नई दिल्ली: भारतीय वन सेवा (आईएफएस) एसोसिएशन ने कहा है कि सरकार ने 11 सितंबर को ‘वन शहीद दिवस’ के तौर पर नोटिफाई तो किया है. लेकिन उसने अभी तक फ्रंटलाइन स्टाफ- फॉरेस्ट गार्ड्स, बीट ऑफिसर्स, डिप्टी रेंजर्स और फॉरेस्ट रेंजर्स, के कल्याण के लिए ‘कुछ भी ठोस नहीं’ किया है.
पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को लिखे एक पत्र में आईएफएस एसोसिएशन ने मांग की है कि यदि कोई स्टाफ मेम्बर ड्यूटी के दौरान मारा जाता है, तो उसके लिए कम से कम 25 लाख रुपए का अनुग्रह मुआवज़ा पैकेज दिया जाए. मृतक की बची हुई सेवा अवधि के दौरान पूरा वेतन दिया जाए तथा मृतक के बच्चों को, प्रधानमंत्री वज़ीफा स्कीम के दायरे में लाया जाए.
दिप्रिंट के हाथ लगे, 2 सितंबर को लिखे गए इस पत्र में ये भी मांग की गई है कि स्टाफ मेम्बर्स के काम के हालात में सुधार के लिए, उन्हें टॉयलट्स, बाथरूम्स, पेय जल आपूर्ति, बिजली और फर्स्ट एड जैसी ज़रूरी सुविधाएं मुहैया कराई जाएं और भारतीय दंड संहिता व आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत, उन्हें हथियार और दूसरे उपकरण दिए जाएं.
वन रेंजर्स के लिए भारत ‘सबसे ख़तरनाक’
एसोसिएशन ने ये भी मांग की है, कि ‘सर्वोच्च बलिदान’ देने वाले वन कर्मियों के लिए, राष्ट्रपति वीरता पदक की व्यवस्था की जाए. एसोसिएशन के विचार में ये इसलिए लाज़िमी है कि वन महकमे का अमला देश के सबसे दूर-दराज़ के इलाक़ों में काम करता है. सरकार की नीतियों को लागू करता है और भारी निजी क़ीमत पर पर्यावरण सुरक्षा सुनिश्चित करता है.
एसोसिएशन ने इंटरनेशनल रेंजर फेडरेशन की एक रिपोर्ट का हवाला दिया है. जिसमें कहा गया है कि वन रेंजरों के लिए, भारत ‘सबसे ख़तरनाक’ देश है, जहां 2012 से 2017 के बीच 162 मौतें हुईं, जो दुनिया भर में हुईं वन रेंजरों की कुल मौतों का 31 प्रतिशत हैं.
इन मौतों के कारण हैं हथियारबंद शिकारियों, तस्करों, अवैध खनिकों व अतिक्रमण करने वालों से टकराव और जंगलों में लगी आग, बीमारियां तथा जानवरों के हमले.
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पत्र में कहा गया, ‘हालांकि राज्य सरकारें लगातार, फील्ड स्टाफ के काम की स्थितियां सुधारने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन अब समय है कि क़ुदरत के इन रखवालों के काम के हालात को और अधिक सुरक्षित बनाया जाए और इन ग्रीन सिपाहियों को बेहतर सोशल सिक्योरिटी कवर दिया जाए, जो हमारे भविष्य के लिए अपना वर्तमान क़ुर्बान कर रहे हैं. इस दिशा में एक राष्ट्रीय नीति, और राज्यों के लिए दिशानिर्देश जारी किए जाने चाहिएं.’
सीमित मान्यता
पत्र में कहा गया कि वैसे तो सरकार वन संरक्षण, और जैव-विविधता संरक्षण के क्षेत्र में, हासिल उपलब्धियों पर बहुत गर्व करती है. ख़ासकर बाघों, हाथियों और शेरों के संरक्षण पर, लेकिन इन उपलब्धियों के पीछे, जो सबसे ‘प्रमुख फोर्स’ है – वन स्टाफ, उसके संरक्षण के लिए कुछ नहीं किया जाता.
पत्र में कहा गया, ‘देश के कुछ सबसे दूर-दराज़ के इलाक़ों में काम करते हुए अकसर अपने परिवारों और आधुनिक सुख-सुविधाओं से दूर रहकर, ये बहुत निष्ठा के साथ सरकार की नीतियों को लागू करते हैं और भारी निजी क़ीमत चुकाकर, देश की पर्यावरण सुरक्षा में योगदान देते हैं.’
‘वो देश के प्राकृतिक संसाधनों को, न केवल अतिक्रमणकारियों, टिम्बर स्मगलर्स, खनन माफिया और संगठित माफिया से बचाते हैं, बल्कि अगर कोई ऐसी स्थिति पैदा हो जाए, तो असहाय ग्रामीणों और जंगली जानवरों के बीच, एक अटूट रक्षात्मक दीवार का भी काम करते हैं.’
एक वरिष्ठ वन अधिकारी रमेश यादव ने कहा, कि उन्होंने अपने कई स्टाफ को, ड्यूटी के दौरान मारे जाते, और विकलांग या घायल होते देखा है. लेकिन फिर भी उनके बलिदान को एक सीमित मान्यता मिलती है.
यादव ने दिप्रिंट से कहा, ‘एक मुद्दा लॉजिस्टिक्स की सुविधाओं का है, जिनमें वन कर्मी दूसरे वर्दीधारी बलों से पीछे हैं.’ लेकिन एक सवाल वित्तीय सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा और पहचान का भी है…वन कर्मियों को इनमें से कुछ भी उचित नहीं मिलता.
यादव ने आगे कहा, ‘जब ड्यूटी के दौरान मारे जाने वाले पुलिस कर्मियों, और सैनिकों को शहीद माना जाता है, तो वन स्टाफ को क्यों नहीं? देश के शहीदों के बीच कोई भेद नहीं होना चाहिए.’
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