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Thursday, 21 November, 2024
होमदेश‘मरने के लिए ICU बहुत ख़राब जगह है’: जब इलाज छोड़ देना ही सबसे अच्छा विकल्प होता है

‘मरने के लिए ICU बहुत ख़राब जगह है’: जब इलाज छोड़ देना ही सबसे अच्छा विकल्प होता है

कुछ डॉक्टर और NGOs ये सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं, कि जो मरीज़ लाइलाज बीमारियों से पीड़ित हैं, वो एक बेहतर ज़िंदगी- और मौत का अनुभव कर सकें.

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नई दिल्ली: 29 वर्षीय दीपक रोशन कहता है, ‘मुझे एक और जीवन चाहिए…शायद एक कुत्ते का’. उसकी ईर्ष्या की लक्ष्य, लूसी, बिस्तर के पास खड़ी हुई अपनी दुम आहिस्ता से हिलाती है, जिसपर वो स्थिर लेटा हुआ है. उसकी मां उसके पैरों पर तेल लगा रही है. इससे वो ठीक नहीं होगा, जैसे बरसों की सर्जरी और फिजियोथेरेपी से नहीं हुआ है. लेकिन ये एक तरह की राहत है, जैसे वो दर्द निवारक गोलियां और प्रोटीन पैकेट्स हैं, जो उसके घर आने वाली प्रशामक देखभाल टीम उसे देकर जाती है.

जब इलाज की कोई उम्मीद न हो और तकलीफ से निजात न हो, तो ज़िंदगी को लंबा खींचना क्रूरता लग सकता है, लेकिन उसका जो कुछ भी हिस्सा बचा है, उसे आसान या कम से कम ज़्यादा सहनीय बनाने की कोशिश ज़रूर की जा सकती है.

भारत में बहुत लोग हैं, जो कैंसर, गंभीर बीमारियों की जटिलताओं या फिर अलज़ाइमर या पार्किंसंस जैसी न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की ज़द में आकर, धीरे-धीरे मौत की तरफ क़दम बढ़ा रहे हैं. किसी भी विकसित होती अर्थव्यवस्था की तरह लोगों की ज़िंदगियां लंबी हो रही हैं, लेकिन इसका मतलब ये ज़रूरी नहीं है कि वो कोई बेहतर जीवन जी रहे हैं.

हेल्थकेयर और टेक्नॉलजी तक बेहतर पहुंच के साथ, नैदानिक हस्तक्षेप और उपचारों पर ज़ोर बढ़ता जा रहा है, लेकिन बहुत से मामलों में वो सब सिर्फ इतना कर पाते हैं कि मौत को टाल देते हैं और ये भी अकसर जीवन की गुणवत्ता की क़ीमत पर होता है.

लेकिन चिकित्सा समुदाय से एक आवाज़ उठ रही है, जो ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में या जहां कोई इलाज मुमकिन न हो, वहां अस्पताल-आधारित आक्रामक उपचारों से हटने की वकालत कर रही है.

इस क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टरों और सिविल सोसाइटी संगठनों का कहना है कि इसके विकल्प प्रशामक और धर्मशाला देखभाल हो सकते हैं, जिन दोनों में तकलीफ और बेआरामी को दूर करने पर ज़ोर दिया जाता है.

प्रशामक देखभाल में ‘इलाज’ पर नहीं बल्कि शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक तकलीफों से राहत पर ज़ोर दिया जाता है, न सिर्फ मरीज़ों की बल्कि उनके परिवार की भी. इसे चिकित्सा उपचार के साथ बढ़ाया जा सकता है.

दूसरी ओर, धर्मशाला की देखभाल का मतलब होता है कि मौत की अपेक्षा से कुछ पहले ही, प्रशामक देखभाल को छोड़कर बाक़ी सब उपचार बंद कर दिए जाएं.

प्रशामक देखभाल को अक्सर कैंसर से जोड़ा जाता है, जिसमें एक समय के बाद इलाज काम नहीं करता, लेकिन धीरे-धीरे दूसरी बीमारियों और विकलांगताओं से पीड़ित मरीज़ों के लिए भी, इसकी ज़रूरत को स्वीकार किया जा रहा है.

लेकिन प्रशामक और धर्मशाला देखभाल की पहुंच और जानकारी सीमित होने के कारण, बहुत से मरीज़ अपने आपको बीमारियों के साथ एक अनावश्यक और व्यर्थ की ‘लड़ाई’ में उलझा हुआ पाते हैं, जिसके नतीजे में उनके और उनके प्रियजनों के लिए मौत उतनी शांतिपूर्ण नहीं रह पाती जितनी हो सकती थी.

