नारनौल/महेंद्रगढ़: गुरुग्राम के आखिरी मॉल को पीछे छोड़ते हुए जैसे-जैसे आप दक्षिण हरियाणा में आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे आपका स्वागत खेतों में सरसों काट रहे किसान, हाइवे पर दौड़ती स्कूलों बसों से झांकते बच्चे और खेतों में खड़ी स्कूलों की विशाल इमारतें करती हैं. सड़कों के किनारे वाले पेड़ों पर लगे बड़े-बड़े पोस्टरों पर महेंद्रगढ़ जिले के स्कूल टॉपर्स के चेहरे चमक रहे हैं.
लेकिन इन इमारतों के बनने के दशकों पहले इस इलाके को दूसरे जिले के लोग ‘काला-पानी’ कहकर संबोधित करते थे. अंग्रेजों के जमाने में काला-पानी, अंडमान एवं निकोबार में एक जेल को कहा जाता था जहां सजा के तौर पर भारतीयों को रखा जाता था. महेंद्रगढ़ के लोग मानते हैं कि नौकरशाहों ने भी इस जिले को ये उपाधि देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस बात का जिक्र पूर्व आईएएस राम वर्मा अपनी किताब ‘थ्री लाल्स ऑफ हरियाणा’ में भी करते हैं.
वो बताते हैं कि कैसे 1970 के दशक में नए आईएएस अधिकारियों को सजा के तौर पर नारनौल-महेंद्रगढ़ भेजा जाता था. वो अपना निजी अनुभव साझा करते हुए लिखते हैं कि रोहतक से शुरू हुआ उनका सफर नारनौल तक आते-आते कच्ची सड़कों और बच्चे गोद में लिए मटके से पानी भरती औरतों तक पहुंच जाता था.
लेकिन दशकों बाद आज भी इस जिले की हालत के बारे में सेंट्रल यूनिवर्सिटी (महेंद्रगढ़) में दूसरे राज्य से पढ़ने आए एक छात्र ने कहा, ‘यहां एक कॉफी पीने की दुकान नहीं है. उसके लिए भी गुरुग्राम जाना पड़ेगा. हां, कुछेक किलोमीटर की दूरी पर आपको खेतों के बीच स्कूलों की बड़ी बिल्डिंग जरूर मिल जाएंगी.’
डॉक्टर राजेंद्र सिंह, ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर (अटेली) दिप्रिंट को बताते हैं, ‘370 गांवों वाले महेंद्रगढ़ जिले में करीब 350 प्राइवेट स्कूल हैं.’
सिंह आगे जोड़ते हैं, ‘जिले में सरकारी प्राइमरी, मिडिल और सीनियर सेकेंडरी स्कूलों की संख्या 750 हैं.’ प्राइवेट स्कूलों के बड़े स्तर पर फलने फूलने को लेकर वो बताते हैं, ‘ये इलाका आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं रहा है. फौज और किसानी, यहां दो मुख्य प्रोफेशन हैं. जब इलाके के कुछ बड़े स्कूलों के रिजल्ट्स को लेकर आपसी कॉम्पिटिशन बढ़ा तो उनको देखकर छोटे प्राइवेट स्कूलों का भी विस्तार होता गया.’
दिप्रिंट की इस रिपोर्ट के जरिए हम पिछड़ेपन और रेतीले टीबों से पहचाने जाने वाले महेंद्रगढ़ जिले को स्कूलों के हब के तौर पर उभरने के सिलसिले के बारे में जानेंगे. महेंद्रगढ़ जिले का ये कायाकल्प क्या किसी सामाजिक कार्यकर्ता के योगदान से संभव हुआ या सरकार के प्रयास काम आए या फिर चंद व्यवसायियों की आपसी प्रतिस्पर्धा और राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का नतीजा था?
