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Friday, 29 March, 2024
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‘अभी तक एक शव भी नहीं देखा’— चीन से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों में क्यों है हताशा

चीन में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले हजारों भारतीय छात्र-छात्राएं 2020 की शुरुआत में कोविड के कारण लौट आए थे. तब से कक्षाएं ऑनलाइन ही चल रही हैं, जिससे छात्रों को महत्वपूर्ण प्रैक्टिकल अभ्यास करने का मौका तक नहीं मिल रहा है.

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फरीदाबाद/हैदराबाद/मुंबई/बेंगलुरु: नीतिका पाराशर मेडिकल की स्टूडेंट रहीं अपनी बहन के साथ जब पैथोलॉजी लैब पहुंची तो ब्लड सैंपल के संबंधित कलर लेबल की पहचान करना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था.

अलग-अलग तरह के टेस्ट के लिए ब्लड सैंपल अलग-अलग रंग की शीशियों में रखे जाते हैं. उदाहरण के तौर पर लैवेंडर टॉप वाली शीशी में रखे ब्लड सैंपल का फुल ब्लड काउंड (आरबीसी, डब्ल्यूबीसी, आदि) किया जाना होता है; वही डी-डिमर टेस्ट की जरूरत वाले ब्लड सैंपल को नीले टॉप वाली शीशी में रखा जाता है.

ब्लड टेस्ट के लिए इस्तेमाल होने वाले खास रंग के लेबल को पहचानना ज्यादातर मेडिकल स्टूडेंट के लिए सामान्य बात है, लेकिन जींद, हरियाणा की एमबीबीएस लास्ट इयर की 25 वर्षीय छात्रा नीतिका के लिए यह एक चुनौती थी, जिसे पिछले दो सालों से मेडिकल की पढ़ाई करने के दौरान कोई प्रैक्टिकल अनुभव नहीं हुआ है.

नीतिका पाराशर चीन के शियान स्थिति हुबेई यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन की छात्रा है और जनवरी 2020 से ही भारत में हैं.

वह उन हजारों स्टूडेंट में शामिल है, जो 2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी के कारण भारत लौट आए थे और तब से ही अपनी यूनिवर्सिटी नहीं लौट पाए हैं.

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2019-20 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विभिन्न चीनी यूनिवर्सिटी में 23 हजार भारतीय छात्रों ने दाखिला लिया था.

हालांकि अब तक उनकी पढ़ाई ऑनलाइन जारी है, लेकिन चीन सरकार और संबंधित यूनिवर्सिटी की तरफ से स्थिति कुछ साफ नहीं किए जाने से उन्हें अपने भविष्य की चिंता सता रही है. कुछ को तो डिग्री रद्द होने का भी डर सता रहा है. प्रैक्टिकल अनुभव की कमी ने उनकी चिंताओं को और बढ़ा दिया है.

पिछले महीने, चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि वह विदेशी छात्रों की ‘समन्वय के साथ वापसी’ के लिए प्रतिबद्ध है. हालांकि, भारतीय छात्रों के बारे में विशेष तौर पर कुछ नहीं कहा था. मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने कहा था, ‘हम विदेशी छात्रों को अपनी पढ़ाई के लिए चीन लौटने की अनुमति देने के लिए एक समन्वित तरीके से विचार कर रहे हैं.’

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि इन छात्रों के लिए सरकार के पास तत्काल कोई योजना नहीं है. साथ ही जोड़ा कि वह चीन की तरफ से वीजा देना शुरू करने का इंतजार कर रही है. स्वास्थ्य मंत्रालय के एक सूत्र ने कहा, ‘यह विदेश मंत्रालय से जुड़ा मामला है और उसे ही इसे सुलझाना चाहिए.’

दिप्रिंट ने मामले पर टिप्पणी के लिए कॉल और टेक्स्ट मैसेज के जरिये राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद (एनएमसी) सचिव संध्या भुल्लर और स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण से संपर्क साधा, लेकिन रिपोर्ट छपने तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी.

बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास ने पिछले महीने एक बयान में कहा था, ‘चीन के विदेश मंत्रालय (एमएफए) ने दूतावास को आश्वासन दिया है कि वे भारतीय छात्रों सहित सभी विदेशी छात्रों के हितों के बारे में सोचते हैं, और चीन में उनकी जल्द वापसी के लिए उपयुक्त तरीके से काम करेंगे और इस मामले में दूतावास के साथ संपर्क बनाए रखेंगे.

