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Monday, 23 December, 2024
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जॉर्ज फर्नांडिस कैसे बने गरीबों के मसीहा…

वैसे तो जॉर्ज ने गरीबों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी लेकिन सबसे प्रमुख लड़ाई वो हड़ताल थी जिसने उन्हें गरीबों का मसीहा बना दिया. वह थी 1974 की रेलवे की हड़ताल.

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नई दिल्ली: लंबे समय से बीमार चल रहे पूर्व रक्षा मंत्री और गरीबों के मसीहा कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडिस ने दिल्ली के एक निजी अस्पताल में आखिरी सांस ली. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में देश के रक्षामंत्री रहे जॉर्ज का राजनीतिक सफर एक विद्रोही राजनेता का सफर रहा है. पाकिस्तान के खिलाफ 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान जॉर्ज ही देश के रक्षामंत्री थे. जॉर्ज जितने बड़े समाजवादी थे, गरीबों के मसीहा कहे जाते थे उनकी जिंदगी उतनी ही पेचीदा थी.

जॉर्ज का जन्म 3 जून 1930 को मैंगलोर के कैथोलिक परिवार में हुआ था. जॉर्ज छह भाई-बहनों में सबसे बड़े थे. जॉर्ज ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि उनकी मां किंग जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी समर्थक थीं, इसलिए उन्होंने अपने सबसे बड़े बच्चे का नाम जॉर्ज फर्नांडिस रखा. जॉर्ज के नाम का असर ही था कि वह अपनी निजी साधारण जिंदगी से गरीबों के मसीहा के रूप में उभरे. जॉर्ज पिछले नौ सालों से अल्जाइमर (भूलने) की बीमारी से पीड़ित थे. फिलहाल वह अपनी पत्नी लैला कबीर और सीयान फर्नांडिस के साथ ही रह रहे थे.

कैसा था बचपन

बताते हैं कि जॉर्ज की मां एलिस उन्हें पादरी बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्हें 16 साल की उम्र में बेंगलुरु के सेंट पीटर सेमिनरी में भेज दिया गया, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा और किसी तरह उन्होंने वहां दो साल बिताया और 19 साल की उम्र में सेमिनरी छोड़ कर मुंबई चले गए. मुंबई उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. वह समय था 1949 जब जॉर्ज काम की तलाश में मुंबई आए, चूंकि मुंबई में उनका कोई नहीं था और काम मिलना आसान नहीं था तब वह मुंबई की सड़कों पर ही सोया करते थे. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि नौकरी न मिलने तक उन्होंने चौपाटी की रेत पर सोकर रातें काटीं थीं, किस तरह पुलिस वाले आधी रात में आकर चौपाटी पर सोए हुए लोगों को जगाता था और जाने को कहता था. सभी एक साथ वहां से उठ जाते, लेकिन पुलिस वाले के जाते ही सारे फिर से वहीं सो जाते थे.

कैसे बने ‘गरीबों का मसीहा’ और ‘अनथक विद्रोही’

मुंबई में उन्हें एक अखबार में प्रूफ रीडर की नौकरी मिली. वहीं उनकी मुलाकात अनुभवी संघ के नेता प्लैसिड डी मेलो और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से हुई. यहां से शुरू हुआ उनके गरीबों के मसीहा बनने का सिलसिला. चूंकि उन्होंने खुद चौपाटी की रेत पर रातें गुजारी थीं तो उन्होंने गरीबों और उनके हो रहे शोषण को करीब से देखा था. वह अब ट्रेड यूनियन आंदोलन में शामिल हुए और प्रमुख मजदूर नेता की कतार में शामिल हो गए. उन्होंने स्‍मॉल स्‍केल सर्विस वाली इंडस्‍ट्री जैसे होटल और रेस्‍तरां में काम करने वाले मजदूरों के हक की लड़ाई लड़नी शुरू की. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. फर्नांडिस 1950 आते-आते टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए.


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फर्नांडिस की एक पहचान और भी थी कि वह थे उनके बिखरे बाल, खादी का तुड़ा-मुड़ा कुर्ता और पायजामा. पतले चेहरे वाले फर्नांडिस बिखरे बालों और घिसी हुई रबड़ की चप्पलों और मोटे फ्रेम वाले चश्मे में एक्टिविस्ट लगा करते थे. उनकी छवि उन्हें ‘अनथक विद्रोही’ (रिबेल विद्आउट ए पॉज़) बताती थी, जिसकी वजह से कुछ लोग उन्हें विद्रोही कहने लगे थे. मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग उन्हें बदमाश और तोड़-फोड़ करने वाला नेता कहते रहे हैं, लेकिन मुंबई के सैकड़ों-हजारों गरीबों और कर्मचारियों के लिए वह किसी मसीहा से कम नहीं थे.