मौत की एक बेहतर क्वालिटी

एम्स कैंसर अस्पताल के अव्यवस्थित बाह्य रोगी विभाग में, दीपा चूफल अपनी पांच साल की भतीजी प्रिशा अधिकारी के लिए, धैर्य के साथ मॉर्फीन का एक डोज़ लेने की लाइन में खड़ी हैं. प्रीशा जब दो साल की थी तो उसके मस्तिष्क में एक ट्यूमर का पता चला था, और छह महीने के अंदर कैंसर उसके पूरे शरीर में फैल गया.

गीली आंखों से चूफल कहती हैं, ‘पहले, डॉक्टर हमें उम्मीद दिलाते थे, लेकिन अब हम बस दिन गिन रहे हैं.’

बीमारी का पता चलने के कुछ समय बाद ही, छोटी सी प्रिशा को कैंसर अस्पताल के दर्द प्रबंधन विभाग को रेफर कर दिया गया, जहां डॉक्टरों का फोकस उसे तकलीफ से राहत दिलाने पर है, जब तक कि वो अपनी आख़िरी सांस नहीं ले लेती.

दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में ऑन्को-एनेस्थीसिया एवं पैलिएटिव मेडिसिन विभाग की प्रमुख, डॉ सुषमा भटनागर कहती हैं, ‘जब मरीज़ों की बीमारी पुरानी हो जाती है और इलाज मुमकिन नहीं रहता, तब हम देखते हैं कि मरीज़ों और उनके रिश्तेदारों के बीच जानकारी का संकट होता है. उन्हें बीमारी और उसके इलाज के विकल्पों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता. उन्हें लगता है कि हम केवल लक्षणों का इलाज कर रहे हैं.’

वो कहती हैं कि डॉक्टरों को परिवारों को मुकम्मल देखभाल के बारे में बताने की ज़रूरत होती है, ताकि वो हालात के साथ समझौता कर सकें और अपना भावनात्मक इलाज कर सकें.

उन्होंने आगे कहा, ‘हम न केवल मरीज़ों के लक्षणों का इलाज करते हैं, बल्कि उनके परिवार के सदस्यों का भी ख़याल रखते हैं. प्रशामक देखभाल चिकित्सा की एकमात्र शाखा है, जिसमें तीमारदारों की भी देखभाल की जाती है.’

एक न्यूरोलॉजिस्ट और एडवांस केयर प्लानिंग के पैरोकार डॉ रूप गुरसहानी के अनुसार, जब मरीज़ ऐसा करने की मानसिक स्थिति में हों, तो उन्हें अपनी देखभाल के बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया जाना चाहिए.

एडवांस लाइफ प्लानिंग पर आयोजित एक वेबिनार में डॉ गुसहानी कहते हैं, ‘मरने के लिए ICU एक बहुत ख़राब जगह है. लोगों को अपने बिस्तर पर मरना चाहिए, जहां वो अपने परिवार के बीच हों’.

जनवरी में, लांसेट कमीशन ने ‘मौत का मूल्य’ नाम से एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें इस पर तवज्जो दी गई कि कैसे कोविड-19 में लोग ‘अंतिम चिकित्सा मृत्यु का कष्ट झेल रहे थे, अकसर अस्पतालों तथा इंटेंसिव केयर यूनिट्स के मास्क लगाए हुए स्टाफ के बीच अकेले, जहां इलेक्ट्रॉनिक संचार के अलावा, परिवार से संपर्क का कोई दूसरा तरीक़ा नहीं था.

दिल्ली में मरीजों के साथ CanSupport टीम के सदस्य | सोनल मथारू/दिप्रिंट

सिलसिलेवार पेपर्स में जीवन को बढ़ाने के लिए आक्रामक उपचारों पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर, जीवन के अंत के समय उपचारों की ऊंची लागत, और प्रशामक देखभाल में वैश्विक असमानताओं की ओर ध्यान आकर्षित कराया गया है. इन पेपर्स में कहा गया है कि उस रिश्ते को बदलने पर ग़ौर करने की ज़रूरत है, जो हमारा मौत और मर रहे व्यक्ति की देखभाल से है.


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अलविदा कहने की तैयारी

प्रशामक और धर्मशाला देखभाल के विशेषज्ञों का कहना है, कि मौत के बारे में बातचीत कभी आसान नहीं होती, लेकिन उसे न करने से मुश्किलें और ज़्यादा बढ़ जाती हैं.