बयान में आगे कहा गया, ‘चीनी एमएफए ने यह भी बताया कि भारतीय छात्रों की वापसी कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है और पढ़ाई पूरी करने के लिए विदेशी छात्रों को फिर चीन बुलाने का निर्णय लेते समय उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा.’ साथ ही बताया कि यह आश्वासन ‘पिछले दो वर्षों में दूतावास की तरफ से संबंधित चीनी अधिकारियों के साथ मुद्दा लगातार उठाए जाने के मद्देनजर दिया गया है.’

‘ऑनलाइन और ऐप्स के जरिये पढ़ाई जारी है’

फरीदाबाद स्थित एक कच्चे घर में बैठकर अपनी ऑनलाइन कक्षाएं लेते वाली नीतिका ने बताया कि प्रैक्टिकल के अभाव में किस तरह उसकी पढ़ाई बाधित हो रही है.

उसने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं एमबीबीएस के अंतिम वर्ष में हूं और केवल ऑनलाइन और ऐप्स के माध्यम से पढ़ रही हूं. मुझे अस्पताल का कोई अनुभव नहीं है, मैंने मरीजों को नहीं देखा है, मैंने अभी तक एक शव भी नहीं देखा है. मैं कभी-कभी बहुत उदास हो जाती हूं कि डॉक्टर कैसे बन पाऊंगी. मैं बस यही उम्मीद करती हूं कि मेरी मेडिकल डिग्री रद्द न हो.’

उसने कहा, ‘अब मेरी सारी उम्मीदें एफएमजीई क्लियर करने पर टिकी हैं. ताकि मैं भारत में कानूनी रूप से मेडिकल प्रैक्टिस कर सकूं.’

चिकित्सा शिक्षा नियामक, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) की तरफ से ली जाने वाली विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (एफएमजीई) में पास होना रूस, यूक्रेन और चीन सहित कुछ देशों से एमबीबीएस करके आने वाले स्टूडेंट के लिए अनिवार्य होता है. एक बार यह परीक्षा पास कर लेने पर वे भारत में इंटर्नशिप के लिए नामांकन कर सकते हैं और मेडिकल प्रैक्टिस कर सकते हैं.

नीतिका के दो भाई-बहन हैं, दोनों सरकारी कॉलेजों में मेडिकल स्टूडेंट हैं. वही उसका पूरा सपोर्ट सिस्टम हैं, और उन्होंने ही उसे एफएमजीई की तैयारी पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी है ताकि वह भारत में किसी अस्पताल में अपनी इंटर्नशिप के दौरान प्रैक्टिकल अनुभव हासिल कर सके.

नीतिका ने बताया, ‘मेरी बहन अपने अंतिम वर्ष के बाद अभी इंटर्नशिप कर रही है. वह मुझे अस्पताल में अपने अनुभवों के बारे में बताती है और मैं इसी तरह सीखती हूं. लेकिन हर कोई उतना भाग्यशाली नहीं होता.’

पहले साल में ही लौटने वालों की स्थिति खराब

रूपा वल्लदासा जैसे कुछ स्टूडेंट के लिए तो स्थिति वाकई बहुत खराब है, जिसे एमबीबीएस की पढ़ाई के अपने पहले वर्ष में ही भारत लौटना पड़ा है. हैदराबाद की वल्लदासा ने जनवरी 2020 में जब भारत लौटने के लिए कॉलेज छोड़ा तो उसने सिर्फ एक सेमेस्टर पूरा किया था.

जिआंगसु प्रांत में जुझाउ मेडिकल यूनिवर्सिटी की छात्रा वल्लदासा अब अपने प्रोग्राम के तीसरे वर्ष में है, और अब तक, उसने लैब का मुंह तक नहीं देखा है. उसने बताया कि उसकी पढ़ाई में रुचि कम हो रही है क्योंकि ऑनलाइन पढ़ाई करना उबाऊ हो गया है.

उसने कहा, ‘पढ़ाई के पहले साल में तो सिर्फ मूल बातें बताई जाती है. दूसरे और तीसरे साल में ही हमें लैब जाने का मौका मिलता है. मेरा दूसरे साल की पूरी पढ़ाई ऑनलाइन हुई और अब तीसरा साल भी ऐसे ही चल रहा है. मैं अब तक किसी लैब में नहीं गई और न ही किसी तरह कोई प्रैक्टिकल ट्रेनिंग ली. मुझे चिंता है कि आगे क्या होगा क्योंकि अगले दो साल ऐसे होते हैं जब हमें आमतौर पर अस्पतालों में ले जाया जाता है. अगर हम यहीं अटके रहे तो यह सब कैसे कर पाएंगे.’

