नई दिल्ली: लद्दाख में समुद्र तल से 14,000 फीट की ऊंचाई पर, पैंगोंग त्सो झील के दक्षिणी किनारे पर स्थित ‘चुशुल’, ऊंची नीची रेत के टीलों के बीच बसा एक छोटा सा गांव है. यह खूबसूरत सा गांव 1962 के युद्ध के उस अकेले हिस्से के इतिहास का गवाह है, जहां भारतीय सैनिकों ने अपने हौंसले और बहादुरी के चलते चीनियों का डटकर मुकाबला किया था.
लेह से लगभग 200 किलोमीटर दूर चुशुल 1962 के भारत-चीन युद्ध में एक सेंट्रल फ्लैशपॉइंट था. चुशुल सेक्टर में दो बार संघर्ष हुआ – पहला 21 अक्टूबर को सिरिजाप पोस्ट पर और फिर 18 नवंबर को रेजांग ला और गुरुंग पहाड़ी पर.
बहादुरी से देश की रक्षा करने के बावजूद चीन की बड़ी सेना और बेहतर हथियारों के चलते 1/8 गोरखा राइफल्स, 13 कुमाऊं और 1 एंव 5 जाट रेटिमेंट के भारतीय सैनिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन उनके बुलंद हौंसलों ने चीनी सानिकों को चुशुल की पश्चिम की पहाड़ियों की ओर हटने के लिए मजबूर कर दिया था.
भारतीय सैनिकों ने गुरुंग हिल और रेजांग ला में चीनियों के पहले हमले में हुए नुकसान की भरपाई की थी. चुशुल में हुईं ये दोनों लड़ाई काफी महत्वपूर्ण थीं. संघर्ष के दौरान आमने-सामने आकर हाथों से मुकाबला करना और गोरखा खुकरी (छोटा चाकू) से हमला करना भी शामिल था.
रक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित 1962 के युद्ध पर भारत के आधिकारिक युद्ध इतिहास में कहा गया है, ‘चुशुल शायद 1962 में सेना की ओर से लड़ी गई एकमात्र संगठित रक्षात्मक लड़ाई थी.’
चुशुल एक स्ट्रेटजिक प्वाइंट पर स्थित है, क्योंकि राजधानी लेह की सड़क यहीं से होकर गुजरती है. 1962 के युद्ध में चुशुल के पास स्थित एक हवाई पट्टी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सेना के इंजीनियरों की मदद से अक्टूबर 1962 तक इस हवाई पट्टी से पैकेट एयरक्राफ्ट, एक ट्विन इंजन कार्गो प्लान और सोवियत निर्मित ट्रांसपोर्ट विमान AN-32s उड़ान भरने में सक्षम थे.
आधिकारिक युद्ध इतिहास बताता है कि चीन दो मुख्य कारणों से चुशुल पर नियंत्रण चाहता था. इसमें सबसे बड़ा कारण राजधानी लेह तक पहुंच को बाधित करना या कट कर देना और हवाई क्षेत्र के जरिए आने वाले किसी भी दल की अतिरिक्त सैनिकों की टुकड़ी को वहां आने से रोकना शामिल था.
लेह में भारत की तैनाती
1962 में जैसे ही चीनी सेना के साथ संघर्ष की आशंका बढ़ी , पश्चिमी कमान ने लेह की रक्षा के लिए एक सेना डिवीजन भेजने का अनुरोध किया, जिसमें जरूरी तौर पर 4 ब्रिगेड के लिए कहा गया था. हालांकि 1962 के सितंबर तक लद्दाख की सुरक्षा के लिए सिर्फ 114वीं ब्रिगेड को 2 बटालियनों के साथ – जिसमें 1/8 गोरखा राइफल्स और 5 जाट शामिल थी- को तैनात किया गया था. इसके अलावा, युद्ध से पहले जम्मू और कश्मीर मिलिशिया की यूनिट भी लद्दाख के आसपास के क्षेत्रों की रखवाली कर रही थीं.
