दरभंगा: दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (डीएमसीएच) में मंगलवार शाम करीब पांच बजे कोविड मरीजों के लिए बनी एक आइसोलेशन विंग के वार्ड नंबर 3 में जोर-जोर से कराहने की आवाज आ रही है. भयंकर पीड़ा के साथ कराहने की यह आवाज इतनी तेज है कि आसपास की और सारी आवाजें दब गई हैं, और इसने अन्य मरीजों और उनके परिजनों को बुरी तरह दहशत से भर दिया है.
असहाय नजर आ रहे मनोज कुमार यादव, जिनके कोविड पॉजिटिव पिता बुरी तरह कराह रहे थे, ने उन्हें कुछ राहत पहुंचाने के लिए पीठ रगड़ी. लेकिन फिर भी सांस लेने में दिक्कत से जूझ रहे बुजुर्ग को कोई आराम नहीं मिला, मरीज की ऑक्सीजन सप्लाई काम नहीं कर रही थी.
तभी चार डॉक्टरों की टीम मरीजों की जांच करते हुए वार्ड नंबर 3 और वहां कराह रहे मरीज के पास से गुजरी. इस बीच, बुजुर्ग आदमी का रोना और तेज हो गया.
मनोज और उनके पिता के लिए अगले पांच मिनट और बेहद मुश्किल में गुजरे तभी डॉक्टरों की टीम चार नर्सों के साथ वहां लौटी. एक डॉक्टर ने ऑक्सीजन सप्लाई ठीक की, वहीं दूसरे ने उनकी नब्ज चेक की. डॉक्टरों में से एक बुजुर्ग व्यक्ति की देखभाल में लगा और एक नर्स उनके लिए आवश्यक इंजेक्शन लाने चली गई.
डीएमसीएच की तीन अलग-अलग इमारतों में तीन यूनिट काम करती है. जहां दो यूनिट कोविड मरीजों के लिए आइसोलेशन वार्ड के तौर पर इस्तेमाल होती हैं, तीसरी उन मरीजों के लिए है जिन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत है. एक चौथी इमारत भी है—पुरानी सर्जरी विंग—जिसे हाल तक उन कोविड मरीजों के लिए प्रतीक्षालय के तौर पर उपयोग किया जाता रहा है, जिन्हें तुरंत बेड नहीं दिया जा सकता था. यहां कुछ क्रिटिकल नॉन-कोविड सर्जरी भी की गई हैं.
लेकिन अस्पताल, विशेष रूप से एक आइसोलेशन वार्ड की परिस्थितियां, उन लोगों के लिए बहुत ही विकट हैं जो मौजूदा हालात में अपने बीमार परिजनों को यहां लाने को मजबूर हैं.
अस्पताल के आसपास घूमने वाले सूअरों ने हालत बदतर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, वहीं अंदर गलियारे में कुत्ते सो रहे थे. दीवारों पर छिपकली टहल रही हैं. गंदे यूनिसेक्स टॉयलेट—महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं—मरीजों की महिला परिजनों को गलियारे के किसी अंधेरे कोने का सहारा लेने को मजबूर करते हैं. अंधेरा तो यहां कई जगह पर बना ही रहता है क्योंकि इस विंग में बिजली कम ही रहती है. मरीजों के परिजन अक्सर मोबाइल फोन के टॉर्च से ही काम चलाते हैं. अक्सर, मरीजों को कुछ राहत देने के लिए परिवार के सदस्य टेबल फैन ले आते हैं—क्योंकि तमाम जगह वार्डों में सीलिंग फैन ही नहीं हैं.
नर्सों का घुटनभरा, अस्वच्छ और उचित वेंटिलेशन के अभाव वाला कमरा तो किसी दूसरे ही युग का नजर आता है.
डीएमसीएच पूरे उत्तर बिहार क्षेत्र के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए है—जिसमें पांच जिलों की करीब 2.5 करोड़ की आबादी है.
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आइसोलेशन वार्ड में परिजन
ऐसा नहीं है कि सिर्फ बुनियादी सुविधाओं पर ही ध्यान देने की जरूरत है. हालांकि, अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई में कोई कमी नहीं है—दरभंगा का अपना ऑक्सीजन प्लांट है जो हर दिन लगभग 1,000 सिलेंडर का उत्पादन करता है. यह मौजूदा जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है. कुछ मरीजों के परिजनों ने यह जरूर कहा कि उन्हें दवाएं बाहर से मंगानी पड़ रही हैं.
राम कुमार, जिनके 70 वर्षीय पिता अस्पताल में भर्ती हैं, ने कहा, ‘मुझे एक हफ्ते से अपने पिता के लिए एंटीबॉयोटिक्स बाहर से मंगाने पड़ रहे हैं.’
कैलाश पिछले 12 दिनों से अस्पताल में भर्ती हैं. ‘उनका तीन बार कोविड टेस्ट हुआ है और रिपोर्ट हमेशा निगेटिव रही है, लेकिन उन्हें अभी भी ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत है.’
