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Sunday, 22 December, 2024
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कैसे लोकायुक्तों को बनाया गया कागजी शेर: कहीं बांधे गए हाथ, तो कहीं पर खाली हैं पद

लोकपाल और लोकायुक्त ऐक्ट साल 2013 में पास किया गया था. लेकिन समय के साथ तमाम राज्यों ने ऑम्बुड्समैन को शक्तियों को कम किया और अब इसके ऊपर 'दंतहीन' होने का टैग लग गया है.

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कभी सरकारी अधिकारियों में लोकायुक्त को लेकर एक डर था. आज कई राज्यों में इनकी शक्ति सीमित कर दी गई है. लोकपाल और लोकायुक्त एक्ट, 2013 के लागू होने के नौ सालों के बाद की यह स्थिति है. केन्द्र और राज्यों में ऊंचे पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए अम्बुड्समैन की मांग के बाद यह एक्ट लाया गया था. एक्ट के लागू होने के बाद सभी राज्यों के लिए अम्बुड्समैन रखना अनिवार्य हो गया.

राज्य में लोकायुक्त, केन्द्र के लोकपाल के समकक्ष है. कई राज्यों ने निगरानी करने के लिए बनाए गए पद पर नियुक्ति को लटका कर रखा हुआ है. वहीं, जिन राज्यों में नियुक्ति हुई भी है वहां उनकी शक्तियां न के बराबर रह गई हैं.
पिछले महीने, केरल में नए अध्यादेश के बाद लोकायुक्त की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है. पिछले महीने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को यहां का नया लोकायुक्त बनाया गया. यहां सीपीएम की अगुवाई वाले एलडीएफ गठबंधन की सरकार है.

इसके पड़ोसी राज्य कर्नाटक में लोकपाल और लोकायुक्त एक्ट, 2013 के लागू होने से कई साल पहले 1986 में से ही लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान था. कर्नाटक में पी विश्वनाथ शेट्टी के जनवरी में सेवानिवृत होने के बाद से यह खाली है.

दिल्ली में दिसंबर 2020 के बाद से ही लोकायुक्त का पद खाली है. साल 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल आंदोलन चलाया गया था. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अन्ना के मुख्य सहयोगी थे.

साल 2013 के बाद से उत्तराखंड में भी कोई लोकायुक्त नहीं है. वहीं, हिमाचल प्रदेश, नागालैंड, और झारखंड में भी यह पद खाली है.

जून 2021 में जस्टिस ध्रुव नारायण की कोरोना से निधन के बाद से झारखंड में लोकायुक्त का पद खाली है. हिमाचल प्रदेश में पिछले चाल सालों से कोई लोकायुक्त नहीं है. दिसंबर 2021 में लोकायुक्त एक्ट में बदलाव किया गया. जिसके बाद ‘योग्य उम्मीदवार’ मिलना मुश्किल हो गया है. नए प्रावधान के तहत हाईकोर्ट के जज को ही इस पद पर नियुक्त किया जा सकता है.

नागालैंड सरकार ने अगस्त 2021 में लोकायुक्त अधिनियम 2017 में बदलाव किया, जिसके बाद इस पद को एक साल तक खाली रखा जा सकता है. नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार है.

उप-लोकायुक्त पद पर की गई राजनैतिक नियुक्ति को लेकर भी नागालैंड सरकार को आलोचना का सामना करना पड़ा था. एनडीपीपी सदस्य मांगयांग लीमा को लोकायुक्त की जगह पर उप-लोकायुक्त बनाया गया था. वह पहले उप-लोकायुक्त थे. लीमा साल 2018 में अरकाकोंग विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए थे.

कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त एन संतोष हेगड़े अपने कार्यकाल में कथित खनन घोटाला के मामले में दो मुख्यमंत्रियों सहित कई मंत्रियों को अभियुक्त बनाया है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘यह एक संवैधानिक पद है. इस पद पर लोगों का बना रहना ही ज़रूरी नहीं, इससे यह भी संदेश जाता है कि सरकार अपने लिए एक मजबूत अम्बुड्समैन रखना चाहती है. इसमें कोई शक नहीं है कि कोई भी सरकार अपने लिए मजबूत लोकायुक्त रखना नहीं चाहती.’

वहीं, लोकायुक्त की शक्तियों को सीमित करने वाले राज्यों का भी यही तर्क है. राज्य सरकार अपने कार्यक्षेत्र में लोकायुक्त के हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं हैं.

