मेरठ/मैनपुरी/प्रयागराज : भारत में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के पहले मैनपुरी की 25 वर्षीया एस. नोएडा में बतौर छात्रा ‘सामान्य’ जीवन जी रही थी. लेकिन पहली बार जब देशव्यापी संपूर्ण लॉकडाउन लगा तो उसकी जिंदगी पटरी से उतर गई. अब वह मैनपुरी जिला अस्पताल के मानसिक स्वास्थ्य वार्ड के रजिस्टर दर्ज में एक नाम भर है. करीब 18 लाख की आबादी वाले इस छोटे ग्रामीण जिले के अस्पताल में अल्ट्रासाउंड, एक्सरे मशीने और आम डॉक्टर तो हैं मगर एक भी मनोचिकित्सक या क्लीनिकल मनोरोग विज्ञानी नहीं है.
पहले लॉकडाउन के छह महीने तो एस अपने अपार्टमेंट में डर और आतंक के साए में रही. फिर, उसे फोबिया-सा हो गया और बाहर निकलना बंद कर दिया.
2019 से गैर-संचारी रोग विभाग कार्यरत उसकी काउंसलर अरुणा यादव कहती हैं, ‘वह सोचने लगी कि वह अपने परिवार से अब कभी नहीं मिल पाएगी या कि वह अपार्टमेंट में ही मर जाएगी और उसका परिवार उसका शव भी नहीं देख पाएगा.’
महामारी के दो साल में उसकी वजह से हुए मानसिक सदमे के पीडि़तों से मैनपुरी, प्रयागराज और मेरठ जैसे छोटे शहरों के अस्पताल भरे पड़े हैं. मानसिक रोग कभी शहरी बीमारी खारिज कर दिए जाते थे और उसके प्रति कुछ हिकारत का भाव वाले छोटे शहरों में मानसिक पीडि़तों को पेशेवर, हुनरमंद मदद नहीं मिल पा रही है. भूकंप और प्राकृतिक आपदाओं की ही तरह कोविड के इलाज में भी मोटे तौर शारीरिक जरूरतों पर ही फोकस है. पीडि़तों की संख्या बढऩे के साथ छोटं और अद्र्ध-शहरी कस्बों में मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाओं का भारी अकाल है.
यादव एक दूरे 44 वर्षीय मानसिक मरीज का जिक्र करती हैं, जिसका रोजगार महामारी के दौरान खत्म हो गया. वे कहती हैं, ‘उसकी यादाश्त कमजोर हो गई है. उसने मुझे बताया कि वह बाजार जाता है और भूल जाता है कि किसलिए आया है.’ अब उसे हर रोज एक लिखित सूची की जरूरत पड़ती है.
दिप्रिंट को मैनपुरी अस्पताल के मानसिक रोग वार्ड का रजिस्टर देखने को मिला. उसके मुताबिक, जनवरी 2021 में पांच मरीज थे, जो अगस्त 8-10, सितंबर में 10-12, और अक्टूबर में 14-15 हो गए.
देश के छोटे शहरों में मानसिक रोगियों की तादाद बढ़ रही है और कोविड की दूसरी लहर ने उसे और तीखा गया है. दिप्रिंट ने हालात के आकलन के लिए उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, वाराणसी, मैनपुरी और मेरठ के जिला अस्पतालों और मानसिक रोग वार्डों का दौर किया.
महज नाम के लिए
मैनपुरी अस्पताल का मानसिक रोग वार्ड वर्षों तक बेकार-सा पड़ा रहा है. हालांकि यह अस्पताल राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत 1982 में हुई थी.
इस कार्यक्रम के तहत जिला अस्पतालों में आठ पदों-मनोचिकित्सक, क्लीनिकल मनोरोग विज्ञानी, मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ता, मनोचिकित्सा नर्स, सामुदायिक नर्स, निगरानी तथा आकलन अधिकारी, मामला पंजियन अधिकारी और वार्ड एसिस्टेंट-की भर्ती अनिवार्य है. इसके साथ 10 विस्तरों का मनोचिकित्सा वार्ड भी जरूरी है. मैनपुरी में इनमें तीन पदों पर ही तैनाती हो पाई है. वहां समाज शास्त्र की डिग्री वाली काउंसलर अरुणा यादव, मनोविज्ञान की डिग्री वाली निर्मला सिंह, और स्टाफ नर्स मोहित सिंह.
मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. पी.पी. सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी किए हैं. हम आम तौर पर मरीजों को इलाज के लिए सैफई (35 किमी. दूर) से आगरा (120 किमी. दूर) तक रेफर करते हैं.’
मरीजों के लिए बुनियादी सुविधाओं का ही अभाव नहीं है, बल्कि ज्यादातर अस्पताल कोविड की भयावह दूसरी लहर के बाद मानसिक रोगियों की देखभाल के लिए तैयार नहीं थे.