मरीजों की उपेक्षा किया जाना एक आम बात है.
यद्यपि राम कुमार ने कहा कि नर्सों का रवैया सहयोगात्मक है, दिप्रिंट ने जब सोमवार और मंगलवार को अस्पताल का दौरा किया, तो मनोज की तरह ही अधिकांश मरीजों के परिजन ही उनके स्वास्थ्य की देखभाल करते नजर आए—जो कि आइसोलेशन वार्ड में भी आराम से कोविड मरीजों के पास आते-जाते रहते हैं.
यहां जीवन तो कठिन है ही, मौत का भी कोई सम्मान नहीं है. शव घंटों लावारिस पड़े रहते हैं, गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं और अस्पताल की बदहाल स्थिति से जूझ रहे मरीजों के बीच एक गहरी उदासी छाई हुई है.
डिप्टी मेडिकल सुपरिटेंडेंट, डीएमसीएच, मणि भूषण ने दावा किया कि स्टाफ पर्याप्त है—डॉक्टर और नर्स तीन शिफ्ट में काम कर रहे हैं. हर शिफ्ट में पांच डॉक्टर और सात नर्स शामिल हैं. साथ ही बताया कि वॉक-इन इंटरव्यू के आधार पर और भी डॉक्टरों की भर्ती चल रही है.
दिप्रिंट की तरफ से हासिल किए गए आधिकारिक जिला स्वास्थ्य आंकड़ों के मुताबिक, डीएमसीएच में ऑक्सीजन सपोर्ट के साथ 120 बेड हैं, इसके अलावा सात आईसीयू बेड और पांच वेंटिलेटर सपोर्ट वाले पांच बेड हैं. दरभंगा ने 20 अप्रैल को केवल पांच नए कोविड केस आए थे, लेकिन 17 मई तक जिले में सक्रिय कोविड केस की संख्या 1,176 हो गई थी.
प्रशासन ने हालात पर काबू पाने के लिए 20 निजी अस्पतालों को लगाया और जिले में फिलहाल 40 बेड वेंटिलेटर सपोर्ट के साथ हैं, जिनमें से 35 निजी अस्पतालों में हैं.
‘क्या हम इंसान नहीं हैं?’
अस्पताल की एक नर्स ने चुपचाप दिप्रिंट को उन भयानक परिस्थितियों की एक झलक दिखाई जिनमें रहकर उन्हें काम करना पड़ता है. वार्ड में एक मरीज के साथ मौजूद एक महिला को भी साथ लेकर टॉयलेट की स्थिति जानने की कोशिश की.
उसने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘एक वॉशरूम नहीं है यहां, हम 8 घंटे तंग होकर बैठे रहते हैं. रात को इसी ड्रेस में हम लोग सड़क पर जाते हैं. हममें से कोई एक पहरा देती है.’
उन्होंने बताया कि यूनिसेक्स शौचालय तो इतने गंदे है कि ‘कोई जानवर भी उसमें घुसना पसंद नहीं करेगा.’ बेशक, उसके बाहर कुत्ते भी सो रहे थे.
एक मरीज की परिजन ने भी अस्पताल में बुनियादी सुविधाएं न होने की शिकायत की.
उसने दिप्रिंट से अपना बयान दर्ज करने और मरीजों की परिजनों की दुर्दशा को उजागर करने का आग्रह करते हुए कहा, ‘एक महिला टॉयलेट के इस्तेमाल के लिए कहां जाएगी? वे कम से कम शौचालय की व्यवस्था तो कर ही सकते हैं.’
नर्सों का कमरा भी आइसोलेशन विंग के अन्य हिस्सों की तरह ही उपेक्षित और अस्तव्यस्त था, जगह-जगह छिपकली, कीड़े-मकोड़े और मच्छर नजर आ रहे थे.
कमरे की दशा की ओर इशारा करते हुए नर्स ने कहा, ‘मच्छर काटते रहते हैं, वेंटिलेशन है नहीं, यही बैठकर रिकॉर्ड भरो. क्या हम क्या इंसान नहीं हैं?’
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ट्रांजिशन की स्थिति में
आइसोलेशन वार्ड के सामने एक ट्रॉमा सेंटर निर्माणाधीन है, जिसे केंद्र की तरफ से मिले 150 करोड़ रुपये के फंड से बनाया जा रहा है. कर्मचारियों का मुताबिक ट्रामा सेंटर का निर्माण 2016 में शुरू हुआ था, और अस्पताल प्रशासन की तरफ से कई बार स्थानीय सांसदों-विधायकों को पत्र लिखकर इसे जल्द से जल्द सौंपने का आग्रह किए जाने के बावजूद, यह ऐसे ही पड़ा हुआ है. यह बाकी अस्पताल में बदहाल सुविधाओं के साथ एक क्रूर मजाक है. 90 फीसदी काम पूरा होने के बाद भी भवन में पानी की आपूर्ति नहीं है, यही वजह है कि अस्पताल प्रशासन इस जगह का इस्तेमाल कोविड मरीजों के लिए नहीं कर पा रहा है.
