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Saturday, 21 December, 2024
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नीले आसमान और हरे-भरे पहाड़ों के बीच बसी उत्तराखंड की खूबसूरत बस्तियां कैसे अब भूतिया गांव बन गए हैं

चुनावी राज्य उत्तराखंड में पलायन की समस्या एक बड़ा मुद्दा है. वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग करके इस राज्य का गठन पहाड़ी क्षेत्रों के समान विकास के उद्देश्य के साथ किया गया था.

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टिहरी गढ़वाल: सूने पड़े घर-आंगन, वीरान घरों में रेंगते तमाम छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े और पुरानी पड़ चुकी दीवारों से झड़ती धूल-मिट्टी, कुछ ऐसा ही नजारा है उत्तराखंड के पहाड़ी जिले टिहरी गढ़वाल के कई ‘भूतिया’ गांवों में से एक गनगर का.

नीले आसमान और हरी-भरी घाटी वाले खूबसूरत नजारे के बावजूद इस गांव में खुशहाल जीवन तो अब बस एक कल्पना बनकर रह गया है, यहां से बड़ी संख्या में लोग ‘बेहतर जीवन’ की तलाश में बड़े शहरों में जाकर बस चुके हैं.

दिप्रिंट ने 5 फरवरी को जब इस गांव का दौरा किया तो पाया कि खाली पड़े घरों में कुछ बच्चे खेल रहे हैं जबकि कुछ ग्रामीण एक मंदिर में पूजा के लिए एकत्र हैं. यह मंदिर ही अब गनगर में इस्तेमाल होने वाली एकमात्र ऐसी इमारत है जिसे ‘जीवंत’ कहा जा सकता है. क्योंकि यहां के अधिकांश निवासी पास ही स्थित घनसाली विधानसभा क्षेत्र के बधरी गांव में रहने लगे हैं. कारण है? बेहतर सड़क संपर्क, स्वास्थ्य सुविधाएं और रोजगार के अवसर.

A view of the picturesque valley from Gangwar village | ThePrint photo by Suraj Singh Bisht
गनगर गांव का दृश्य | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

चुनावी राज्य उत्तराखंड में पलायन की समस्या एक बड़ा मुद्दा है. वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बना यह राज्य पहाड़ी जिलों के समान विकास के उद्देश्य के साथ से अस्तित्व में आया था.

बहरहाल, चुनावों को लेकर सियासी घमासान के बीच यह मुद्दा उठाने वाले स्थानीय लोगों की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है.

यद्यपि, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार पलायन की समस्या हल करने के प्रयास पहले ही शुरू कर चुकी है और कांग्रेस ने फिर सत्ता में आने पर इसे ‘प्रमुख लक्ष्य’ बनाने का वादा किया है. वहीं स्थानीय लोगों ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि राजनेता केवल जुमलेबाजी कर रहे हैं, जबकि इस दिशा में बहुत काम किया जाना बाकी है.

इस पर जोर देते हुए कि उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं बल्कि मजबूरी में पलायन किया है, गनगर और आसपास के क्षेत्रों के कई लोगों का मानना है कि अगर सरकार इन निर्जन गांवों की स्थिति रहने लायक बनाने के लिए कमर कस ले तो मजबूरन पलायन को रोका जा सकता है और जो लोग पलायन कर गए हैं, वे भी वापस आ सकते हैं.


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‘पलायन उत्तराखंड के लिए एक भावनात्मक मुद्दा’

सितंबर 2017 में पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने पिछले 10 वर्षों में राज्य से हुए पलायन के बारे में व्यापक अध्ययन के लिए एक पलायन आयोग का गठन किया था.

आयोग ने 2018 के एक सर्वेक्षण में बताया कि 2011 के बाद से राज्य के 734 और गांव निर्जन हो गए हैं और उन्हें अक्सर ‘भूतिया गांव’ कहा जाता है.

सामाजिक कार्यकर्ता और देहरादून स्थित सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज (एसडीवी) फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल के मुताबिक, राज्य में 2011 तक ‘भूतिया गांवों’ की संख्या 1,034 थी.

नौटियाल ने कहा, ‘पलायन उत्तराखंड के लिए भावनात्मक मुद्दा है. एक के बाद एक सरकारें आईं और गईं और आती-जाती भी रहेंगी लेकिन कोई भी इस समस्या पर काबू पाने में सफल नहीं रहा.’

उनके मुताबिक, उत्तराखंड से रोजाना औसतन 138 लोग पलायन करते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘पलायन करने वालों की दो श्रेणियां हैं— एक अभी भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए अर्ध-प्रवासी और स्थायी रूप से बाहर जाकर बस गए स्थायी प्रवासी.’


