नई दिल्ली: अब जबकि सात चरणों वाला लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में है. निगाहें मतदान पूर्व और बाद के सर्वेक्षणों के आधार पर चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने वाले चुनाव विश्लेषकों पर आ टिकी हैं. प्रणय राय, दोराब आर. सोपारीवाला और योगेंद्र यादव जैसे प्रसिद्ध विशेषज्ञ हों या राजनीति और आंकड़ों में मायने ढूंढने वाले अचर्चित लोग. चुनावों के दौरान उनकी व्यस्तता नेताओं और निर्वाचन अधिकारियों से कम नहीं रहती है.
रविवार 19 मई का दिन उनके लिए सबसे बड़े त्यौहार के साथ-साथ कयामत का दिन भी है. क्योंकि उस दिन एग्जिट पोल के परिणाम जारी किए जाएंगे और उनकी भविष्यवाणियां 23 मई को असली परिणाम से मिलान के लिए सबके सामने होंगी.
इन चुनाव विश्लेषकों में से कुछेक ही प्रशिक्षित पेशेवर हैं. और, उनके काम में लोगों की दिलचस्पी बढ़ने तथा डेटा माइनिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से उनकी अनुसंधान विधि काफी परिष्कृत हो जाने के बावजूद चुनाव विश्लेषक बनने के इच्छुक लोगों के लिए भारत में कोई औपचारिक कोर्स उपलब्ध नहीं है.
एमबीए और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों के अनेक युवा स्नातक राजनीति और डेटा विश्लेषण में अपनी रुचि के कारण हाल के वर्षों में चुनावों और मतदाताओं के व्यवहार के अध्ययन से जुड़े हैं.
डेटा पर आधारित हो चुनावी विश्लेषण
राजनीति और चुनावों के विश्लेषक तथा सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार कहते हैं, ‘एक अच्छा चुनाव विश्लेषक बनने के लिए राजनीतिक समझ और आंकड़ों से लगाव होना ज़रूरी है. इसके लिए कोई औपचारिक प्रशिक्षण या कोर्स उपलब्ध नहीं है, जो कि दुखद है.’
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‘पांच साल पूर्व ज़रूर कुछ विश्वविद्यालयों ने राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में ‘अंडरस्टैंडिंग इंडियन इलेक्शन्स’ नामक एक नया खंड जोड़ा था. और ऐसा, विगत में इस विषय की लोकप्रियता को देखते हुए किया गया था.’ भारत में प्रशिक्षित चुनाव विश्लेषकों की संख्या नहीं के बराबर है.
संजय कुमार आगे कहते हैं, ‘पिछले पांच वर्षों के दौरान, चुनाव विश्लेषण के क्षेत्र का तेज़ी से विस्तार हुआ है, और चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी का प्रयास करने वाले सारे लोगों को चुनाव विश्लेषकों की सूची में डालने का चलन है. भले ही उनका डेटा से वास्ता नहीं हो. पर मैं उन्हें चुनाव विश्लेषक कहने में हिचकूंगा. ये काम आंकड़ों और रिसर्च पर आधारित होना चाहिए, महज सुनी-सुनाई बातों पर नहीं.’
क्या चाहिए चुनाव विश्लेषक बनने के लिए
जेएनयू से अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषज्ञता के साथ राजनीतिक विज्ञान के स्नातक शशि सिंह ने राजनीति में दिलचस्पी और डेटा संबंधी कुशलता के कारण 2014 में इस क्षेत्र में कदम रखा था.
सिंह बताते हैं, ‘मेरे पास हर निर्वाचन क्षेत्र का जातिगत आंकड़ा है जिससे मुझे वोटिंग के ढर्रे को बेहतर समझने में मदद मिलती है. चुनाव विश्लेषक बनने के लिए बस इस बात की ज़रूरत है कि आपमें जातीय समीकरणों की समझ हो तथा राजनीति और आंकड़ों में आपकी दिलचस्पी हो.’
आईआईएम बंगलोर के ग्रेजुएट पार्थ दास के अनुसार ‘भारत में चुनाव विश्लेषक बनने के लिए एमबीए की एक सामान्य डिग्री काफी है.’ हालांकि वह ये भी जोड़ते हैं कि इस क्षेत्र में आने वालों को मार्केट रिसर्च में प्रशिक्षित होना चाहिए. पार्थ का कहना है कि चुनावी भविष्यवाणी करते समय आपको बाज़ार की चाल का विश्लेषण करने आना चाहिए और आपको पता होना चाहिए कि सोशल मीडिया पर क्या ट्रेंड कर रहा है और निवेशक क्या चाह रहे हैं.
वह कहते हैं, ‘यदि लोग किसी खास समय में पार्टी विशेष या उम्मीदवार विशेष को सर्च कर रहे हैं, तो ये एक ट्रेंड को इंगित करता है.’
