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रविवार, 11 मई, 2025
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कैसे सिखों, गुर्जर-बकरवालों ने कश्मीर में LoC पर नागरिकों की जान बचाने की कमान संभाली

ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब नियंत्रण रेखा से लगे इलाकों में पाकिस्तानी गोलीबारी शुरू हुई, तो नागरिक स्वयंसेवकों ने परिवारों को निकालने के लिए कदम उठाया और उन्हें भोजन, पानी और बिस्तर मुहैया कराए—अक्सर उनके अपने घरों में ही.

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नई दिल्ली: 10 मई की सुबह, अमनजीत सिंह, जो एक एक्टिविस्ट हैं और उत्तर कश्मीर के बारामुला में गुरुद्वारा चेवी पातशाही कमेटी के वॉलंटियर हैं, एलओसी के पास स्थित नाम्बला गांव के लिए रवाना हुए. यहां बीते कई रातों से लगातार फायरिंग हो रही थी.

एक घंटे के अंदर, इस सिख युवक ने एक छह लोगों के परिवार को वहां से निकालकर बारामुला शहर लाया और उन्हें अपने ही घर में ठहराया, यह सोचकर कि पता नहीं वे लोग फिर कब अपने घर लौट पाएंगे.

अमनजीत की यह कोशिश गुरुद्वारा चेवी पातशाही कमेटी की एक सामूहिक पहल का हिस्सा थी, जो बारामुला के आसपास रहने वाले सिख समुदाय द्वारा बनाई गई है. इस पहल का मकसद था कि बॉर्डर इलाकों के लोगों को सुरक्षित जगह, मेडिकल सहायता और लंगर के रूप में खाना मुहैया कराया जा सके.

“उरी, राजौरी, पुंछ, बारामुला, कुपवाड़ा—ये सब भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित जगहें हैं, और इसी वजह से ये बहुत नाजुक स्थिति में हैं,” अमनजीत ने बॉर्डर पर रुक-रुक कर जारी फायरिंग के बीच फोन पर दिप्रिंट को बताया. उन्होंने कहा, “फायरिंग कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार ये इलाके सच में खतरे में हैं.”

गुरुद्वारा चेवी पातशाही कमेटी उन कुछ गिने-चुने समूहों में से एक है जो बॉर्डर इलाकों में फंसे लोगों को निकालने के लिए काम कर रहे हैं. अमनजीत के अनुसार, उनकी कोशिश है “प्रशासन को अतिरिक्त मदद देना” और लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाना.

स्थानीय लोगों में डर तब फैला जब 7 मई की रात पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के बॉर्डर इलाकों में गोला-बारी शुरू कर दी। इस जबरदस्त फायरिंग के बाद बॉर्डर पार से ड्रोन भी आने लगे. जम्मू-कश्मीर में कई गांवों से लोग भाग चुके हैं और वे ‘भूतिया गांव’ जैसे हो गए हैं.

ऐसे में जो लोग इन गांवों में पीछे रह गए हैं, उनके लिए गुरुद्वारा चेवी पातशाही जैसी सामुदायिक पहल एक मसीहा जैसी है. “सिख संगठन कश्मीर में काम कर रहे हैं, लोगों के लिए अपने दरवाज़े खोल रहे हैं, उन्हें सुरक्षा और लंगर दे रहे हैं. यह हमारी इंसानियत के लिए की जा रही सेवा है,” अमनजीत ने दिप्रिंट को बताया. “यही हमारे धर्म [सिख] की सीख है.”

‘जितना संभव हो सके उतना बचाएं’

ऊपर जिक्र की गई कमेटी एक संयुक्त पहल है, जिसमें बारामुला के स्थानीय गुरुद्वारे से जुड़े 11 सिख सदस्यों का समूह जिला प्रबंध कमेटी, घायलों को चिकित्सा सहायता देने वाला एक और सामाजिक कल्याण समूह गुरु हरकृष्ण जीवनजोत सेवा, और बारामुला के चंदूसा गांव के युवाओं का समूह चंदूसा सिख नौजवान सभा शामिल हैं. इसके अलावा, इस पहल में कम से कम 10 स्वयंसेवक, जिनमें अमनजीत भी शामिल हैं, बिना रुके नागरिकों को बचाने के लिए काम कर रहे हैं.

गुरुद्वारा चेवी पातशाही कमेटी द्वारा बचाव कार्य 7 मई से ही शुरू हो गया था और तब से अब तक स्वयंसेवकों ने कम से कम 150 परिवारों को बचाया है. कमेटी ने एक हेल्पलाइन बनाई है और जैसे ही उन्हें कॉल मिलती है, वे तुरंत स्वयंसेवकों को उन जगहों पर फंसे परिवारों तक पहुंचने के लिए भेजते हैं.

Some of the rescued border people sitting inside the homes of Sikhs in Baramulla | By Special Arrangement
बारामूला में सिखों के घरों के अंदर बैठे कुछ बचाए गए सीमावर्ती लोग | विशेष व्यवस्था

बारामुला के चेवी पातशाही गुरुद्वारे में, कमेटी ने सभी कमरे खोल दिए हैं और इन परिवारों को तब तक ठहरने के लिए जगह दी है जब तक हालात सामान्य नहीं हो जाते. अमनजीत की तरह, अन्य स्वयंसेवकों ने भी लोगों के लिए अपने घर खोल दिए हैं.