एक शराब के कारोबारी से शुरू हुआ शिक्षा का सफर
1995 में महेंद्रगढ़ जिले में बुचौली रोड पर यदुवंशी नाम के एक प्राइवेट स्कूल की नींव रखी गई. किसान परिवारों ने एक बड़े स्कूल को बनते पहली बार देखा. इसे शुरू करने वाले हरियाणा की सीमा से लगते राजस्थान के एक गांव के राव बहादुर सिंह थे. दिप्रिंट से हुई बातचीत में बहादुर सिंह बताते हैं, ‘मैं कम पढ़ा-लिखा था. लेकिन मुझे लगता था कि अगर अच्छी शिक्षा मिले तो ये इलाका भी तरक्की कर सकता है. एक राजेंद्र नाम के व्यक्ति की सलाह पर मैंने इसकी शुरुआत कर दी. भले ही व्यापारी और नौकरशाही के लोग इस जिले की उपेक्षा करते हैं.’
वो आगे कहते हैं, ‘साल 1998 में मेरे स्कूल के चार बच्चों ने मेडिकल का एग्जाम क्लियर किया. ये बच्चे किसान परिवारों के थे. इससे पहले किसानों को ये विश्वास था कि सिर्फ डॉक्टर का बच्चा ही डॉक्टर नहीं बन सकता है. उसके एक साल बाद 12 बच्चों ने मेडिकल एग्जाम क्लियर किया. यदुवंशी की सफलता देखते हुए अचानक ही महेंद्रगढ़ जिले में स्कूलों की लाइन लग गई. इन स्कूलों के मालिक कोई धन्ना सेठ नहीं थे बल्कि साधारण लोग ही थे. पिछले एक दशक में ये जिला स्कूलों का हब बनकर उभर गया.’
महेंद्रगढ़ से शुरू हुए यदुवंशी शिक्षा निकेतन के आज पूरे हरियाणा 13 स्कूल हैं. यदुवंशी के बाद आरपीएस, सूरज, हैप्पी एवरग्रीन, टैगोर, श्री कृष्णा, यूरो इंटरनेशनल, डीपीएस जैसे इलीट स्कूल हैं जिनमें ना सिर्फ महेंद्रगढ़ के किसानों के बच्चे पढ़ रहे हैं बल्कि दिल्ली, गुरुग्राम, पिलानी, गाजियाबाद और चंडीगढ़ से भी बच्चे पढ़ने आ रहे हैं.
‘प्राइवेट स्कूलों की आपसी प्रतिस्पर्धा ने बनाया स्कूलों का हब’
राजेंद्र सिंह के मुताबिक हरियाणा बोर्ड के परीक्षा नतीजों में महेंद्रगढ़ टॉप पांच जिलों की सूची में रहता है. वो बताते हैं कि एनसीआरटी द्वारा राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की जाने वाली एनटीएसई (नेशनल टैलेंट सर्च ऑर्गेनाइजेशन) में पिछले पांच साल से 50 फीसदी छात्र महेंद्रगढ़ से रहे हैं. एनटीएसई को वो मिनी आईएएस एग्जाम की उपाधि देते हैं. यही कारण है कि जिले के 60 फीसदी बच्चे प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेते हैं.
हरियाणा के शिक्षा मंत्री कंवर पाल गुज्जर दिप्रिंट के साथ हुए साक्षात्कार में इस बात को स्वीकारते हैं कि पिछले पांच साल में मैरिट के आधार पर हुई भर्तियों में महेंद्रगढ़ जिले का प्रदर्शन शानदार रहा. वो कहते हैं, ‘इस इलाके में पानी की किल्लत रही है. इसलिए यहां के लोग भारी संख्या में आर्मी में गए. वहीं से इस इलाके का रूझान शिक्षा की तरफ बढ़ा और इस क्षेत्र में ये जिला अच्छा कर भी रहा है.’