प्रयागराज में मोतीलाल नेहरू संभागीय अस्पताल में क्लीनिकल मनोरोग विज्ञानी डॉ. ईशान्या राज का कहना है कि पहली लहर के दौरान वित्तीय दिक्कतों, लॉकडाउन से तालमेल बिठाने और आपसी संबंधों की समस्याओं का सामना कर रहे लोगों ने हमसे संपर्क किया. लिहाजा, कई मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर लोगों ने मिलकर टेली-काउंसलिंग की शुरुआत की. केंद्र और राज्य सरकारों ने भी हेल्पलाइन नंबर जारी किए.
राज कहती हैं, ‘लेकिन दूसरी लहर भारी तबाही लेकर आई. मरीजों को खुदकुशी करने से रोकना था. जिला अस्पतालों के ओपीडी में पहुंचने वाले अनेक लोगों को मदद की बेतरह दरकार थी.’
प्रयागराज अस्पताल में अनिवार्य आठ की जगह चार मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर हैं. हफ्ते में तीन दिन सोमवार, बुधवार और शुक्रवार तो ओपीडी में खर्च हो जाते हैं. बाकी दिन हेल्थ क्लीनिक, कॉलेज, स्कूल, जेल और दफ्तरों के दौरों में गुजर जाते हैं.
इस हफ्ते अच्छे-खासे मध्यवर्गीय परिवार की 23 वर्षीय के. काउंसलिंग के तीसरे सत्र के लिए इंतजार कर रही है. उसके मां-पिता महीने भर पहले वार्ड में आए थे, जब एक प्राइवेट मनोचिकित्सक ने संभागीय अस्पताल में जाने की सलाह दी थी. उन्हें बताया गया था कि उसका मामला ‘गंभीर’ है.
उसे देखने वाले डॉ. राकेश पासवान कहते हैं, ‘छह महीने पहले जब वह मतिभ्रम का शिकार होने लगी तो उसकी समस्या का पता चाला. उसने हमसे कहा कि उसे चारों ओर कोरोना में मारे गए लोग दिखते हैं, और उसे डर लगा रहता है कि उसका नंबर अगला है.’
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘उसने कोविड के डर से बाहर का कुछ भी खाना-पीना छोड़ दिया. प्राइवेट मनोचिकित्सक ने कुछ दवाइयां लिखीं लेकिन उसने लेने से मना कर दिया क्योंकि दवाइयां भी बाहर से खरीद कर लाई जाती हैं.’
कई मानसिक मरीज ऐसे हैं, जिनकी पुरानी समस्याएं बढ़ गईं और महामारी के दौरान बड़ी बीमारी में बदल गईं.
23 वर्षीय कॉलेज छात्र अभय को देख रहे डॉ. पासवान ने कहा, ‘ज्यादातर अनिद्रा, अनिश्चय, डर, दुश्चिंता और अवसाद की शिकायत लेकर आते हैं.’ अभय पहले स्मार्टफोन की लत की वजह से अस्पताल आया था.
अभय के हाथ और पैर कांप रहे हैं. वह मुझसे कहता है, ‘मैं दिन में 15 घंटे फोन पर ही बिताता था.’
मैनपुरी लौटते हैं. वहां कोई मनोचिकित्सक नहीं है. इसलिए जे.जे. राम अस्पताल के आम डॉक्टर ही बेचैनी और अवसाद के मरीजों को देखते हैं. वे मरीजों से अच्छा संतुलित भोजन लेने को कहते हैं और नींद तथा बेचैनी की की गोलियां लेने को कहते हैं. वे उन्हें कहते हैं, ‘घबराने की कोई जरूरत नहीं है.’
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मनोचिकित्सकों और मनोरोग विज्ञानियों की भारी कमी
हर प्राकृतिक आपदा या महामारी बड़ी संख्या में लोगों पर मानसिक असर छोड़ जाती है क्योंकि लोग अपनों की कमी, वित्तीय समस्याओं और अनिश्चितता से जूझते हैं. भोपाल गैस हादसे में बच गए लोगों को दशकों तक मानसिक परेशानियां ढेलनी पड़ी. ओडिशा में चक्रवात फणि भी बेचैनी, अवसाद और सदमा छोड़ गया.
लेकिन मैनपुरी जैसे जिलों में किसी पेशेवर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की तलाश काफी मुश्किल है और उससे सिस्टम की लंबी-चौड़ी खाई का अंदाजा लगता है.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के 2018 में संसद दिए जवाब के मुताबिक, ‘देश में जरूरी 20,250 मनोचिकित्सकों की जगह 898 मनोचिकित्सक ही हैं. मनोरोग सामाजिक कार्यकर्ताओं की जरूरत 37,000 की है, मगर 900 से कम ही हैं और 3,000 मनोरोग नर्सों की जगह 1,500 ही हैं.’