आगे की रणनीति के हिस्से के रूप में भारत ने इस इलाके को चीनी सेना से बचाने के लिए चुशुल के चारों ओर कई चौकियों को स्थापित किया. इन चौकियां की जिम्मेदारी जम्मू-कश्मीर मिलिशिया ने संभाली हुई थी.
जम्मू-कश्मीर मिलिशिया 1972 तक गृह मंत्रालय के तहत एक अर्धसैनिक बल था. 1 दिसंबर 1972 को ही उसे एक पूर्ण रेजिमेंट के रूप में सेना में शामिल कर लिया गया था. और फिर 1976 में उसका नाम बदलकर जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फेंट्री (JAK LI) कर दिया गया.
आधिकारिक युद्ध के इतिहास से पता चलता है कि चुशुल सेक्टर – पैंगोंग झील के उत्तर में एक कंपनी- में लड़ाई से पहले 5 जाटों की कम प्लाटून, 1/8 गोरखा राइफल्स के साथ भारतीय क्षेत्र की रक्षा के लिए सिरीजाप परिसर में तैनात की गई थी. इसके अलावा झील के दक्षिण में युला परिसर में तीन चौकियों की रक्षा का जिम्मा 1/8 गोरखा राइफल्स की कंपनियों के कंधों पर था.
चुशुल सेक्टर में हमले का पहला चरण
युद्ध के इतिहास आगे बताता है, सितंबर की शुरुआत से ही चीनियों ने सिरिजाप पोस्ट पर भारतीयों को घेरना शुरू कर दिया था. चीन ने चुशुल के सामने एक रेजिमेंट भी तैनात की थी.
20 अक्टूबर को युद्ध छिड़ने के बाद यानी 21 अक्टूबर को लगभग सुबह 6 बजे चीनी सैनिकों ने सिरिजाप में भारतीयों की तीन चौकियों पर हमला बोल दिया. उन्होंने सबसे पहले एक चौकी-सिरिजाप-1 पर भारी गोलाबारी की. वह लगातार सिरिजैप -1 को हल्के टैंकों से निशाना बना रहे थे.
भारतीयों के पास लाइट टैंकों का कोई मुकाबला नहीं था. हमले के शुरू होने के कुछ ही समय बाद सिरिजाप-1 का संपर्क टूट गया. बाद में पता चला कि हमले में कंपनी कमांडर समेत सिरिजाप-1 की पूरी यूनिट शहीद हो गई थी.
इसके बाद चीनियों ने सिरिजाप-2 पर कब्जा जमाने की कवायद शुरु कर दी. युद्ध का इतिहास के मुताबिक लड़ाई में बहुत कम सैनिक बच पाए थे. उन्होंने बताया कि घायल सैनिकों को लाइन में खड़ा कर चीनी सैनिकों ने बड़ी बेरहमी से उन्हें गोलियों से भून डाला था.
22 अक्टूबर तक चीनियों ने सिरिजाप, सिरिजाप -1और सिरिजाप 2 समेत उत्तरी तट पर सभी चौकियों पर कब्जा जमा लिया. दुश्मन के मजबूत सैनिक बलों के आकार को देखते हुए यूला में भारतीयों ने गुरुंग हिल से पीछे हटने का फैसला किया.
युद्ध का इतिहास बताता है कि चुशुल को मजबूत करने के लिए भारत ने 1महार की एक पलटन के साथ 13 कुमाऊं को सेक्टर में स्थानांतरित कर दिया. चुशुल के लिए गोला-बारूद और आपूर्ति भी एयरलिफ्ट की गई थी. भारतीय सेना की ओर से तेजी से उठाए गए इस कदम के बाद एक आसन्न संकट टल गया और 22 अक्टूबर से मध्य नवंबर 1962 के बीच चुशुल में खामोशी बनी रही.