रूपा व्हाट्सएप और टेलीग्राम जैसे सोशल मीडिया ऐप पर कई छात्र समूहों का हिस्सा हैं—जिनमें से कुछ में एक ही ग्रुप में 4,000 से अधिक छात्र होते हैं. ये सोशल मीडिया ग्रुप छात्रों के बीच उनकी संभावित वापसी, इंटर्नशिप के अवसरों आदि पर कम्युनिकेशन की सुविधा के लिए बनाए गए हैं.

रूपा ने कहा, ‘ट्विटर कैंपेन या राजनेताओं से मिलने की हमारी कोई भी कोशिश कारगर नहीं साबित हो रही. ऐसा लगता है कि सरकार ने आंखें मूंद रखी हैं. कुछ भी पूछने पर हमारी यूनिवर्सिटी कहती है कि वो भी उतने ही लाचार हैं. मेरा चौथा साल इस सितंबर से शुरू हो रहा है और मैं वास्तव में चिंतित हूं.’

मुंबई निवासी 21 वर्षीय रचिता कुर्मी एक और ऐसी छात्रा है, जिसे कॉलेज के पहले वर्ष में ही वापस लौटना पड़ा था.

वह जिनान शहर में शेडोंग यूनिवर्सिटी की छात्रा है. वह 2019 में चीन गई थी और अपना पहला सेमेस्टर उसने वहीं रहकर पूरा किया. जनवरी 2020 में सर्दी की छुट्टियों के लिए भारत आई और फिर वापस नहीं जा सकी. उसके बैच में 70 स्टूडेंट थे, जिनमें से 40 भारत से थे और सभी 40 वापस आ चुके हैं. उनमें से किसी को भी कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है.

रचिता ने कहा कि ऑनलाइन पढ़ाई करना काफी थका देने वाला है. और जो बात सबसे ज्यादा बदतर है वो ये कि यह नहीं पता कि वो अब वहां लौट भी पाएगी या नहीं.

उसने कहा, ‘हमें इस बारे में कुछ जानकारी नहीं है कि हम चीन कब लौट सकते हैं क्योंकि चीन में मीडिया काफी फिल्टर्ड है और कॉलेज कह रहे हैं कि उन्हें सरकार की ओर से कोई सूचना नहीं मिली है.’

उसकी कक्षाएं और परीक्षाएं वीचैट और डिंगटॉक जैसी ऐप पर आयोजित की जाती थीं, लेकिन, भारत सरकार की तरफ से चीनी ऐप्स पर पाबंदी के कारण दोनों ने काम करना बंद कर दिया है.

रचिता ने बताया, ‘ऐप्स नहीं होने पर ईमेल ही यूनिवर्सिटी या शिक्षकों के साथ कम्युनिकेशन का एकमात्र तरीका था. लेकिन पिछले सेमेस्टर में माइक्रोसॉफ्ट टीम्स को अपनाया गया था और कॉलेज इस सेमेस्टर में भी इसे जारी रखे है। लेकिन शिक्षक इस सॉफ्टवेयर के आदी नहीं है और यह उनके लिए बेहद उलझाऊ और जटिल है, इसलिए हमें तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.’

वह अब यूके और यूएस के लिए स्क्रीनिंग एग्जाम में शामिल होने की सोच रही है ताकि उन देशों में चिकित्सा का अभ्यास कर सके. एफएमजीई की तरह ही अन्य देशों में वहां प्रैक्टिस के इच्छुक मेडिकल स्नातकों के लिए स्क्रीनिंग एग्जाम होता है.

उसने बताया, ‘मैंने यूएस और यूके के लिए स्क्रीनिंग एग्जाम में बैठने के बारे में सोचा है. अभी, यही एकमात्र तरीका है जिससे मैं अपनी डिग्री को कुछ सार्थक बना सकती हूं, अन्यथा भारत में हर कोई सोचता है कि जो छात्र चीन में पढ़ने जाते हैं, उनके पास नकली डिग्री होती है.’