‘हमें उन्हें इस सच्चाई से रूबरू कराना होता है, कि मरीज़ अब बेहतर होने वाला नहीं है. लेकिन साथ ही हम उन्हें आश्वासन देते हैं, कि उनकी आख़िरी ज़रूरत तक हम उनके साथ बने रहेंगे,’ ये कहना था पल्लिका का (जो अपना सरनेम इस्तेमाल नहीं करतीं), जो कैन-सपोर्ट के साथ एक काउंसलर हैं, जिनकी संस्था ज़्यादातर कैंसर मरीज़ों को घर पर ही प्रशामक देखभाल मुफ्त उपलब्ध कराती है.

वो कहती है कि पहली बातचीत हमेशा सबसे मुश्किल होती है. परिवार बिल्कुल टूट जाते हैं, और उनकी भावनात्मक पीड़ा को देखना मुश्किल हो जाता है- लेकिन ज़्यादातर लोग अमूमन परिणाम को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे वो स्थिति से बेहतर ढंग से निपट पाते हैं.

भारत में बहुत से डॉक्टर बुरी ख़बर को इस तरह से बयान करने के लिए प्रशिक्षित नहीं होते, जिसमें मरीज़ या उसके परिजनों को और अधिक आघात पहुंचाए बिना, सच्चाई का ख़ुलासा कर दिया जाए. कुछ अस्पताल डॉक्टरों के संचार कौशल के लिए वर्कशॉप आयोजित करते हैं, लेकिन ऐसी पहलक़दमियां बहुत कम ही होती हैं.

डॉ गुरसहानी के अनुसार, ख़बर देने के अलावा ये भी ज़रूरी है, कि ‘ज़िंदा रहते वसीयत’ करने में मरीज़ों की सहायता की जाए. इससे मरीज़ों या उनके द्वारा नियुक्त परिवार के सदस्यों को, ये फैसला करने का अधिकार मिलता है कि वो किस तरह का इलाज हासिल करना चाहते हैं.

डॉ गुरसहानी समझाते हैं, ‘ये एक सादा सा फॉर्म होता है, जिसमें वो ऐसी चीज़ें लिख सकते हैं जो वो नहीं चाहते. इसमें स्पष्ट रूप से लिखा होता है कि अगर आप किसी इलाज से इनकार कर देते हैं, तो कोई उसे आपके ऊपर थोप नहीं सकता’.

फॉर्म में बहुत सी प्रक्रियाओं की सूची होती है, जिन्हें लोग अस्पताल में रहते हुए छोड़ने का विकल्प चुन सकते हैं, जिनमें कृत्रिम श्वसन, ट्यूब फीडिंग, डायलिसिस, और कीमोथेरेपी शामिल हैं.

वो कहते हैं, ‘ये एक तकलीफदेह प्रक्रिया है, लेकिन सबको इसे करना चाहिए’.

ऐसे विकल्पों के बारे में जानकारी और तैयारी के अभाव में बहुत से मरीज़ और उनके परिवार एक मुश्किल स्थिति में पड़ जाते हैं, जहां ये फैसला करने का समय आता है कि इलाज कब तक चलना चाहिए.

भारत में प्रशामक देखभाल

हालांकि, प्रशामक देखभाल की ज़रूरत को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है, लेकिन भारत में 2 प्रतिशत ज़रूरतमंद लोग इसका लाभ उठा पाते हैं. केरल के अलावा, जहां प्रशामक देखभाल समुदाय द्वारा संचालित, विकेंद्रित, और राज्य सरकार-समर्थित होती है, देश के बाक़ी हिस्सों में उपलब्ध ये सेवाएं आधी-अधूरी ही हैं.

कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाएं अस्पतालों के साथ सहयोग करके घरों पर देखभाल मुहैया कराती हैं, लेकिन फिर भी उन्हें आमतौर पर एक धर्मार्थ सेवा चलाने वाली संस्थाओं के तौर पर देखा जाता है.

एम्स में काफी लंबे समय से मरीज़ों को प्रशामक देखभाल दी जा रही है, लेकिन इसके लिए एक समर्पित विभाग 2016 में ही आरंभ हुआ, जब प्रशामक देखभाल में एक विशेष एमडी डिग्री भी शुरू की गई. भारत में, 100 से भी कम प्रशिक्षित फिज़ीशियंस हैं जो इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं, और इसका ज़ोर अभी भी कैंसर मरीज़ों के दर्द प्रबंधन पर ही है.

डॉ गुरसहानी कहते हैं, ‘दुनियाभर में प्रशामक देखभाल और कैंसर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. मुख्य मुद्दा दर्द (प्रबंधन) का है. लेकिन अगर आप पार्किंसंस बीमारी से पीड़ित किसी मरीज़ के जीवन के आख़िरी दो-तीन वर्षों की तकलीफ को कोई संख्या दें, तो वो कैंसर मरीज़ की तकलीफ के बराबर ही होगी’.