लोकायुक्त का चुनाव

राज्य के लोकायुक्त का पद, केन्द्र सरकार के लोकपाल के पद के समकक्ष है. इसकी नियुक्ति राज्यपाल करते हैं. राज्य की विधानसभा में लोकायुक्त एक्ट पास होने के बाद यह संस्थान काम करना शुरू करता है.

लोकायुक्त चुनने और उसे राज्यपाल के पास भेजने के लिए कमिटी का गठन किया जाता है. यह कोलेजियम की तरह होता है जिसके सदस्य राज्य के मुख्यमंत्री, राज्य के हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, विधानसभा में विपक्ष के नेता (काउंसिल, अगर राज्य में विधानसभा और विधान परिषद दोनों हो तो) विधानसभा अध्यक्ष, विधान परिषद के सभापति होते हैं. जिस नाम पर ज्यादातर सदस्यों की सहमति होती है उसका नाम राज्यपाल को सुझाया जाता है.

लोकायुक्त एक स्वतंत्र संस्था की तरह सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार, कुप्रशासन और शक्ति के दुरुपयोग के मामलों में की गई शिकायतों की जांच करती है. एक्ट में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों या उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीशों को लोकायुक्त के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान है. कुछ राज्यों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और यहां तक कि वकीलों को भी भ्रष्टाचार विरोधी निकाय के प्रमुख के रूप में नियुक्त करने की छूट पाने के लिए एक्ट में बदलाव किया गया है.

केएन भट्टाचार्य त्रिपुरा के तीसरे लोकायुक्त हैं. वह पहले लोकायुक्त हैं जो पेशे से वकील हैं. एडवोकेट जनरल ऑफ त्रिपुरा, सिद्धार्थ शंकर डे ने दिप्रिंट कहा, ‘भट्टाचार्य सीनियर वकील हैं. कम से कम 10 साल तक कोर्ट में खड़ा रहने पर ही कोई सीनियर वकील बन पाता है. वे (भट्टाचार्य) पिछले 50 साल साल से जज के सामने पेश होते आए हैं.’

मेघालय के एक सरकारी वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि राज्य के लोकायुक्त एक्ट के मुताबिक, लोकायुक्त, ‘हाईकोर्ट का जज या ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो योग्यता की ज़रूरी शर्तों को पूरा करता हो.’

कई राज्यों में पद खाली

साल 2013 में केन्द्र सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त कानून पास किया. इसके सालों बाद, कई राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति हो पाई.

नागालैंड, ओडिशा, तमिलनाडु में साल 2019 में लोकायुक्त की नियुक्ति की गई. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के साल 2014 में अलग होने के बाद, 2019 में दो पद बनाए गए. आंध्र प्रदेश में साल 2021 में लोकायुक्त ऑफिस कर्नूल में खुला.

जिन राज्यों में अम्बुड्समैन की नियुक्तियां हुई हैं वहां भी उन्हें पूरा अधिकार नहीं दिया गया है. राज्य सरकार पर उनकी शक्तियां सीमित करने के आरोप लगते रहे हैं. लोकायुक्त को सरकारी कर्मचारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और उन्हें जवाबदेह बनाए रखने की जिम्मेदारी है.

जस्टिस हेगड़े ने दिप्रिंट से कहा, ‘लोकायुक्त एक्ट सरकार और सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोगों की निगरानी करता है. नियुक्ति करने वाले लोग मजबूत लोकायुक्त नहीं चाहते हैं. लेकिन, वे इस संस्थान को बंद भी नहीं कर सकते.

उन्होंने कहा, ‘वे संस्थान को कमजोर और बदनाम कर रहे हैं. इसके लिए, साफ छवि के लोगों की नियुक्ति न करना, जांच के अधिकार को कम करना और मजबूत लोकपाल की नियुक्त न करने जैसे तरीके अपनाए जाते हैं.’
कर्नाटक इसका उदाहरण है. पहले कर्नाटक के लोकायुक्त को सरकारी सेवकों के खिलाफ जांच करने और उन्हें अभियुक्त बनाने का अधिकार था. साल 2016 में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) का गठन किया. इसके बाद लोकायुक्त को मिले जांच के अधिकारों को एसीबी को दे दिया गया.

केरल में अध्यादेश लाकर, लोकायुक्त को आरोपी सरकारी सेवकों को पद से हटाने के अधिकार को खत्म कर दिया गया है. पहले लोकायुक्त के फैसले को मानना राज्यपाल और मुख्यमंत्री के लिए बाध्यकारी था. लेकिन, केरल की सरकार ने इस प्रावधान में बदलाव कर दिया है. अब लोकायुक्त के फैसले को लागू करने या उसे रद्द करने का अधिकार मुख्यमंत्री या संबंधित ‘सक्षम प्राधिकारी’ को होगा. अब उनके पास कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है. वह सिर्फ़ सुझाव ही दे सकते हैं.

