ के कुछ अपने नुक्सान भी हैं, इस प्रक्रिया के कारण सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता है. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ‘दरबार मूव’ पर लगभग 100 करोड़ रुपए का खर्चा सरकार को उठाना पड़ता है. राज्य सरकार के लगभग 20,000 कर्मचारी ‘दरबार’ के साथ कूच करते हैं. इन कर्मचारियों के आने-जाने के खर्चे से लेकर कर्मचारियों के जम्मू व श्रीनगर में ठहरने की सारी व्यवस्था राज्य सरकार को ही करनी पड़ती है. यही नही ‘दरबार’ की अर्धवार्षिक परंपरा के कारण 10 से 20 दिनों तक जम्मू कश्मीर में सरकार के कामकाज की रफतार थम सी जाती है.

हर बार की तरह इस बार भी ‘दरबार मूव’ के साथ जाने वाले तमाम सरकारी रिकार्ड और सामान को बड़े-बड़े बक्सों में भर कर जम्मू से ट्रकों व बसों द्वारा श्रीनगर पहुंचाया जाना है. समय के साथ और तकनीक में बदलाव के कारण सामान में कुछ कमी तो आई है, मगर अभी भी हर विभाग के अधिकतर सामान का स्थानांतरण होता ही है.
गत कुछ वर्षों से ‘दरबार मूव’ में फर्नीचर आदि नही भेजा जाता, जबकि पहले तमाम विभागों के टेबल-कुर्सियों सहित छोटे से छोटे सामान को भी ‘दरबार मूव’ के साथ भेजा जाता था. लेकिन, अब स्थाई समाधान निकाल कर जम्मू और श्रीनगर के लिए फर्नीचर सहित काफी अन्य सामान अलग-अलग रख लिया गया है.

‘दरबार मूव’ को बंद करना संभव नही

राजनीतिक कारणों से ‘दरबार मूव’ की अर्धवार्षिक परंपरा को खत्म करने के तमाम सुझावों और फैसलों का अभी तक विरोध ही होता रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने 1987 में ‘दरबार मूव’ परंपरा को बदलने की एक नाकाम कोशिश की थी, इस कोशिश का जम्मू संभाग में भारी विरोध हुआ और एक लंबे आंदोलन के बाद फारुक अब्दुल्ला को अपना फैसला वापिस लेना पड़ा था. पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित कईं अन्य नेता भी समय-समय पर ‘दरबार मूव’ की वार्षिक परंपरा को खत्म करने के सुझाव देते रहे हैं लेकिन आज तक सुझाव देने के आगे की हिम्मत कोई भी नही जुटा पाया है.

इस ढंग से ट्रकों व बसों में सामान भर कर ‘दरबार मूव’ के दौरान भेजा जाता है. फाइल फोटो –अभय आनंद

यहां यह उल्लेखनीय है कि वर्षों से चली आ रही ‘दरबार मूव’ की अर्धवार्षिक परंपरा को बदलना या समाप्त करना अब आसान भी नही है. राजनीतिक और अन्य कईं कारणों से इस परंपरा को जारी रखना हर सरकार की मजबूरी बन गई है. ‘दरबार मूव’ की परंपरा में किसी भी तरह के बदलाव का राज्य के दोनो प्रमुख हिस्सों में विरोध होने के डर से कोई भी सरकार इसे बदलने का जोखिम उठाने को तैयार नही है.

कश्मीर संभाग और जम्मू संभाग में लोग भावनात्मक रूप से भी अब इस अर्धवार्षिक परंपरा से जुड़ चुके हैं और हर छह महीने बाद दोनों हिस्सों के लोग अपने यहां ‘दरबार’ के आने का इंतजार करते हैं. राज्य के दोनों हिस्सों में ऐसे कईं लोग आज भी मिल जाएंगे जो छह महीने तक इसी इंतज़ार में रहते हैं कि कब ‘दरबार’ उनके यहां आए और सचिवालय में लंबित पड़े अपने काम को करवाया जाए.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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