“बचपन से ही ऐसी चीजें [हिंसा] हमारे जैसे लोगों के लिए एक नई तरह की सामान्य बात बन गई हैं. भगवान हमें बस इतनी ताकत देता है कि हम लोगों की मदद कर सकें,” अमनजीत ने कहा. “हमारा सिर्फ एक ही मकसद है—जितनी ज़िंदगियां बचा सकें, बचाएं.”

‘पुंछ आत्मनिर्भर है’

बारामुला से लगभग 220 किलोमीटर दूर पूंछ है, एक और सीमावर्ती इलाका जो पिछले तीन दिनों से भारी गोलाबारी का सामना कर रहा है. जहां कई लोग अपने घरों और सामुदायिक बंकरों में फंसे रहे, वहीं एक ज़मीनी स्तर की अनौपचारिक कोशिश सक्रिय हो गई है.

सरिमस्तान ट्राइबल गुर्जर वेलफेयर फाउंडेशन, जिसके संस्थापक 46 वर्षीय असद नूमानी हैं, इस मानवीय पहल की अगुवाई कर रहा है. फाउंडेशन ने गोलीबारी की गूंज के बीच सैकड़ों परिवारों को सीमावर्ती गांवों से निकालने में समन्वय किया.

“जैसे ही 7 मई को रात 2:30 बजे फायरिंग शुरू हुई, हमें समझ आ गया कि अब निकलना पड़ेगा,” नूमानी ने दिप्रिंट से फोन पर बातचीत में कहा. “अल्लाह की मेहरबानी से, हम अब तक 500 से 600 परिवारों को निकालने में सफल रहे हैं.”

सरकारी सहायता या सोशल मीडिया की मौजूदगी के बिना, सरिमस्तान फाउंडेशन ने गुर्जर-बकरवाल समुदाय के 200 से ज़्यादा स्वयंसेवकों का एक मजबूत, स्थानीय नेटवर्क खड़ा किया है.

इन स्वयंसेवकों में ड्राइवर, किसान, चौकीदार, शिक्षक शामिल हैं, जिन्होंने इलाके के गांवों और पंचायतों में अपना काम बांट रखा है. वे एक व्हाट्सऐप ग्रुप के ज़रिए संपर्क में रहते हैं, जहां मदद की मांग की पुष्टि कर, तुरंत सहायता भेजी जाती है. “हमने चकटरू, मंडी और सुरनकोट में 25 घर खोल दिए हैं जहां विस्थापित परिवार रह रहे हैं,” नूमानी ने बताया. “अभी हमारे संरक्षण में 1,000 से अधिक लोग रह रहे हैं.”

One of the two ambulances deployed by the Sarimastaan Tribal Gurjar Welfare Foundation to evacuate families from border villages | By Special Arrangment
सरिमस्तान आदिवासी गुर्जर कल्याण फाउंडेशन द्वारा सीमावर्ती गांवों से परिवारों को निकालने के लिए तैनात दो एम्बुलेंस में से एक | विशेष व्यवस्था द्वारा

फाउंडेशन के पास दो एम्बुलेंस हैं, इसके अलावा उन्होंने 10 ऑटो-रिक्शा किराए पर लिए और सदस्यों की निजी गाड़ियां लगाकर 24 घंटे राहत अभियान जारी रखा. “यह ऑपरेशन कभी नहीं रुकता. हमारे स्वयंसेवक दिन-रात लोगों को बचा रहे हैं। हम सोते नहीं. हम इंतज़ार नहीं करते,” नूमानी ने कहा.

जिन गांवों से उन्होंने लोगों को निकाला उनमें कस्बा, डारा डुल्लियां, गुनत्रियां, आराई, बैला शामिल हैं—ये सभी एलओसी से कुछ ही किलोमीटर दूर हैं और दशकों से सीमा पार से होने वाली गोलाबारी की चपेट में आते रहे हैं.

नूमानी ने बताया कि बहुत से ग्रामीण, अपनी ज़मीन और मवेशियों के नुकसान के डर से शुरुआत में निकालने से हिचकिचा रहे थे. “हम उन्हें समझाते हैं: जान है तो घर लौट आओगे। इसी तरह हम उन्हें मनाते हैं.”

सरिमस्तान की खासियत इसका सामुदायिक मॉडल है—इसके सदस्य कोई चंदा नहीं मांगते, फिर भी और भी ज़्यादा युवा इससे जुड़ रहे हैं ताकि इस धारणा को तोड़ा जा सके कि गुर्जर-बकरवाल समुदाय निष्क्रिय या कटे हुए हैं. “हमने दिखा दिया कि हम नेतृत्व कर सकते हैं। हमने दिखाया कि एकता क्या होती है,” उन्होंने कहा.

जहां ज्यादातर बचाए गए लोग गुर्जर और बकरवाल समुदाय से हैं, फाउंडेशन ने सिख और हिंदू मज़दूरों की भी मदद की है—जैसे छह लोगों को जालंधर पहुंचाया और दो हिंदू कामगारों को बिहार और उत्तर प्रदेश उनके घर भेजा—यह सब मुफ्त में. उनका ऑपरेशन बेस सुरनकोट और आस-पास के कस्बों के सुरक्षित घर हैं, जहां परिवारों को खाना, पानी और बिस्तर मिलता है.

नूमानी ने प्रशासन और सेना की ओर से स्थिति को संभालने में दी गई मदद को स्वीकार किया. “लेकिन पूंछ की परंपरा हमेशा आत्मनिर्भरता की रही है. हम मदद का इंतज़ार नहीं करते, हम खुद मदद पहुंचाते हैं,” उन्होंने ज़ोर देकर कहा.

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