फिर दीपक रोशन के जैसे मामले भी हैं- कमज़ोर, लाइलाज, लेकिन आवश्यक रूप से मौत के क़रीब नहीं. ऐसे मामलों में भी प्रशामक देखभाल इलाज-उन्मुख उपचारों का विकल्प हो सकती है.

एनजीओ कैनसपोर्ट ऐसे मरीज़ों की भी मुफ्त सहायता करती है, और हर दिन उनके घर जाती है. टीम तीमारदारों को भी सहायता मुहैया कराती है, जो ऐसे समय मरीज़ की ज़रूरतों को पूरा करने में जूझते हैं, जब बाक़ी चिकित्सा प्रतिष्ठान ने हाथ खड़े कर दिए होते हैं.

दीर्घ-कालिक बीमारियों के लिए घर पर ही प्रशामक देखभाल

ग्यारह साल पहले जब वो 18 साल का था और बिल्कुल ठीक था, तो दीपक ने एक दिन उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में अपने पिता के गांव में एक नदी में ग़ोता लगाने का फैसला किया. वो कहता है, ‘जैसे ही मेरा सर नदी के ताल से चकराया, मेरे पूरे शरीर में एक स्पार्क सा दौड़ गया. मैंने तैरने की कोशिश की, लेकिन मैं पानी में बहता चला गया. उसके बाद से मुझे कुछ महसूस ही नहीं हुआ है’.

ये वो क्षण था जब उसकी गर्दन की सी5 हड्डी टूट गई थी. उसके बाद फिर कभी वो अपने टेंपो नहीं चला सका, और सिनेमा हॉल में फिल्में देखने के अपने शौक़ का मज़ा नहीं ले सका. घटना के क़रीब एक साल बाद तक, दीपक अस्पताल में भर्ती रहा जब एक दिन डॉक्टरों ने कह दिया अब वो कुछ और नहीं कर सकते. वो घर जा सकता था. वो जवान था, हो सकता है कि उसका शरीर स्वाभाविक रूप से फिर हरकत करने लगे.

लेकिन, गाज़ियाबाद में एक कमरे के घर का मतलब था- और ज़्यादा बे-आरामी. सीमित आय के साथ उसकी मां और प्राथमिक सहायक पूनम, उपयुक्त गद्दे या एयरकंडीशनर का ख़र्च नहीं उठा सकीं, और जल्द ही बिस्तर पर पड़े रहने से दीपक के शरीर में घाव हो गए.

उसे सहायता दिलाने के लिए हाथ-पैर मारने के दौरान, पूनम कैनसपोर्ट के संपर्क में आई. एक डॉक्टर, नर्स और काउंसलर की टीम के नियमित रूप से घर आकर उसकी हालत संभालने से, पूनम और दीपक ने अब स्वीकार कर लिया है, कि वो अब फिर से चल फिर नहीं पाएगा.

ज़िंदगी बेशक अभी भी मुश्किल है

अपनी सिकुड़ गई मांसपेशियों और त्वचा पर बेड सोर्स से पड़ गए धब्बों को देखते हुए, एक समय वो कहता है, ‘मैं इस शरीर से छुटकारा पाना चाहता हूं’.

दोपहर की गर्मी में दीपक बेचैन हो जाता है. हर दस मिनट पर पूनम उसे करवंट दिलाती है, उसके मुड़े हुए पैरों को सीधा करती है, और दौरों को रोकने के लिए उन्हें कसकर पकड़ती है.

जब प्रशामक देखभाल टीम वहां आती है, तो मां और बेटा दोनों राहत महसूस करते हैं. टीम उन्हें कुछ बेसिक दवाइयां देती है, दीपक के कैथेटर को साफ करती है, और दोनों से बात करती है कि वो कैसा महसूस कर रहे हैं.

दीपक, जो स्वीकार करता है कि अपने निरंतर साथियों- उसके कुत्तों लूसी और टफी- के होते हुए भी वो अकेला महसूस करता है, टीम के साथ वो बातें साझा करता है, जो अपनी मां से कहने में झिझकता है.

फिर भी, दीपक और पूनम दोनों को उम्मीद है, कि एक दिन वो बेहतर हो जाएगा और फिर से चल पाएगा. वो किसी चमत्कार के इंतज़ार में हैं, लेकिन तब तक कम से कम उन्हें तकलीफ से कुछ राहत मिल रही है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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