अगर यह स्थिति नहीं बनी होती, तो उसकी भारत में बसने और यहां पर ही एक डॉक्टर के तौर पर काम करने की योजना थी.

उसने कहा, ‘अमेरिका, ब्रिटेन या यहां तक कि चीन जाने की मेरी कोई योजना नहीं थी. मैं भारत में मेडिकल की पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन यहां बहुत प्रतिस्पर्धा है और निजी मेडिकल कॉलेजों के लिए फीस बहुत अधिक है. नहीं तो मैं भारत क्यों छोड़ती.’


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खर्च एक बड़ा फैक्टर

नानजिंग यूनिवर्सिटी ऑफ चाइनीज मेडिसिन में दाखिला लेने वाली और फिलहाल मुंबई में रह रही एमबीबीएस की चौथी साल की एक छात्रा भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित है. अगर सब कुछ सही रहता, तो 2023 में उसका एमबीबीएस पूरा हो जाता और इस साल अपनी अनिवार्य एक साल की इंटर्नशिप शुरू कर चुकी होती.

भारत लौटने के बाद से वह अपने घर पर ही रहती है, और हफ्ते में पांच दिन ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होती है.

अपना नाम न देने की शर्त पर इस छात्रा ने बताया, ‘हम नहीं जानते कि क्या वापस जाकर अपनी इंटर्नशिप पूरी कर पाएंगे या क्या हमें भारत में ही इसकी अनुमति दी जाएगी. स्वाभाविक तौर पर हमें यहां वरीयता नहीं दी जाएगी. हम नहीं जानते कि यूनिवर्सिटी को तत्कालीन एमसीआई (भारतीय चिकित्सा परिषद, एनएमसी के पूर्ववर्ती) की तरफ से मान्यता प्राप्त होने के बावजूद क्या हमारे प्रमाणपत्र को यहां स्वीकार किया जाएगा या नहीं. हम सरकार से स्पष्टता चाहते हैं.’

छात्रा ने आगे कहा कि उसने हमेशा एक डॉक्टर बनने का सपना देखा था, लेकिन अब यह तय नहीं है कि वह भारत में अपना कोर्स या अभ्यास पूरा कर पाएगी या नहीं. उसे कई तरह की शंकाएं हैं और उसकी समस्याओं का कोई समाधान नहीं है. अपनी बेटी को पढ़ाई के लिए चीन भेजने से पहले यूनिवर्सिटी के बारे में अच्छी तरह पड़ताल करने वाले उसके माता-पिता भी निराश हैं.

तमिलनाडु के कोयंबटूर स्थित एक फर्म में बतौर रीजनल मैनेजर काम करने वाले उसके पिता ने दिप्रिंट को बताया कि परिवार ने नानजिंग यूनिवर्सिटी को इसलिए चुना क्योंकि यह तत्कालीन एमसीआई से मान्यता प्राप्त और पंजीकृत संस्थान था.

उन्होंने बताया, ‘मेरी बेटी ने किसी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी में मेडिकल की पढ़ाई के लिए एमसीआई पोर्टल पर पंजीकरण कराया था, लेकिन अब कोई भी उन पाठ्यक्रमों और यूनिवर्सिटी की जिम्मेदारी नहीं ले रहा है, जिसे हमने जांच-परखकर चुना था.’

2018 में नानजिंग यूनिवर्सिटी में बेटी का कोर्स शुरू होने से पहले उन्हें केवल दस्तावेज, यात्रा, पात्रता और प्रवेश प्रक्रिया के लिए सात लाख रुपये जुटाने पड़े थे.

छात्रा के पिता ने बताया, ‘हमें एक एजेंट का सहारा लेना पड़ा जिसने हमें यूनिवर्सिटी के बारे में बताया. मेरी बेटी के कोर्स की फीस 2.5 लाख रुपये प्रति वर्ष है जिसमें छात्रावास का खर्च शामिल नहीं है. उसे छह महीने के लिए मंदारिन भाषा सीखने की भी जरूरत थी क्योंकि यह अनिवार्य है. सबसे बड़ी चिंता यह है कि 2018 में 1 आरएमबी (चीनी मुद्रा रेन्मिन्बी) 9.1 रुपये के बराबर था. लेकिन आज यह 25 फीसदी बढ़कर 12.25 रुपये पर पहुंच गया है.’

कुछ ने रास्ता निकाला

हालांकि, हर कोई संघर्ष ही नहीं कर रहा है, कुछ छात्र एफएमजीई पास करने में कामयाब रहे हैं और भारत में इंटर्नशिप करने लगे हैं.