लैंसेट के एक अध्ययन से पता चलता है कि कोविड ने अवसाद और बेचैनी के मामलों को बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया है. भारत में ऐसे मामलों में 35 प्रतिशत का इजाफा हुआ. 2020 में ‘बेचैनी के मामले 7.62 करोड़ थे और गंभीर अवसाद के 5.32 करोड़ मामले अतिरिक्त थे.’
आगरा के अतिरिक्त मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. यू.बी. सिंह का कहना है कि सामाजिक कलंक भी बड़ी वजह है. वे कहते हैं, ‘ग्रामीण और अद्र्धग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य की बात भी करने वाला कोई नहीं.’
डॉ. सिंह यह भी कहते हैं, ‘मेंटल हो गया है. पागल है. मेडिकल मदद लेने वालों को अमूमन ऐसी ही उपाधियों से मढ़ दिया जाता है. मुझे लगता है कि हमसे नहीं संपर्क करने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है.’
हालांकि डॉ. विभा नागर जोर देकर कहती हैं कि छोटे शहरों में कम से कम मध्यवर्ग स्वीकार करने लगा है कि गहरा दुख है.
दुख, पछतावा और सदमा
मेरठ हालात चिंताजनक है. 2011 की जनगणना के मुताबिक 34 लाख की आबादी वाला, राष्ट्रीय राजधानी के काफी करीब इस कस्बे में महज कुछेक दर्जन मनोचिकित्सक और मुट्ठी भर क्लीनिकल मनोरोग विशेषज्ञ ही हैं. वहां महामारी के दौरान मानसिक परेशानियों के लिए मेडिकल मदद चाहने वाले लोगों में भारी इजाफे को झेलने की कोई तैयारी नहीं है.
अप्रैल-जून 2020 में मेरठ जिला अस्पताल में 158 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 16 गंभीर मानसिक बीमारी के शिकार थे और तीन के तो खुदकुशी कर लेने का खतरा था. अप्रैल-जून 2021 में संख्या बढक़र 949 हो गई, जिनमें 174 गंभीर मानसिक रोग से ग्रस्त थे और 17 के खुदकुशी कर लेन का खतरा था.
मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी. सितंबर 2021 में वहां 3,354 मामले हो गए, जिनमें 452 गंभीर मानसिक रो से पीडि़त और 30 मरीजों के खुकुशी कर लेने का खतरा था.
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत क्लीनिकल मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. विभा नागर ने द प्रिंट को बताया, ‘अपने प्रियजनों के मर जाने के बाद वे दुख और पछतावे को बर्दाश्त नहीं कर पाए. वे अस्पताल में विस्तर की तलाश में यहां-वहां भटके. अब संभावित तीसरी लहर का डर है और इससे यहां कई मामले बढ़ गए हैं.’
वे सदमे और डर से पीडि़त 67 साल के एक आदमी की काउंसलिंग कर रही हैं. कोविड की दूसरी लहर के दौरान वायरस को लेकर उन्होंने इतनी खबरें देखी-सुनी कि उनके आंखों के सामने लाल वायरस की छवियां डोलने लगीं. टीवी पर दिखाए गए ग्राफिक उन्हें असली जान पड़ते. वे वीडियो काउंसलिंग सत्र के दौरान रोने लगे और कहने लगे कि वे रात में बाथरूम नहीं जा सकते क्योंकि उन्हें डर है कि वायरस वहां उनका इंतजार कर रहा है.
डॉ. नागर मुझसे कहती हैं, ‘मैंने उनकी आंखें लाल देखीं. उन्हें नींद नहीं आती. उन्होंने अखबार पढऩा बंद कर दिया और उन्हें डर के दौरे पड़ते हैं.’
एक 45 साल की कॉलेज लेक्चरार ने कोविड में अपनी मां को गंवा दिया. इससे वे बुरी तरह निराश हो गई हैं. अब उन्हें इंसानियत में भरोसा नहीं रहा और मृत्य के लिए खुद दोषी मानती हैं.
कोविड की दूसरी लहर के बाद नागर और दूसरे क्लीनिकल मनोरोग विशेषज्ञों, मनोचिकित्सकों और काउंसलरों के पास हर रोज आने वाले फोन कॉल से अस्पताल के रजिस्टर में दर्ज मामले काफी कम हैं.
नागर कहती हैं, ‘मेरा फोन 24 घंटे बजता रहता है.’
मेरठ जिला अस्पताल की मानसिक स्वास्थ्य टीम ने हाल ही में राजस्थान के एक कारोबारी को पूरे परिवार के साथ खुदकुशी करने से बचाया. ‘उन्हें बताना पड़ा कि क्यों उन्हें और उनके परिवार को जिंदा रहना चाहिए.’
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