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स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की स्थिति बदतर, बेरोजगारी बड़ा संकट

गनगर गांव के प्रधान सुनील सेमवाल के मुताबिक, रोजगार के अवसरों की कमी, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की बदतर स्थिति ने लोगों को यहां से पलायन के लिए मजबूर किया है.

सेमवाल ने दिप्रिंट से कहा, ‘लोगों के पलायन के पीछे बेरोजगारी और खराब स्वास्थ्य सेवाएं दो मुख्य कारण हैं. उन्होंने कभी भी खुशी-खुशी ऐसा नहीं किया, बल्कि हालात से मजबूर होकर यह कदम उठाना पड़ा. अस्पताल बहुत दूर हैं, आसपास स्कूलों की भी व्यवस्था नहीं थी और फिर जंगली जानवरों का खतरा एक अलग ही समस्या है.’

A desolate road in Gangwar village | ThePrint photo by Suraj Singh Bisht
सूना पड़ा गनगर गांव | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

सेमवाल ने दावा किया कि जनप्रतिनिधियों ने गनगर पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया और सभी सरकारी योजनाएं केवल कागजों पर सिमटकर रह गईं. उन्होंने कहा, ‘लोग रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. यहां तक कि हर महीने 10 से 15 हजार रुपये वाली नौकरियों के लिए भी यहां से पलायन कर रहे हैं. इस गांव में कोई व्यक्ति नहीं रहता है. अधिकांश लोग बधरी गांव जाकर बस गए हैं.’

हालांकि, सेमवाल का मानना है कि सरकार अब भी पलायन रोकने के प्रयास कर सकती है. उन्होंने कहा, ‘स्थानीय लोगों के लिए माल्टा और अमरूद उगाने से लेकर और भी तमाम तरह के अवसर पैदा किए जा सकते हैं. लोगों के एक समूह ने एक गोशाला शुरू की है, जो कुछ लोगों को रोजगार का मौका दे रही है. इसलिए, अगर सरकार वास्तव में इसे लेकर गंभीरता से प्रयास करे तो पलायन को रोका जा सकता है.’

इन भूतिया गांवों में जीवन इतना कठिन रहा है कि बीमारों और बुजुर्गों को खाट या लकड़ी की कुर्सियों पर उठाकर मुख्य सड़क तक ले जाना पड़ता था.

गनगर से घनसाली के दूसरे गांव में जाकर बस गए शुभंकर जुयाल कहते हैं, ‘हमारा पुराना घर यहां (गनगर गांव में) है. हम मुख्य शहर के करीब आकर बस गए क्योंकि वहां कोई कनेक्टिविटी नहीं थी और किसी के अचानक बीमार होने पर हमें बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता था. आज जो सड़क आपको दिख रही है, वो कुछ साल पहले ही बनी है. यदि सरकार जरूरी सुविधाएं मुहैया कराए तो जो लोग यहां से पलायन कर गए हैं, वे भी लौट सकते हैं.’

गनगर गांव में सबसे नजदीकी सरकारी अस्पताल लगभग 7-8 किलोमीटर दूर है और एक निजी अस्पताल गांव से करीब 5-6 किलोमीटर की दूरी पर है. शुभंकर ने कहा, ‘मेरे नए घर से यह केवल एक किलोमीटर दूर है, इसलिए वहां जाना आसान है. गनगर से अस्पताल पहुंचाए जाने से पहले ही कई मरीजों की मौत हो जाती थी.’

गनगर गांव के पूर्व निवासी 65 वर्षीय पृथ्वी धर जोशी ने कहा कि उन्हें भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उचित सड़क और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में उन्हें अपने परिवार के सदस्यों को अस्पताल पहुंचने के लिए चारपाई का सहारा लेना पड़ता था.

उन्होंने कहा, ‘हम भी शिफ्ट हो गए क्योंकि बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं. आपको आज यह जो सड़क दिखाई दे रही है, वह तब नहीं हुआ करती थी जब हम यहां रहते थे. किसी के अचानक बीमार होने पर हम लोगों को उसे चारपाई पर लेकर जाना पड़ता था.’

इसी जिले के नौली गांव में भी यही समस्या है. दिप्रिंट ने ग्राम प्रधान आदित्य नारायण जोशी से मुलाकात की, जो अब चिनियाल गांव में रहने लगे हैं. उन्होंने कहा, ‘पलायन का एक प्रमुख कारण स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है. शिक्षा के मामले में भी हम काफी पिछड़े हुए हैं. हमारे यहां सड़क और बुनियादी ढांचे का भी अभाव है. कुछ जगहों में तो हमारे पास सड़कें भी नहीं हैं, इसलिए यात्रा करना एक दुरूह कार्य हो जाता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर कोई बीमार पड़ता है या किसी गर्भवती महिला का प्रसव होना होता है, तो हमें उन्हें मुख्य सड़क तक डंडी कंडी (चार लोगों द्वारा एक रस्सी के सहारे ढोना) पर ले जाना पड़ता है, इसके बाद ही उन्हें अस्पताल तक पहुंचाया जा सकता है.’