यह भी पढ़ेंः क्या ‘अयोध्या की गंगा’ को फिर जीवित करने का काम भी गंगा की सफाई की तर्ज पर हो रहा
थोड़े से समय की शांति के दौरान रिइंफोर्समेंट
युद्ध का इतिहास बताता है, ‘वॉलोंग और युद्ध के अन्य क्षेत्रों में नियोजित रणनीति की तरह ही चीनियों ने इस शांति के दौरान अपने सैनिकों और हथियारों को और मजबूत कर लिया. उन्होंने चुशुल सेक्टर में एक रेजिमेंट और एक बटालियन तैनात कर ली थी. ये सैन्य बल मोर्टार, मध्यम और हल्की मशीन गनों और आर्टिलरी जैसे हथियारों से लैस थे.’
दूसरी ओर भारतीयों ने युद्ध विराम से पहले अपने सैनिकों के अतिरिक्त बल के बाद चुशुल सेक्टर में अपने सैनिकों की संख्या को फिर से मजबूत नहीं किया. उनका पूरा ध्यान लेह की सुरक्षा पर था.
इस सबके अलावा सर्दी भी शुरू हो रही थी. भारतीय सैनिकों की कोई भी टुकड़ी इस मुश्किल मौसम में लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं थी. न तो उनके पास शून्य से नीचे के तापमान के लिए कपड़े थे और न ही उन्हें लाने का समय था. नतीजतन कई सैनिकों को फ्रॉस्टबाइट यानी ठंड के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
रेजांग ला में अचानक से शुरू हुई जंग
18 नवंबर 1962 को सुबह-सुबह चीन ने रेजांग ला और गुरुंग हिल दोनों पर एक साथ हमला बोल दिया.
लगभग तड़के 4 बजे चीनियों की एक बटालियन ने रेजांग ला में तैनात भारतीय सैनिकों पर हमला करना शुरू कर दिया. हल्की मशीनगनों से लैस, चीनियों ने 13 कुमाऊं के सैनिकों द्वारा संरक्षित रेजांग ला में भारतीय चौकियों के ललाट पर निशाना ताना था.
युद्ध इतिहास के मुताबिक, दुश्मनों से बचने के लिए खोदे गए गढ्ढ़ों में बैठे भारतीयों ने जवाबी हमला बोला और 3 इंच के मोर्टार एवं हथगोले से ताबड़तोड़ गोलीबारी शुरू कर दी. करीब एक घंटे तक दोनों सेनाओं के बीच भीषण गोलीबारी का दौर चलता रहा. फिर अचानक से कुछ देर के लिए खामोशी छा गई. भारतीयों ने पहले हमले को सफलतापूर्वक विफल कर दिया था. 5.40 बजे एक बार फिर चीनियों ने मोर्टार और बंदूको की आग से हमला करना शुरू कर दिया. हालांकि संचार लाइनों को नष्ट करने के अलावा वो ज्यादा कुछ नुकसान नहीं कर पाए थे.
नतीजतन, चीनियों ने ट्रैक बदल दिया और रेजांग ला में चौकियों पर से हमला करने का फैसला किया. एक काउंटर के तौर पर कुमाऊंनी अपनी खाइयों से बाहर निकल आए थे. उन्होंने आमने-सामने की इस लड़ाई में बंदूकों के बट से हमला किया और उनसे जबरदस्त तरीके से हाथापई करने लगे. चीनियों पर पॉइंट-ब्लैंक रेंज से 3 इंच के मोर्टार भी दागे गए.
युद्ध इतिहास में लिखा गया है कि सैनिकों के मृत शरीर और खून के घातक निशान को पीछे छोड़ते हुए ये लड़ाई बेहद मुश्किल और कड़वी थी. भारतीय मशीनगनों ने रात 10 बजे फायरिंग बंद कर दी. रेजांग ला में भारतीयों और चीनी दोनों को भारी नुकसान हुआ. रेजांग ला में तैनात 112 भारतीय सैनिकों में से सिर्फ 14 ही जिंदा बच पाए थे.
