scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमदेशजनसंख्या के मुद्दे पर RSS की सोच कैसे विकसित हुई, मोहन भागवत के बयान के क्या मायने हैं

जनसंख्या के मुद्दे पर RSS की सोच कैसे विकसित हुई, मोहन भागवत के बयान के क्या मायने हैं

वास्तव में संघ में भारत की 'जनसांख्यिकी' को लेकर कई दशकों से चर्चा चल रही है और इस विषय पर उसकी सोच का एक क्रमिक विकास भी नजर आता है.

Text Size:

राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में असम में एक पुस्तक के विमोचन के अवसर पर जब यह कहा था कि भारत में 1930 से योजनाबद्ध रीति से मुसलमानों की संख्या बढ़ाने के प्रयास हुए तो वह बहुत हद तक इस बात का संकेत था कि भारत में जनसंख्या का स्वरूप या जनसांख्यिकी एक ऐसा विषय है जिसे लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काफी संवेदनशील है. कई विश्लेषक यह मानने की भूल कर बैठते हैं कि संघ ने जनसंख्या का मुद्दा हाल—फिलहाल में उठाया है.

लेकिन वास्तव में संघ में भारत की ‘जनसांख्यिकी’ को लेकर कई दशकों से चर्चा चल रही है और इस विषय पर उसकी सोच का एक क्रमिक विकास भी नजर आता है.

इस पूरी चर्चा या जनसंख्या पर संघ के दृष्टिकोण के क्रमिक विकास को आप दो कालखंडों में बांट कर देख सकते हैं. पहला कालखंड 1947 से 2005 तक था जिसमें मूलत: संघ का फोकस इस बात पर था कि हिंदुओ का धर्मांतरण कर उन्हें अल्पमत में लाया जा रहा है. इस बहस का दूसरा कालखंड 2005 से आरंभ हुआ जब चेन्नई स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ ने एक विस्फोटक रिपोर्ट प्रकाशित की ‘भारत वर्ष की धर्मानुसार जनसांख्यिकी’. इस रिपोर्ट में धार्मिक आधार पर 2001 के जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण था. इस रिपोर्ट के बाद बहस धर्मांतरण तक सीमित न रहकर बड़े कैनवस पर चली गई. अब बहस के केंद्र में मुस्लिम व ईसाई मत मानने वालों की जनसंख्या वृद्धि दर हो गई. इस रिपोर्ट में पिछले 110 साल की जनसंख्या वृद्धि के पैटर्न का आंकड़ों पर आधारित अध्ययन था और निष्कर्ष साफ था कि अगले पाचं दशक में हिंदू इस देश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे.


यह भी पढ़ें: आरएसएस के स्वयंसेवक क्यों भगवा ध्वज की पूजा करते हैं और इसे अपना ‘गुरु’ मानते हैं


पहला कालखंड 1947-2005

पहले कालखंड में जनसांख्यिकी पर जो बहस चली, उसमें संघ का फोकस सीमावर्ती प्रांतों खासकर असम, पश्चिम बंगाल व उत्तर पूर्वी राज्यों पर था. संघ का मत था कि असम व पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में सुनियोजित ढंग से सीमा पार से घुसपैठक कर मुस्लिम जनसंख्या को बढ़ाया जा रहा है तथा उत्तर-पूर्व में ईसाई मिशनरी जनजातीय समुदाय का मतांतरण कर अलगाववाद को बढ़ावा दे रहे हैं. संघ का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था कि जनसंख्या के इस बदलते रूवरूप यानी हिंदुओं के अल्पसंख्यक होने से देश की अखंडता को खतरा पैदा होगा.

संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर उपाख्य ‘गुरूजी’ जो 1940 से 1973 तक इस दायित्व को निभाते रहे, इस विषय में काफी मुखर थे. उन्होंने कहा (श्री गुरूजी समग्र, प्रभात प्रकाशन, खंड 11, पृष्ठ 180), ‘हमारे देश के सामरिक महत्व के भागों में अपनी जनसंख्या वृद्धि करना.. आक्रमण का दूसरा मोर्चा है. कश्मीर के पश्चात उनका दूसरा लक्ष्य असम है. योजनाबद्ध रीति से असम, त्रिपुरा व शेष बंगाल में उनकी संख्या की बढ़ आ रही है..पाकिस्तानी मुसलमान असम में 15 वर्षों से शनै: शनै: घुसपैठ कर रहे हैं. परिणामस्वरूप वहां की मुसलमान जनसंख्या….आज दोगुने से भी अधिक बढ़ गई है. असम को मुस्लिम बहुल प्रांत बनाने के षड्यंत्र के अतिरिक्त यह और क्या है, जिससे कि वह अपने—आप थोड़े समय बाद पाकिस्तान की गोद में चला जाए?’