वैसे तो उन्होंने गरीबों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन सबसे प्रमुख हड़ताल जिसने उन्हें गरीबों का मसीहा बना दिया वह थी 1974 की रेलवे की हड़ताल. उस समय जॉर्ज अखिल भारतीय रेल फेडरेशन के राष्ट्रपति थे. उन्होंने इस दौरान ऑल इंडिया रेलवे स्‍ट्राइक का बिगुल फूंका. रेलवे के कर्मचारी पिछले दो दशकों से शिकायत करते आ रहे थे, लेकिन उनकी बातें सुनी नहीं जा रही थीं. फिर एक दिन कर्मचारियों ने हड़ताल का एेलान कर दिया. यह वह दौर था जब संचार के बहुत साधन नहीं थे, लेकिन इस हड़ताल में लगभग पूरा देश शामिल हो गया था. हालांकि 1947 से 1974 के बीच में तीन वेतन आयोग का गठन किया गया था. लेकिन उनमें से एक के अंतर्गत भी कर्मचारियों की सुविधाओं का कोई खयाल नहीं रखा गया. 1974 फरवरी में नेशनल कॉर्डिनेशन कमीटी फॉर रेलवेमेन स्ट्रगल (एनसीआरआरएस) का गठन किया गया. इसका गठन रेलवे यूनियंस, केंद्रीय ट्रेड यूनियंस और राजनीतिक दलों को इकट्ठा करने के लिए किया गया. इन सबने मिलकर 8 मई 1974 से हड़ताल शुरू कर दी.

मुंबई में इलेक्ट्रिसिटी और ट्रांसपोर्ट वर्कर्स के साथ-साथ टैक्‍सी ड्राइवर्स भी इस आंदोलन से जुड़ गए. गया, बिहार के हड़ताली कर्मचारी अपने परिवार के साथ रेल की पटरियों पर लेट गए. उस समय के मद्रास में इंटीग्रल कोच फैक्टरी के 10 हजार वर्कर्स ने दक्षिण रेलवे हेडक्‍वार्टरर से हड़ताली वर्कर्स के पक्ष में अपना सहयोग दिखाने के लिए मार्च निकाला. पूरे देश में हड़ताल का शोर मच गया. बताते हैं कि यह आज तक की सबसे बड़ी हड़ताल थी. हड़ताल लंबी चली. यूनियन लीडर के रूप में उभरे जॉर्ज इस हड़ताल में खुद भी बैठे रहे. बताते हैं कि उसके बाद जॉर्ज जो भी कहते वर्कर उन्हें ही सुना करते. बताते हैं कि जॉर्ज कोई भी हड़ताल तीन दिन से अधिक समय तक चलने नहीं देते थे, लेकिन अगर मांगें नहीं मानी जाती थीं तो वह खुद यूनियन के परिवार वालों के पास खाना लेकर पहुंच जाया करते थे. उनकी यही बातें उन्हें गरीबों का मसीहा बना दिया.

 जॉर्ज द जायंट किलर

समय-समय पर इन्‍होंने मजदूरों के हक में कई तरह के आंदोलन किए, जो अभी तक जारी रहे. 1961 से 1968 तक जॉर्ज मुंबई म्‍यूनिसिपल कॉरेपोरेशन के सदस्‍य रहे. 1961 में सिविक इलेक्‍शन जीता.

जॉर्ज फ़र्नांडिस की देश में सबसे पहली पहचान 1967 में हुई थी, उस दौरान उन्होंने बंबई दक्षिण लोकसभा सीट से कांग्रेस के एक कद्दावर नेता एस.के. पाटिल को भारी मतों से हरा दिया था. पाटिल को हराना इतना बड़ा कारनामा था कि उनका नाम ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ पड़ा. उस दौरान जॉर्ज बंबई म्यूनिसिपिल काउंसिल में काउंसलर थे. एक पत्रकार के विक्रम राव जो उनके सहयोगी भी थे बताते हैं कि वह चुनाव का समय था जब उन्होंने एस के पाटिल ने संवाददाता सम्मेलन में पूछा कि आप तो बंबई के बादशाह हो, एक काउंसलर जॉर्ज आपके खिलाफ चुनाव लड़ने जा रहा है. चूंकि पाटिल कभी हारा नहीं था और कद्दावर नेता था तो उसने पलट कर सवाल कर दिया, ये जॉर्ज कौन है? पत्रकार ने फिर सवाल पूछा अगर आप हार गए तो? पाटिल ने तुनक मिजाजी में कहा- मैं हार नहीं सकता हूं, अगर भगवान भी आ जाएं तो मुझे हरा नहीं सकते हैं…दूसरे दिन अखबारों की हेडिंग बनीं ‘ईविन गॉड कैन नॉट डिफ़ीट मी, सेज़ पाटिल.” उसी एक टिप्पणी पर जॉर्ज फ़र्नांडिस ने पोस्टर छपवाए, ‘पाटिल कहते हैं, भगवान भी नहीं हरा सकते उनको. लेकिन आप हरा सकते हैं इस शख़्स को.’ ये शुरुआत थी पाटिल के पतन की और जॉर्ज के उदय की. पाटिल जॉर्ज फ़र्नांडिस से 42 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए.

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