इस बार के लोकसभा चुनाव में चर्चित बातों में Anthro.ai भी शामिल रहा है. ये एक वेब प्लेटफार्म है जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए प्रकाशित खबरों, जनसांख्यिकी और जनगणना के आंकड़ों, ऐतिहासिक डेटा तथा सोशल मीडिया पोस्टों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण करता है. इसे मानवविज्ञानियों, डेटा विज्ञानियों, गणितज्ञों और बाज़ार विशेषज्ञों की एक टीम संचालित करती है.
इस टीम ने विभिन्न राज्यों में खबरों, ब्लॉगों, ट्वीटों, सार्वजनिक मेसेजिंग समूहों और तस्वीरों तथा विगत के चुनावों और जनगणना के आंकड़ों के आधार पर सितंबर 2018 में अलग-अलग डेटा समूह निर्मित करना शुरू किया था. यह व्यक्तित्व और रुझान की सैंपलिंग के लिए विभिन्न तरीकों से बूथ स्तर पर करीब 150,000 रिकार्डों के तथा निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर 300,000 से 500,000 ट्वीटों के विश्लेषण का दावा करती है.
टीम ने प्रमुख राजनीतिक शख्सियतों और मुद्दों को लेकर लगातार बदलती राय को पर नज़र रखने के लिए प्रतिदिन चुनिंदा स्त्रोतों की फीड से एकत्रित 500 से अधिक खबरों का भी विश्लेषण किया.
डेटा संस्कृति का अभाव
भारत के चुनाव विश्लेषकों ने अनेकों बार सही भविष्यवाणी की है, पर कई मौकों पर वे बुरी तरह नाकाम भी साबित हुए हैं.
चुनाव विश्लेषक और सर्वे कंपनी सी-वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख कहते हैं, ‘अधिकतर लोगों ने 2004 में भाजपा को बड़ी संख्या में सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी, पर ऐसा हुआ नहीं. मध्यप्रदेश के 1998 के चुनावों में हमने दिग्विजय सिंह के नहीं जीतने की भविष्यवाणी की थी, पर दूसरे कार्यकाल के लिए वह विजयी हुए. पंजाब में 2017 में आम आदमी पार्टी की सीटों को लेकर भी हमारी भविष्यवाणी गलत साबित हुई थी.’
देशमुख के अनुसार, ‘भारत में चुनाव विश्लेषण से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या यहां डेटा संस्कृति की अनुपस्थिति है. इस व्यवसाय में शामिल अधिकतम लोगों में डेटा की इतनी समझ नहीं है कि वे सही चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी कर सकें.’
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अध्येता राहुल वर्मा ने ‘इलेक्शन्स, एग्जिट पोल्स एंड द इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ शीर्षक अपने अध्ययन में बताया है कि कैसे एग्जिट पोल स्थानीय आबादी का प्रतिनिधि सैंपल इकट्ठा करने में नाकाम रहते हैं.
वर्मा कहते हैं, ‘सैंपल का संतुलन बिगाड़ने वाली बातों में से एक है एग्जिट पोल में समाज के उच्च वर्ग से ताल्लुक रखने वाले और बात करने के लिए तैयार पुरुषों का अधिक प्रतिनिधित्व होना.’
बदलते तरीके
1990 के दशक में नील्सन, टीएनएस और जीएफके मोड जैसी मार्केटिंग रिसर्च एजेंसियों के आगमन से भारत में चुनाव विश्लेषण के क्षेत्र को बढ़ावा मिला. वर्मा ने भी अपने पेपर में इस बात की चर्चा की है.
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भारत की अधिकांश मार्केट रिसर्च कंपनियां अब अपने खुद के कर्मचारियों की भर्ती और प्रशिक्षण को तरजीह देती हैं. वो सैंपल वाले इलाकों की पहचान के लिए जीपीएस ट्रैकर का इस्तेमाल करती हैं और उन्होंने इंटरव्यू की पेपर-पेंसिल विधि (पीएपीआई) को छोड़ते हुए कंप्यूटर आधारित साक्षात्कार की प्रक्रिया (सीएपीआई) को अपना लिया है.
वर्मा ने इस बारे में दिप्रिंट को बताया, ‘कंप्यूटर आधारित ट्रेनिंग और जीपीएस के इस्तेमाल जैसी पहलों से मार्केट रिसर्च और नीतियों के मूल्यांकन संबंधी अध्ययनों में मदद मिली है. पर ये तरीका चुनावी रायशुमारियों के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है, क्योंकि ऐसे सर्वे बहुत छोटी से अवधि में और बड़े स्तर पर करने की ज़रूरत होती है.’
‘एक सामान्य एग्जिट पोल के लिए सर्वे कंपनी और साक्षात्कार करने वाले कर्मियों के बीच अधिकतम 72 घंटों का संबंध होता है. कंप्यूटर आधारित इंटरव्यू (सीएपीआई) के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भेजने-मंगाने में बहुत खर्च आता है, और इन उपकरणों में टूट-फूट का अनुपात भी अधिक होता है. इस कारण कुछ सर्वे कंपनियों ने इसकी जगह कंप्यूटर आधारित टेलीफोन साक्षात्कारों (सीएटीआई) के विकल्प को अपना लिया है.’
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