कर्नाटक के पावागढ़ का रहने वाला 23 वर्षीय एमबीबीएस छात्र रोहित टी.जी. भी ऐसे छात्रों में शामिल है जो एफएमजीई पास करने में सफल रहे हैं और वह अब बेंगलुरु के सेंट मार्था अस्पताल में इंटर्नशिप कर रहा है—चीन में अपने मेडिकल कोर्स को क्वालिफाई करने के लिए एक साल की इंटर्नशिप अनिवार्य है.

यद्यपि उसके पास एक ‘प्रोविजनल सर्टिफिकेट’ है, जिससे वह शहर में इंटर्नशिप कर सकता है, फिर भी उसे यहां पीजी कोर्स में दाखिले के लिए चीनी यूनिवर्सिटी से अपना मूल प्रमाणपत्र पाने की जरूरत होगी.

जिआंगसू स्थित यांग्जाऊ यूनिवर्सिटी का छात्र रोहित जनवरी 2020 में अपने सेमेस्टर की छुट्टियों के दौरान भारत था लौटा और तबसे यहीं पर अटक गया है. वैसे रोहित अब तक यांग्जाऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हो गया होता.

उसने दो महत्वपूर्ण सालों चौथे और पांचवें वर्ष की पढ़ाई, जिनमें छात्रों को अस्पतालों में काम करने का मौका मिलता है, रिकॉर्डेड वीडियो और ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से ही की है.

रोहित ने कहा, ‘हमें अस्पतालों ले जाया जाता है, हमें इलाज के बारे में जानकारी के साथ प्रैक्टिक ट्रेनिंग भी मिलती है. लेकिन मुझे कुछ नहीं मिला क्योंकि मैंने यह सब अपनी ऑनलाइन कक्षा के माध्यम से ही सीखा है.’

उसने बताया, ‘हमारी यूनिवर्सिटी एक ऐप पर पहले से रिकॉर्ड वीडियो डालती है और छात्र अपनी सुविधा के अनुसार उन वीडियो को देख सकते हैं—कोई आपसे यह भी नहीं पूछेगा कि क्या आपने उन्हें नहीं देखा. न तो कोई शंका दूर करने वाला प्रोफेसर है और न ही कुछ और. मैंने अपनी बहन, जो अपनी पीजी कर रही है, और भारत में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे अपने कुछ दोस्तों की मदद से अपनी शंकाओं के समाधान की कोशिश की. मुझे भारतीय मेडिकल कोर्स से जुड़ी कुछ किताबें भी मिली हैं और मैंने उन्हें पढ़ रहा हूं.’

उसने बताया, ‘अस्पताल में अपनी इंटर्नशिप के पहले दिन मैंने अपने सीनियर्स से कहा कि मुझे कोई प्रैक्टिकल ट्रेनिंग नहीं मिली है, इसलिए मुझे कुछ भी पता नहीं है. यहां तक कि घाव को कैसे संभालने जैसी मूल बातें भी मुझे प्रैक्टिकल तौर पर नहीं पता थीं. थ्योरी मैं उन्हें बता सकता था लेकिन मैं इसे किसी भी मरीज पर व्यावहारिक तौर पर अपना नहीं सकता था. उन्होंने मेरी स्थिति को समझा और पूरी उदारता के साथ मेरी मदद की.’

रोहित को उम्मीद है कि चीन स्थित उनकी यूनिवर्सिटी इसकी योजना बनाएगी कि छात्र अपना मूल स्नातक प्रमाणपत्र कैसे ले सकते हैं, जिसके बिना स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में आवेदन करना असंभव है.

रोहित ने कहा, ‘हमारी अनिवार्य इंटर्नशिप के बाद हमारी यूनिवर्सिटी में स्नातक परीक्षा होती है. अगर आप उसमें पास हो जाते हैं तभी आपको अपना स्नातक प्रमाणपत्र मिलता है. मेरे सीनियर्स तीन महीने में अपनी इंटर्नशिप पूरी कर लेंगे और उन्हें नहीं पता कि आगे क्या करना है या वे चीन कैसे वापस जा सकते हैं. न ही इस बारे में यूनिवर्सिटी ने हमें कुछ बताया है.’

पूर्वा चिटनिस और अनुषा रवि सूद से इनपुट्स के साथ

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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