नई दिल्ली: लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के कारण द हिंदू, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया और आनंद बाज़ार पत्रिका जैसे प्रतिष्ठित अखबारों को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए हैं.
संसद में बुधवार को एक बहस में भाग लेते हुए चौधरी ने कहा कि मीडिया को दबाया जा रहा है और सरकार के खिलाफ बोलने पर प्रकाशनों के विज्ञापन रोके जा रहे हैं.
सरकारी सूत्रों ने दिप्रिंट से इस बात की पुष्टि की है कि इसी वर्ष आम चुनावों से पहले द हिंदू, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया को विज्ञापन दिया जाना बंद कर दिया गया था. ये स्पष्ट नहीं है कि कि क्या टेलीग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया को अब भी इस ‘अलिखित’ और ‘अघोषित’ प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा है, पर हिंदू के मामले में निश्चय ही प्रतिबंध आज तक जारी है.
चौधरी ने सरकार के कदम को ‘अलोकतांत्रिक’ और ‘अहंकारवादी’ बताते हुए कहा कि द हिंदू और टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्रमश: रफाल सौदे में ‘भ्रष्टाचार का खुलासा’ और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनावी आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघनों को उजागर किया था. वहीं, टेलीग्राफ और सह-प्रकाशन आनंद बाज़ार पत्रिका मोदी के आलोचक रहे हैं.
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केंद्र सरकार के तमाम मंत्रालयों के विज्ञापन अखबारों को ब्यूरो ऑफ आउटरीच कम्युनिकेशन (बीओसी) जारी करता है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत संचालित बीओसी को पहले विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) के नाम से जाना जाता था.
उपरोक्त प्रकाशनों को सरकारी विज्ञापन नहीं दिए जाने के बारे में बीओसी के महानिदेशक सत्येंद्र प्रकाश से संपर्क किए जाने की कोशिश की गई, पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
दंडात्मक कदम
सरकार के एक शीर्ष अधिकारी ने अपना नाम नहीं दिए जाने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि प्रकाशनों को एक निश्चित अवधि में सरकारी विज्ञापन देने या नहीं देने के बारे में निर्दिष्ट नियमों की अनुपस्थिति की वजह से, सत्ता में मौजूद राजनीतिक दल अपनी मर्ज़ी से ऐसे फैसले करते हैं.
अधिकारी ने कहा कि आदर्श स्थिति में ये विज्ञापन हमेशा लक्षित पाठकों और प्रसार संख्या के आधार पर दिए जाते हैं. जब किसी मंत्रालय को विज्ञापन जारी करना होता है. तो, वह विज्ञापन की विषय-वस्तु के बारे में बीओसी को सूचित करते हुए उससे एक मीडिया सूची मंगाता है. ये प्रक्रिया अमूमन विज्ञापन की प्रकाशन तिथि से करीब 15 दिन पहले अमल में लाई जाती है.
मीडिया सूची मुख्यत: उन प्रकाशनों की एक मिश्रित सूची होती है जिनकी निर्दिष्ट पाठक वर्ग में अच्छी पहुंच हो.
उक्त अधिकारी ने आगे बताया, ‘पर सरकार के बड़े ओहदेदारों से डीएवीपी (अब बीओसी) को मिले मौखिक निर्देशों के बाद मीडिया लिस्ट से कुछ नाम निकाल दिए जाते हैं. ये नाम अक्सर उन प्रकाशनों के होते हैं, जिन्होंने सरकार के बारे में नकारात्मक रिपोर्टें छापी हों. किसी प्रकाशन को सरकारी विज्ञापनों से वंचित किए जाने का एक दंडात्मक उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.’
अधिकारी का कहना है कि कांग्रेस सरकार के दौरान भी ये प्रवृति देखी जाती थी, पर ऐसे प्रतिबंध कम अवधि तक लागू रहते थे. इससे पहले गुजरात समाचार और राजस्थान पत्रिका जैसे प्रकाशनों को भी सरकारी विज्ञापन रोके गए थे. ‘कतिपय प्रकाशनों को सरकारी विज्ञापन रोके जाने के मामले हाल के वर्षों में बढ़े हैं और अब ऐसी रोकें आमतौर पर अनिश्चित काल के लिए होती हैं.’ अधिकारी के अनुसार इस बारे में कभी कोई लिखित निर्देश नहीं दिया गया है और सरकार के बड़े ओहदेदार इस बारे में सिर्फ मौखिक निर्देश देते हैं.
ऐसे मामलों में अखबार चाहें तो अदालत की शरण में जा सकते हैं.
अखबारों से अधिक पाठकों पर असर
एक अन्य सरकारी अधिकारी ने बताया कि इस तरह विज्ञापन रोके जाने का असर अखबारों से ज्यादा उनके पाठकों पर पड़ता है.
इस अधिकारी के अनुसार, ‘उदाहरण के लिए यदि मुद्रा योजना का कोई विज्ञापन है और संबंधित अखबारद हिंदू है. जिसके दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में पाठक हैं. यदि हिंदू को ये विज्ञापन नहीं दिया गया तो उस क्षेत्र के बहुत से पाठक योजना के बारे में शायद कभी नहीं जान पाएं. फिर भी सरकारें अक्सर प्रकाशन विशेष से हिसाब चुकता करने के लिए ऐसा करती हैं.’
अधिकारी ने आगे बताया कि यदि भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) की भर्त्सना के बाद किसी प्रकाशन को ब्लैकलिस्ट किया जाता है. तो उसका नाम सरकारी वेबसाइट पर डाला जाता है. पर यदि किसी प्रकाशन को राजनीतिक फैसले के तहत सरकारी विज्ञापन रोके जाते हैं, तो सार्वजनिक रूप से इसका कोई उल्लेख नहीं किया जाता है.
हालांकि, पेड न्यूज़ अथवा फेक न्यूज़ को लेकर किसी प्रकाशन को पीसीआई की फटकार के बाद भी उसे दंडित करने के तरीके पर फैसले का अधिकार बीओसी या संबंधित राज्य सरकार के पास होता है और इस मामले में भी अक्सर दंड निंदित प्रकाशन को सरकारी विज्ञापन रोके जाने के रूप में ही दिया जाता है.
‘व्यर्थ’ का खर्च
सरकार के अंदरूनी सूत्रों ने इससे पहले दिप्रिंट को बताया था कि मोदी सरकार विज्ञापनों को खासकर अखबारी विज्ञापनों को व्यर्थ का व्यय मानती है. जिससे कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता.
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एक अधिकारी ने कहा, ‘सरकार का यकीन जनसंचार के अन्य माध्यमों में है और जब विज्ञापन देना ही हो, तो इसकी दिचलस्पी क्षेत्रीय प्रकाशनों में हैं.’
हालांकि, राजनीतिक विज्ञापनों की स्थिति इससे अलग है. जो कि बड़ी मात्रा में और सभी प्रकाशनों को दिए जाते हैं. क्योंकि विज्ञापनदाता ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि संदेश अधिकाधिक लोगों तक पहुंचे.
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