हरियाणा बोर्ड के 10वीं के पिछले तीन साल के नतीजों की सूची में महेंद्रगढ़ 2017 में पहले, 2018 में दूसरे और 2019 में चौथे नंबर पर रहा. 12वीं के नतीजों में महेंद्रगढ़ साल 2017 में तीसरे, 2018 में चौथे और 2019 में 8वें नबंर पर रहा. पिछले साल ही श्रीकृष्ण स्कूल की मुस्कान यादव साइंस स्ट्रीम में 98.4 नंबर लाकर सीबीएसई की साउथ हरियाणा टॉपर बनीं.
एनसीआर के लोगों की रुचि क्यों बढ़ी?
बेहतरीन रिजल्ट, उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन और सख्त हॉस्टल नियम, दिल्ली एनसीआर के लोगों को महेंद्रगढ़ के स्कूलों की तरफ खींचते हैं. ब्लॉक ऑफिसर मानते हैं कि 2010 के बाद ये रुझान बढ़े हैं. आरपीएस, श्रीकृष्णा, सूरज और यदुवंशी जैसे स्कूलों में हजारों बच्चे बाहरी क्षेत्रों से आकर हॉस्टलों में रह रहे हैं. यूरो इंटरनेशनल स्कूल ने हॉस्टल सुविधा कुछ साल पहले बंद कर दी थी. कई स्कूलों के मुताबिक हॉस्टल में बच्चे होमोसेक्सुआलिटी जैसी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे इसलिए उन्होंने हॉस्टल बंद कर दिए. हालांकि ज्यादातर स्कूलों ने अपने हॉस्टलों में ड्रग्स, रैगिंग या होमोसेक्सुआलिटी जैसी किसी बात से इंकार किया.
गुरुग्राम के अत्याधुनिक स्कूलों को छोड़कर आरपीएस स्कूल के हॉस्टल में रह रही 12वीं क्लास की श्रेया यादव कहती हैं, ‘मेरे माता-पिता यहां के रिजल्ट्स से प्रभावित हुए थे. इसलिए मेरे भाई को भी यहीं पढ़ाया. इलाका पिछड़ा है लेकिन अपने भविष्य के लिए कुछ साल का बलिदान दिया जा सकता है. यहां का माहौल सख्त है जैसे लड़कियां, लड़कों से बात नहीं कर सकतीं.’
आरपीएस स्कूल की प्रिंसिपल डॉक्टर सरिता कहती हैं, ‘हमारे टॉप रिजल्ट और सख्त नियम ही पैरेंट्स को प्रभावित करते हैं. इन्फ्रास्ट्रक्टर में यहां के स्कूल नंबर वन हैं लेकिन हम बच्चों को हॉस्टल में इंटरनेट से दूर रखते हैं. कोटा की तरह यहां ‘कट थ्रोट कंपीटिशन’ की बजाय ‘हेल्दी कंपीटिशन’ है तो एनसीआर के लोगों की दौड़ अब महेंद्रगढ़ आकर भी खत्म हो रही है.’
कई अभिभावक अपने शरारती बच्चों को दंडित करने के तौर पर भी इस इलाके में भेज रहे हैं. जैसे दिल्ली के गगन आर्या आरपीएस में 12वीं के छात्र बताते हैं, ‘मेरे माता-पिता विज्ञापन से प्रभावित हुए. दिल्ली में पढ़ा सकते थे लेकिन मैं शैतानियां ज्यादा करता था तो मुझे यहां हॉस्टल में भेज दिया.’
लड़कियों और गरीब किसान परिवारों के प्रतिभाशाली बच्चों के लिए ये स्कूल अलग से स्कॉलरशिप भी देते हैं. उनकी फीस में कटौती कर उन्हें पढ़ाते हैं. ये बच्चे इन स्कूलों की उन टॉपर्स की लिस्ट में छा जाते हैं जिन्हें देखकर दूसरे जिलों के पैरेंट्स प्रभावित होते हैं. मध्यमवर्गीय आय वाले किसान परिवार फसल की पैदावार के हिसाब से साल में एक या दो हिस्सों में (इंस्टॉलमेंट) फीस भरते हैं.