A woman carrying branches trudges up a steep road in Gangwar village in in Ghansali assembly constituency | ThePrint photo by Suraj Singh Bisht
घंसाली विधानसभा के गनगर गांव में कंधे पर बोझ लेकर जाती हुई एक महिला | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

हालांकि, आदित्य नारायण का मानना है कि अगर युवाओं के पास नौकरी और स्वास्थ्य और शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था हो तो लोग शहरों की ओर या देश के बाहर नहीं जाना चाहेंगे और न ही उन्हें ‘चुनौतियों का सामना’ करना पड़े.

गनगर से पलायन कर चुकी सीमा बिष्ट का कहना है कि वहां महिलाओं की तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है, खासकर गर्भावस्था के दौरान. उन्होंने कहा, ‘समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने का जोखिम हमेशा बना रहता है. सड़कें एकदम सीधी ढलान वाली हैं.’


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एक प्रमुख चुनावी मुद्दा

महज कुछ दिनों बाद 14 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव में पहाड़ी क्षेत्र से लोगों का पलायन चर्चा का प्रमुख मुद्दा बना हुआ है. पिछले हफ्ते दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने स्वीकार किया था कि यह एक बड़ा मुद्दा है जिसका समाधान निकालना जरूरी है.

धामी ने यह भी कहा कि सरकार पहाड़ी क्षेत्र में बुनियादी ढांचा और आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने पर पहले से ही काम कर रही है.

उन्होंने कहा, ‘जिन अस्पतालों में डॉक्टर नहीं होते थे, उनकी क्षमता अब तीन गुना बढ़ गई है. हमने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोलने की प्रक्रिया भी शुरू की है. पलायन एक अहम मुद्दा है और हम इस पर काम कर रहे हैं. हमारी सरकार ने पलायन आयोग बनाया है.’

धामी ने आगे कहा, ‘पलायन तभी रुकेगा जब पहाड़ी जिलों में दूरदराज के इलाकों में रहने वालों को अपने घरों के पास रोजगार और नौकरी मिल पाएगी. नौकरी न हो तो भी उन्हें खुद का व्यवसाय चलाने के अवसर मिलने चाहिए. इसके लिए हमने विभागों से 10 साल की योजना तैयार कर सुझाव देने को कहा है. हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे और निश्चित तौर पर पलायन की समस्या पर काबू पाया जा सकेगा.’

वहीं, प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के उपाध्यक्ष पृथ्वीपाल चौहान ने दिप्रिंट से कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो पलायन को रोकना एक ‘प्रमुख लक्ष्य’ होगा.

उन्होंने कहा, ‘पलायन राज्य के लिए एक गंभीर मुद्दा रहा है. हमें स्वास्थ्य जैसी सेवाएं, रोजगार के पर्याप्त साधन और बुनियादी ढांचा आदि मुहैया कराना होगा. 2014 से 2017 के बीच हरीश रावत के नेतृत्व वाली पूर्व कांग्रेस सरकार ने पलायन रोकने के उद्देश्य से कई योजनाएं शुरू की थी. हालांकि, 2017 में सत्ता में आने के बाद भाजपा ने इन योजनाओं की अनदेखी कर दी. कांग्रेस फिर सत्ता में आई तो तो हमारी सरकार अपनी योजनाएं फिर शुरू करेगी और राज्य से पलायन रोकने के लिए नए कार्यक्रमों की भी शुरुआत करेगी.

हालांकि, एसडीवी के संस्थापक अनूप नौटियाल ने दावा किया कि ‘राजनीतिक रूप से हमारे पहाड़ों की स्थिति कमजोर हो रही है.

उन्होंने कहा, ‘मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 2002 और 2007 के चुनावों में नौ पहाड़ी जिलों में 40 सीटें होती थीं लेकिन परिसीमन के बाद ये घटकर 34 रह गईं, जबकि मैदानी इलाकों में यह संख्या बढ़कर 36 हो गई. महिलाओं की भागीदारी देखें तो 70 सीटों (उत्तराखंड विधानसभा में कुल सीटें) में से 37 सीटों पर पुरुषों की तुलना में ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया. इनमें से पहाड़ी जिलों की 34 सीटों में से 33 में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया. क्यों? क्योंकि उन जिलों में पुरुषों की संख्या नगण्य ही है! वे बेहतर अवसरों की तलाश में पलायन कर गए हैं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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