‘एक दिन हम एक ईंट भट्टे पर गए. वहां का मालिक हमसे कहा कि एक दिन में 1000 ईंट बनाने का 400 रुपया देंगे. हम काम करने लगे. हम वहां सात महीना रहे. हमसे और हमारी बहन से सब काम कराया. ईंट निकलवायी, घास साफ कराई, खेती करायी लेकिन हमें पैसा नहीं दिया. खाली खुराकी के नाम पर एक हफ्ते का 400 रुपया दे देता था. एक दिन वहां के सुपरवाइजर पप्पू पंडित से हमारी किसी बात पर कहा सुनी हो गई तो वह और उसके 10-12 गुंडों ने हमारे ऊपर हमला कर दिया. हमारे साथ काम कर रही हमारी बहन जब हमें बचाने आई तो उसकी ब्लाउज़ साड़ी फाड़ दी.’ जौनपुर (उत्तर प्रदेश) के 32 साल के कैलाश मुसहर अपनी आप बीती सुनाते हुए भावुक हो जाते हैं.
लेकिन यह कहानी केवल कैलाश की नहीं है. उन जैसे कई बंधुआ मज़दूरों की है. इसलिए मानव तस्करी की मार झेल रहे देशभर के करीब 12 हज़ार लोग नेशनल कोएलिशन टू इरेडिकेट बांडेड लेबर एंड ह्यूमन ट्रैफिकिंग इन इंडिया संस्था द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में भाग ले रहे हैं. इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल समेत देश के 14 राज्य के लोग शामिल हैं.
अगर आंकड़ों की दुनिया में जाएं तो ड्रग्स और हथियारों के व्यापार के बाद मानव तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है. यूनाइटेड नेशन की एक संस्था इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (आईएलओ) के मुताबिक पूरी दुनिया में मानव तस्करी से जुड़ा व्यापार 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा का है.
अगर बात भारत की करें तो यहां मानव तस्करी बड़ी समस्या है. देश में यौन व्यापार, बंधुआ मज़दूरी, जबरन शादी आदि कामों के लिए मानव तस्करी तो होती ही है, लेकिन यहां अन्य देशों से भी लोगों को लाकर इस धंधे में शामिल किया जाता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) 2016 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 15379 लोग मानव तस्करी का शिकार हुए हैं जिसमें अठारह साल से कम 60 प्रतिशत हैं. भारत में हर साल एक लाख से ज़्यादा लोग गुम होते हैं.
महिलाओं की स्थिति तो और भी बुरी है.
शकरा गांव जिला जौनपुर की 28 साल की किला मुसहर अपनी कहानी बताती हैं, ‘हमसे कहा गया 1000 ईंट पाथने पर 350 रुपये मालिक देंगे. लेकिन जब हम और हमारे पति वहां पहुंचे तब हमसे भट्ठा की सफाई करवाए, पुराना ईंट फेंकवाए, मड़ई लगवाए. खुराकी के लिए हफ्ते में 300 देते थे. एक सप्ताह तक खुले आसमान के नीचे बाल बच्चों सहित सोए. ठण्डा लगता था, 1-2 बार ओढ़ना खरीदने को बोला तो बोले चुप रहो. जब काम शुरू हो गया, एक दिन में पति पत्नी मिलकर दो से ढाई हज़ार ईंट पाथते. खुराकी हफ्ते में हम दोनों को कुल मिला कर 300 मिलता. ईंट पाथने के अलावा हमसे पानी का पाइप फैलवाते, बालू लदवाते. मैं कहती ये काम मेरा नहीं, मुंशी से करवाइए, तब मालिक मुझे गंदी-गंदी गालियां देता.’
केराकत (जौनपुर) के भट्ठा मालिक इन्द्रमणि सिंह व सुपरवाइज़र पप्पू पंडित की नज़र हमेशा औरतों पर रहती थी. पप्पू पंडित से मैं जब भी लकड़ी मांगने जाती तो कहता ‘लकड़ी लेबू, कुछ देबू ना.’ यह कहते हुए वह मुझे पकड़ने की कोशिश करता. मैं किसी तरह वहां से भागती. उस समय डर भी लगता और गुस्सा आता. वह हमेशा बुरी निगाह रखता था. आये दिन यही कहता है, ‘भट्ठा कमाने के लिए नहीं बल्कि औरतों के साथ खाने कमाने के लिए है.’ मैं बोलती क्या कह रहे हैं. मालिक ‘हट मर्दवा’ कहते हुए शरीर से रगड़ता हुआ चला जाता.’