स्कूलों के हब से पनपी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं?
लोग मानते हैं कि अहीरवाल क्षेत्र के कद्दावर नेता राव इंद्रजीत के प्रभाव को कम करने के लिए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने दूसरे नेताओं को मौका दिया. इंद्रजीत पर आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अपनी राजनीति के चलते क्षेत्र में दूसरे राजनीतिक चेहरों को उभरने नहीं दिया. लेकिन हाल ही के कुछ वर्षों में स्कूल के कारोबार में लगे लोगों ने राजनीति में दिलचस्पी दिखाई है. जैसे यदुवंशी ग्रुप के हेड राव बहादुर सिंह ने 2009 में हरियाणा विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता. उन्होंने 2014 में लोकसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन मोदी लहर के चलते हार गए. पहले वो इनेलो के सदस्य थे लेकिन पार्टी में चली फूट के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए.
ऐसा ही यूरो इंटरनेशनल स्कूल की डायरेक्टर स्वाति यादव ने किया. उन्होंने 2019 लोकसभा चुनाव जेजेपी पार्टी से लड़ा लेकिन बाद में वो हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा पार्टी में शामिल हो गईं. उनके पिता कभी इनेलो पार्टी से जुड़े रहे हैं.
आरपीएस ग्रुप ऑफ स्कूल के मनीष यादव भी खुद को 2019 के हरियाणा के विधानसभा चुनाव में टिकटार्थी के तौर पर देखते थे. उन्होंने मनोहर लाल खट्टर की रथ यात्रा के दौरान एक बड़ा कार्यक्रम भी किया था लेकिन उन्हें भी टिकट नहीं मिल सका था. श्री कृष्णा स्कूल के मैनेजिंग डाटरेक्टर करमवीर राव ने भी विधानसभा चुनाव के दौरान खट्टर की रैली में शामिल हुए थे.
हालांकि इनमें से ज्यादातर बात करने पर राजनीतिक महत्कांक्षाओं को अपनी प्राथमिकता नहीं बताते हैं. राव बहादुर कहते हैं, ‘राजनीति से ज्यादा मुझे शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रुचि है.’
ज्योति आपकी पत्रकारिता अमूमन अच्छी रहती है लेकिन आपको बातों में कुछ बातें उसी विमर्श का हिस्सा होती है जो उच्च जातीय वर्चस्व वाले पत्रकार करते है । क्या किसान और ग़रीब किसान वाला वर्गीय विश्लेषण एक जानकारी बढ़ाने से ज़्यादा कुछ है।आपको पता है की भूमि सुधार को ढंग से लागू न करने के कारण जमीं का बड़ा हिस्सा केवल जाट अहिर आदि को मिला जो अपने आप को किसी सामंत से कम नहीं मानते ।चौटाला हुड्डा भजनलाल बीरेंद्र इंदरजीत ये सब अपने आपको किसान ही कहकर बहकाते है और इनके पास काफ़ी ज़मीं है जबकि इनके खेत में काम भूमिहीन दलित करते है ।उनकी पैदावार की बचत से ही इनकी राजनीति शुरू हुई थी और न जाने कितने नेता आज भी क्रेडिट कार्ड के सस्ते लोन से गाँव में भूमिहीनों से ना केवल खेतों में काम ले रहे बल्कि उसी लोन के पैसे को गाँव में ज़्यादा ब्याज पे दे रहे है । ये है किसान के नाम पर उभरे नवसामंत वर्ग की दास्ताँ जो आज भी किसान शब्द की ग़लत व्याख्या का फ़ायदा उठा रहे है ।अब आप ही तय करें की किसान है कौन
उत्तर का इंतज़ार……8053714818
Very best story
हकीकत से दूर, ख्याली पुलाओं के बीच का सुनहरा रास्ता, किसी को लुभाने के लिए अच्छी कहानी है, पर हकीकत से कोसों दूर, कहानी अच्छी बनाई है।