युद्ध का इतिहास बताता है कि एक साल बाद 1963 में भारतीय रेड क्रॉस ने रेजांग ला का दौरा किया और शवों को बरामद किया था. उन्होंने देखा कि वह जगह फील्ड ड्रेसिंग (बेंडेज) और खून से भरी पड़ी थी. यह वहां हुए भारी नुकसान का संकेत था. भारत ने मेजर शैतान सिंह को रेजांग ला में उनकी बहादुरी के लिए सर्वोच्च युद्धकालीन वीरता पुरस्कार ‘ परम वीर चक्र’ से सम्मानित किया था.
यह भी पढ़ेंः छत्तीसगढ़ में 4 लोगों ने किया 32 साल की नर्स के साथ रेप, एक नाबालिग समेत 3 अरेस्ट
गुरुंग हिल में खूनी मुठभेड़
18 नवंबर को 5.30 बजे चीनियों ने गुरुंग हिल में 1/8 गोरखा राइफल्स की भारतीय चौकियों पर घातक बमबारी शुरू कर दी. भारतीय सैनिकों ने अपने हौंसले और बहादुरी से काफी देर तक चीनी सैनिकों का सामना किया, लगभग 8.00 बजे चीनियों ने गुरुंग हिल के कुछ हिस्सों पर आखिरकार कब्जा कर ही लिया. संघर्ष करते हुए भारतीय कंपनी कमांडर ‘तेज बहादुर गुरुंग’ ने अपने सैनिकों की हौंसला अफजाई करते हुए पारंपरिक गोरखा खुकरी ‘एक घुमावदार चाकू’ से चीनियों को पहाड़ी से दूर खदेड़ दिया था. युद्ध इतिहास बताता है कि सुबह 10 बजे तक गुरुंग हिल फिर से भारत के कब्जे में वापस आ गया था.
चीनियों ने तब दूसरा हमला किया. अब पहले से भी ज्यादा भारी गोलाबारी की जा रही थी. संख्या में दुश्मन की फौज से काफी कम होने के कारण गोरखा सैनिकों को आखिरकार हार माननी पड़ी. और फिर चीनियों ने गुरुंग हिल के आगे के हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया. युद्ध के इतिहास के आंकड़ों से पता चलता है कि इस संघर्ष में गोरखा राइफल्स के 50 से ज्यादा सैनिकों की मौत हो गई थी.
नतीजतन, 114 ब्रिगेड ने गुरुंग हिल से सभी सैनिकों को वापस आने का आदेश दिया और उन्हें चुशुल के पश्चिम में पहाड़ों पर तैनात कर दिया गया. यह लेह की रक्षा के लिए एक बड़ी सैन्य प्राथमिकता के एवज में था. भले ही सेना ने आकलन किया कि सैनिक अधिक समय तक टिके रहेंगे, लेकिन नुकसान और घटती सैन्य समानों की घटती स्पलाई अब उनकी तैनाती को सही नहीं ठहरा रही थी. आधिकारिक इतिहास नोट करता है, ‘एक सफल बचाव के बावजूद, 19/20 नवंबर की रात को वापसी का आदेश दिया गया था.’
चीनियों ने वापस जाते भारतीय सैनिकों का पीछा करने की कोशिश की और न ही वे हवाई क्षेत्र पर कब्जा जमाते नजर आए. ऐसा लगता है जैसे चीनी भारतीयों को हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल से वंचित करके ही काफी संतुष्ट थे.
हालांकि चीन की तरफ भी सैनिकों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. उन्हें भारतीयों ने कड़ी टक्कर दी और इसे एक करीबी मुकाबला बना दिया. आधिकारिक युद्ध इतिहास का तर्क है कि ज्यादा क्षमता में काबिल सैनिक और हथियारों की आपूर्ति के साथ भारत शायद रेजांग ला और गुरुंग हिल में चीनियों को हरा सकता था और यहां तक कि युद्ध के रूख को भी बदल सकता था.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः मुस्लिम सिक्कों पर शिव के बैल: हिंदू तुर्क शाह की अजीब दुनिया