केरल में एलडीएफ गठबंधन की सरकार के खिलाफ विपक्ष हमलावर है. एक्ट में उस समय बदलाव किया गया है जब लोकायुक्त की ओर से मुख्यमंत्री विजयन के खिलाफ अधिकारों के दुरुपयोग के मामले की जांच चल रही है.

केरल और कर्नाटक में लोकायुक्त ने जनप्रतिनिधियों पर कार्रवाई करने का इतिहास रहा है. केरल लोकायुक्त रिपोर्ट 2021 आने के बाद, केरल के उच्च शिक्षा और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के मंत्री केटी जलील को अपने पद से इस्तीफ देना पड़ा था. उन पर अपने करीबियों को गलत तरीके से फ़ायदा देने और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने का आरोप लगा था.

गैरकानूनी खनन पर कर्नाटक लोकायुक्त की रिपोर्ट आने के बाद बीजेपी नेता और मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को जेल जाना पड़ा था.

कमजोर और कार्रवाई करने की शक्ति नहीं

सुप्रीम कोर्ट की खिंचाई और डेडलाइन सेट करने के बाद अंततः 2018 में तमिलनाडु में लोकायुक्त एक्ट लागू हुआ. तब एआईडीएमके सत्ता में थी. एक्ट पर चर्चा के दौरान विपक्ष ने सदन से वॉकआउट किया और एम के स्टालिन ने पद को कागजी शेर बताया.

मुख्यमंत्री के टेंडर, कॉन्ट्रैक्ट और नियुक्ति संबंधी फैसलों को लोकायुक्त एक्ट के दायरे से बाहर रखने के खिलाफ चार साल बाद मद्रास हाई कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गई है.

विपक्ष में रहते हुए स्टालिन के नेतृत्व में डीएमके ने इस एक्ट का तीखा विरोध किया था. लेकिन, पिछले साल सत्ता में आने के बावजूद उन्होंने इस एक्ट में संशोधन के लिए कोई कदम नहीं उठाया है.

महाराष्ट्र के पिछले लोकायुक्त एमएल तहिलियानी के कार्यकाल समाप्त होने के करीब साल भर बाद जस्टिस वीएम कनाडे को शपथ दिलाई गई. बीते साल सितंबर में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चल रही महाराष्ट्र की ‘महाविकास अघाड़ी’ सरकार के खिलाफ आंदोलन करने की चेतावनी दी थी. पिछले साल सितंबर में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने 2013 के केंद्रीय एक्ट के मुताबिक नया लोकायुक्त ऐक्ट या लोकायुक्त कानून न बना पाने के कारण महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी सरकार के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर दी.

जनवरी 2021 में गोवा की बीजेपी सरकार ने विपक्ष के विरोध के बावजूद लोकायुक्त एक्ट में संशोधन किया. इस संशोधन से हाईकोर्ट के जजों को लोकायुक्त के रूप में नियुक्त करने का रास्ता साफ हो गया है. विपक्ष ने इसे एक्ट को कमज़ोर करने वाला संशोधन बताया और ड्राफ्ट को सेलेक्ट कमिटी को भेजने की मांग की.

रिपोर्ट के मुताबिक सितंबर 2020 में सेवानिवृत होने से पहले गोवा के लोकायुक्त जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा ने कहा, ‘लोकायुक्त एक्ट को जिस तेजी से बर्बाद किया जा रहा है उससे बेहतर है कि लोकायुक्त के पद को खत्म ही कर देना चाहिए.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि उनकी ओर से राज्य सरकार को 21 रिपोर्ट भेजी गई पर कोई कदम नहीं उठाया गया. पिछले साल जस्टिस एएच जोशी को गोवा का लोकायुक्त बनाया गया.

जनलोकपाल आंदोलन के प्रमुख सदस्य और स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘ये संस्था बेहतर काम करे, इसके लिए जनता की ओर से लगातार दबाव बनाए रखने की जरूरत होती है. दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं और राज्य और केंद्र में लोकपाल का पद महज एक मज़ाक बन कर रह गया है.’

वह कहते हैं, ‘इस तरह के संस्थाओं को सम्मान अर्जित करना पड़ता है पर ऐसा हो नहीं पाया. अधिकांश मामलों में सरकारों ने इसे ठेंगा दिखाने का काम किया है.’