इस बीच, मधुबनी जिले निवासी 25 वर्षीय मनोज कुमार पुराने सर्जरी वार्ड—जिसे इस समय अस्पताल में बेड मिलने का इंतजार कर रहे कोविड मरीजों के लिए एक ट्रांजिशन स्पेस के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है—के भूतल पर इंतजार कर रहे थे और अस्पताल कर्मचारी उसकी कोविड पीड़ित मां सुनीता को आइसोलेशन वार्ड में शिफ्ट करने की तैयारी कर रहे थे. सुनीता को एक दिन पहले ही अस्पताल की इमरजेंसी में लाया गया था.
जहां वे इंतजार कर रहे थे, जर्जर हो चुकी यह इमारत गाय के गोबर की बदबू से भरी थी, और यहां तक कि सूअर भी आराम से यहां-वहां घूमते नजर आ रहे थे.
डीएमसीएच की सबसे उम्रदराज नर्स, जो 1983 से अस्पताल में काम कर रही है और अगले साल सेवानिवृत्त होने वाली है, ने दिप्रिंट को बताया कि कुमार का परिवार भाग्यशाली था कि उन्हें इतनी जल्दी अपनी मां के लिए बेड मिल गया.
उन्होंने बताया, ‘उन्हें तो केवल एक दिन इंतजार करना पड़ा. कई मरीजों को तो चार दिन तक इंतजार करना पड़ता है. हमारे पास 20 बिस्तर हैं और उनमें से अधिकांश पिछले एक पखवाड़े में भर चुके हैं’
इस बीच, जिला प्रशासन ने कहा कि पुरानी इमारत को केवल प्रतीक्षालय के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था.
दरभंगा के डीडीसी तनय सुल्तानिया ने जोर देकर कहा, ‘हमने इसे (पुराने सर्जरी वार्ड को) एक ट्रांजिशन बिल्डिंग के तौर पर इस्तेमाल किया, जब हमारे पास जिला स्कूल (जिसे कोविड उपचार केंद्र में बदल दिया गया) या डीएमसीएच में पर्याप्त बेड नहीं थे. किसी भी समय पर वहां प्रतीक्षारत मरीजों की औसतन छह-सात रहती थी. हालांकि, यह पुराना है, लेकिन इसमें सभी सुविधाएं हैं.’
बहरहाल, उन्होंने आइसोलेशन वार्ड या नर्सों के कमरे की स्थिति पर कोई टिप्पणी नहीं की.
पुराने सर्जरी वार्ड में नर्सों के कमरे की स्थिति भी आइसोलेशन वार्ड से बेहतर नहीं थी. सबसे बड़ी नर्स ने कहा, ‘हम वॉशरूम नहीं जा सकते. उन परिवारों के बारे में सोचें जिन्हें यहां 12-15 दिन इंतजार करना पड़ता है.’
हालांकि, जरूरत तमाम लोगों को कठिन परिस्थितियों का आदी बना देती है. इस बिल्डिंग में एक बुजुर्ग दंपत्ति ने वॉशरूम के बाहर की जगह को अपना ठिकाना बना रखा है. उनका छोटा बेटा हाल में एक गैर-कोविड सर्जरी के बाद यहां स्वास्थ्य लाभ कर रहा था. दंपत्ति अपने आसपास की गंदगी और बदबू की परवाह न करते हुए यहां खाना बना रहे थे, खा रहे थे और सो रहे थे.
मौत के बाद भी उपेक्षित
आइसोलेशन वार्ड में चार दिन बिताने वाले एक मरीज के परिवार के सदस्य ने कहा, ‘अगर दरभंगा में कहीं नर्क है तो वो डीएमसीएच में ही है.’ मरीज को आइसोलेशन वार्ड से अस्पताल के दूसरे विंग में शिफ्ट किए जाने के बाद भी इस भावना में कोई बदलाव नहीं आया.
इस भयावह बीमारी के कारण अपने प्रियजनों को गंवा देने वाले परिवारों के लिए मुश्किलें उसके बाद भी खत्म होने का नाम नहीं लेतीं.
65 वर्षीय गणेश पासवान की 12 मई की शाम करीब 4 बजे नए आइसोलेशन वार्ड में मौत हो गई. उनके बगल वाले मरीज की सुबह मौत हो गई. पासवान के बेटे सुधीर की मदद करने वाला कोई नहीं था, जो यह पता लगाने में जुटा था कि अपने पिता के शव को अंतिम संस्कार के लिए कैसे ले जा सकता है.
पासवान दो दिन पहले कोविड टेस्ट में पॉजिटिव पाया गया था.
हताश हो चुके सुधीर ने कहा, ‘बॉडी बैक हो जाता है…जो साइड में जिंदा है उसे भी खराब लगता है अगर उनके बगल में मुर्दा पड़ा रहे.’
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