समाज में हाशिए पर गए लोगों के लिए 20 साल से काम कर रही संस्था पीपुल्स सतर्कता समिति के संस्थापक सदस्यों में से एक लेनिन रघुवंशी कहते हैं कि हम बंधुआ मज़दूरी को खत्म करने के लिए जागरूकता तो फैला सकते हैं, लेकिन हमें इस समस्या का इलाज जड़ से करना होगा. बंधुआ मज़दूरों की लड़ाई एक ऐसी लड़ाई है जिसमें पुलिस, मजिस्ट्रेट, सामाजिक कार्यकर्ता की भागीदारी ज़रूरी है जो कि बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के साथ-साथ इस प्रक्रिया में शामिल दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलाए. ऐसे में लोकसभा में पारित हो चुके मानव तस्करी विधेयक 2018 काफी अहम है.
मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018
इस विधेयक में सरकार ने तस्करी के सभी पहलुओं को नए सिरे से परिभाषित किया है. नई परिभाषा के मुताबिक तस्करी के गंभीर रूपों में जबरन मजदूरी, भीख मांगना, समय से पहले जवान करने के लिए कोई इंजेक्शन या हॉर्मोन देना, विवाह अथवा विवाह के लिए छल, या विवाह के बाद महिलाओं और बच्चों की तस्करी शामिल है.
यह विधेयक अपने आप में महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि पहली बार इसमें कुछ अहम बातों पर ध्यान दिया गया है. जिसमें तीन चीज़ें बहुत ही महत्वपूर्ण है. पहली बार किसी कानून में मानव तस्करी को रोकने की बात की गई है. दूसरा मानव तस्करी के अपराध को झेल रहे लोगों का पुनर्वास का इंतज़ाम कैसे किया जाए. तीसरा है कि दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा कैसे दिलाई जाए. यह विधेयक सामाजिक और आर्थिक दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है.
क्या देश में पहले कोई ऐसा कानून नहीं था.
इस समस्या को लेकर इम्मॉरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट, 1956 नाम का एक कानून चला आ रहा था जिसे अनैतिक दुर्व्यापार कानून के नाम से जाना जाता था. जिसमें किसी से जबरन वेश्यावृत्ति कर रहे लोगों की केवल बात कही गई थी, लेकिन बच्चों की सुरक्षा को लेकर ज़्यादा नहीं था. इसमें कानून को कड़े रूप से लागू करने और पीड़ितों के पुनर्वास जैसी बातें नहीं थी.
दिक्कतें क्या हैं
ऐसा कहा जा रहा है कि सेक्सवर्कस और एलजीबीटी समुदाय के एक तबके को इस विधेयक से ऐतराज है. उनका सवाल है कि जब वह वापस अपने घर आएंगी तो उनको कौन स्वीकार करेगा.
इस पर दिल्ली के पूर्व डीजीपी और प्रयास संस्था के जनरल सेक्रेटरी अमोद कंठ कहते हैं, ‘यह केवल एक भ्रामक विचार है. जिसे बेवजह फैलाया जा रहा है. 18 साल से कम आयु के जिन लोगों को रेसक्यू कराया जाएगा उन्हें बालगृह भेजने का प्रावधान है और उससे ऊपर आयु वाले स्वतंत्र हैं वह अगर शेल्टर होम में जाना चाहें तो जा सकते हैं और अगर उन्हें लगता है कि उन्होंने कोई गलती की है तो वह दोषी होंगे. उन्हें सज़ा मिलेगी. यह सब बातें केवल वही लोग कर रहें जो इसे व्यापार मानते हैं.’
आमोद कंठ आगे कहते हैं, ‘आसान भाषा में अगर कहें तो दो तरह के विचार हैं. एक विचार है कि यह एक संगठित अपराध है और इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए जबकि कुछ लोग कहते हैं कि इसे एक प्रोफेशन की तरह देखा जाना चाहिए. यह काम करने का उनका अधिकार है. मैं तो यही समझता हूं कि यह काम खतरनाक है और इसमें आप अपना केवल जिस्म नहीं बेचते हैं, बल्कि इसके साथ ही आप अपना हृदय और शख्सियत भी बेच देते हैं. अब फैसला आपको करना है कि आप क्या सोचते हैं.’