सभी पार्टियों का एक जैसा हाल

2018 में ममता बनर्जी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में इस कानून में संशोधन किया गया और मुख्यमंत्री के किसी भी सार्वजनिक फैसले पर उनकी लोकायुक्त के प्रति जवाबदेही को खत्म कर दिया गया. जस्टिस अशीम कुमार रॉय को दोबारा तीन साल के लिए लोकायुक्त बनाए जाने की अनुशंसा पर राज्यपाल से तनातनी हुई, राज्यपाल ने इस पद की चयन प्रक्रिया पर प्रश्न उठाए थे.

दो फरवरी को जारी एक प्रेस रिलीज में राजभवन ने कहा कि लोकायुक्त की नियुक्ति से जुड़ी कोई फाइल राज्यपाल जगदीप धनखड़ के पास नहीं आई है बल्कि चयन प्रक्रिया को साफ-सुथरा रखने के लिए सिर्फ प्रतिक्रिया मांगी गई, ताकि जस्टिस रॉय को फिर से नियुक्त किया सके, क्योंकि उनका कार्यकाल जनवरी में समाप्त हो गया था.

राजभवन से यह बयान तब आया, जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह आरोप लगाया कि कई फाइल राज्यपाल के पास लंबित हैं. साल 2018 में जस्टिस रॉय की नियुक्ति हुई. यह पद 2009 से ही खाली था.

उत्तर प्रदेश में लोकपाल की नियुक्ति अखिलेश यादव के सत्ता में रहने के दौरान विवादों की भेंट चढ़ गया. बीजेपी की सरकार बनने के बाद लोकायुक्त लखनऊ के गौतम पल्ली इलाके को निचले स्तर के रिहायशी इलाके में तब्दील करने के खिलाफ राज्य सरकार से कानूनी लड़ाई में उलझे हुए हैं.

जस्टिस सुरेंद्र कुमार यादव को 2021 में उप-लोकायुक्त के रूप में नियुक्त करने के योगी आदित्यनाथ सरकार के फैसले ने लोगों का ध्यान इस तरफ मोड़ा. जस्टिस यादव ने साल 2020 में बाबरी विध्वंस पर फैसला दिया था. सीबीआई की विशेष अदालत में जज रहने के दौरान यादव ने अपने फैसले में सभी दोषियों को बेगुनाह पाया. इनमें लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती जैसे बीजेपी नेता भी शामिल थे.

अप्रैल 2019 में लोकायुक्त दफ़्तर ने कहा कि बीजेपी सरकार 2014 से ही मनमानी करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करने की अनुशंसा करने वाली विधानमंडल की रिपोर्ट पर पेश नहीं हुई है.

राजनीतिक दल सत्ता में होने या न होने पर लोकायुक्त के मसले पर अलग-अलग रवैया अपनाते हैं. इस पर जस्टिस हेगड़े कहते हैं, ‘2010 में कर्नाटक विधानसभा में विपक्ष के नेता सिद्धारमैया ने अवैध खनन के खिलाफ ‘बेल्लारी चलो’ पदयात्रा की और इस मामले पर लोकायुक्त के रिपोर्ट को लागू करने की मांग की. हालांकि, 2013 में मुख्यमंत्री बनने के बाद खुद उन्होंने भी इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया.’

जस्टिस हेगड़े ने कहा, ‘ठीक इसके उलट, उनकी सरकार ने लोकायुक्त की शक्तियां खत्म कर दीं और एसीबी का गठन किया गया. येदियुरप्पा ने उस वक़्त विपक्ष के नेता रहते हुए शपथ ली कि सत्ता में आने के 24 घंटे के अंदर वो एसीबी को भंग कर देंगे लेकिन सत्ता में आने के 24 महीने बाद भी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया.’

योगेंद्र यादव ने कहा कि यह लोक संस्कृति का दायित्व है. जब तक इन संस्थाओं को कार्यपालिका से सच्चे अर्थों में आज़ाद नहीं रखा जाएगा, तब तक कोई अंतिम समाधान नहीं निकाला जा सकता. समाधान दरअसल जनता के दबाव और संस्कृति में ही है. यह दिखाता है कि लोकतंत्र की कमी-कमजोरियों के लिए कानून ही ‘एकमात्र रास्ता नहीं है.’

पूर्वा चिटनिस (मुंबई), रिशिका सद (हैदराबाद), अंगना चक्रवर्ती (गुवाहाटी), शिखा सलारिया (लखनऊ) अभिषेक डे (दिल्ली) के इनपुट्स के साथ.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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