संघ के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बाला साहब देवरस ने अक्टूबर 1984 में नागपुर में विजयदशमी के उद्बोधन (हमारे बालासाहब देवरस प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ 186) में कहा, ‘करोड़ों रुपया विदेशों से खुलेआम आ रहा है और डंके की चोट पर घोषणा की जा रही है कि सारे भारत को हम हर उपाय से इस्लाम या ईसाईयत के झंडे के नीचे लाएंगे. इसके विरुद्ध प्रभावी कदम उठाने की हिम्मत आज के राजनेताओं में बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि इससे उनके वोटों का ‘समीकरण’ बिगड़ जाने का खतरा है.

संघ के चौथे सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (हमारे रज्जू भैया, प्रभात प्रकाशन, खंड 11, पृष्ठ 250—265) ने कहा कि अरब देशों से आ रहे पेट्रो डॉलरों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हिंदुओं का इस्लाम में मतांतरण के लिए हो रहा है. मिशनरियों के बारे में उनका कहना था कि उनका लक्ष्य ‘भारत को ईसाई बनाना है—वे भी जनसंख्या बढ़ाने पर विश्वास रखते हैं पर चतुराई से. बड़े प्रदेश में जनसंख्या बढ़ाने पर कुछ असर नहीं होगा. अत: छोटे—छोटे प्रदेश छांटते हैं— नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, गोवा जिनकी जनसंख्या थोड़ी है और थोड़ी सी जनसंख्या बढ़ाने से ज्यादा अंतर आ सकता है.’

इस प्रकार से दूसरे, तीसरे व चौथे सरसंघचालकों ने इस बात के स्पष्ट संकेत दिए कि जनसंख्या का स्वरूप बदलने के संदर्भ में मतांतरण या धर्मांतरण को बड़ी चुनौती माना जा रहा था. लेकिन 2005 के बाद इसमें जनसंख्या वृद्धि दर एक प्रमुख मुद्दा बन गया.


यह भी पढ़ें: मनमोहन सिंह ने मुझे बताया था कि 1991 में ‘सत्ता से अलगाव’ और ‘सुधार के प्रति लगाव’ उनका प्रमुख हथियार था


दूसरा कालखंड: 2005 से अब तक जारी

दूसरे कालखंड की बात करें तो ऊपर जिस अध्ययन की चर्चा की गई है, उसी का हवाला देते हुए (हमारे सुदर्शन जी, प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ 256—257) 5वें सरसंघचालक कुप.सी.सुदर्शन ने कहा, ‘इसमें दर्शाया गया है कि भारत और पाकिस्तान और बांग्लादेश का एक साथ विचार करने पर हिंदुओं की जनसंख्या में 79.32 प्रतिशत से 68.03% अंक अर्थात 11% की गिरावट आई है और मुसलमानों की जनसंख्या में 20% से 30% तक यानी 10% की वृद्धि हुई है. ईसाईयों की जनसंख्या में 0.7 से 2% तक वृद्धि हुई है.

अध्ययन का निष्कर्ष है कि जनसंख्या में आनुपातिक परिवर्तन यदि इसी प्रकार से चलता रहा तो वर्ष 2007 तक हिंदू अपनी ही भूमि में अल्पमत में आ जाएगा. इसी संदर्भ में 2015 में संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में जनसंख्या को नियंत्रित करने के संदर्भ में पारित एक प्रस्ताव भी महत्वपूर्ण है. इसमें सीमित संसाधनों पर बढ़ती जनसंख्या के दबाव के संदर्भ में चिंता व्यक्त की गई. कुल मिलाकर संघ में इस विषय में एक बात की स्पष्टता है कि हिंदुओं का अल्पमत में आना देश के हित में नहीं है.

सुदर्शन की यह टिप्पणी ‘जनसंख्या’ के प्रश्न पर संघ की सोच को स्पष्ट कर देती है, ‘इतिहास साक्षी है कि जहां—जहां हिंदू अल्पमत में आया, वह हिस्सा या तो भारत से पूरी तरह कट गया या एक किस्म का सिरदर्द बन गया.’ इस मामले में संघ के भीतर पूरी तरह स्पष्टता है और मौजूदा सरसंघचालक की हाल में की गई टिप्पणियों व संघ में जनसंख्या के प्रश्न पर चल रही चर्चा को भी संभवत: इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है.

(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: ‘चुनावी मुद्दा नहीं है धर्मांतरण’- मीनाक्षीपुरम से लेकर नियोगी रिपोर्ट तक खोलते हैं इसके राज़


 

share & View comments