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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशबेघर और प्रवासी मजदूर मानते हैं कि काश लॉकडाउन से पहले वो दिल्ली छोड़ पाते

बेघर और प्रवासी मजदूर मानते हैं कि काश लॉकडाउन से पहले वो दिल्ली छोड़ पाते

रिक्शा-खींचने वालों और विक्रेताओं ने कहा कि वे अपने रिक्शा या गाड़ियों को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, और रैन बसेरों में पर्याप्त पार्किंग और सुरक्षा व्यवस्था नहीं है.

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नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के 35 वर्षीय बोझा उठाने और सड़कों पर झाड़ू लगाने वाले मोहम्मद शौकत परेशान हैं. कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन ने उनकी आमदनी के सारे स्रोत बंद कर दिए हैं और जो उन्होंने पैसे बचाकर रखे हुए थे वो भी अब तेजी से खत्म हो रहे हैं. वे जानते हैं कि पैसों के लिए उनका परिवार इंतज़ार कर रहा है. इस बात की चिंता उसे परेशान कर रही है.

शौकत भारत के उन सैकड़ों या यूं कहें कि हज़ारों झाड़ूवालों, रिक्शाचालकों और दिहाड़ी मजदूरों में से हैं जो दिल्ली में नोवेल कोरोनावायरस के फैलाव को रोकने के लिए लगे कर्फ्यू की मार झेल रहे हैं. कोरोना ने अभी तक देश में नौ लोगों की जान ले ली है.

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगातार घरों में रहने की अपील और सोशल डिस्टेंसिंग के बीच देशभर के बाज़ार बंद पड़े हैं.

जरूरी सामानों वाली दुकानें जैसे की राशन, मुर्गे की दुकान, फल और सब्जी कि दुकानें खुली रहेंगी. प्रशासन द्वारा लगाए गए कर्फ्यू के मद्देनज़र दिल्ली के सभी बाज़ार वीरान पड़े हैं. सड़कों पर झाड़ू लगाने वालों से लेकर रिक्शाचालक जो किसी भी बाज़ार का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं, वो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं.

इन मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से आए लोगों का होता है. पिछले हफ्ते से ही ये लोग अपने-अपने घरों की तरफ लौट रहे हैं. कुछ लोग इस आशा में यहीं रह गए कि स्थिति बेहतर होगी.

हालांकि ऐसा नहीं हुआ. जबकि लॉकडाउन उनकी हर दिन की मजदूरी के साथ अब कई और समस्या भी लेकर आ रहा है. खासकर रहने, खाने और शौचालय की समस्या के रूप में.

Empty roads in Delhi on account of the lockdown imposed to check the COVID-19 pandemic
कोरोनावायरस महामारी के बीच खाली पड़ी सड़कें | प्रवीन जैन/दिप्रिंट

अब इन लोगों का वापस घर जाना भी कोई विकल्प नहीं है. सभी ट्रेन 14 अप्रैल तक के लिए रद्द कर दी गई हैं और दिल्ली के सभी सीमाओं पर पाबंदियां लगी हुई हैं.


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नई दिल्ली के हौज़ खास स्थित कुतुब इंस्टीट्यूशनल क्षेत्र में दिप्रिंट ने शौकत से बात की जहां उसने एक नीले तिरपाल से अस्थायी रहने के लिए आशियाना बनाया हुआ है.

चेहरे पर उड़ती मक्खियों के बीच उसने पछतावे भरे लहज़े में कहा कि जब उसके पास घर वापस जाने का अवसर था तब वो नहीं जा सका. उसने कहा, ‘पुलिस लगातार हमें मार रही है और डरा रही है…मैं छह घंटे रिक्शा चलाने के बाद इस जगह पर आकर आराम करता हूं…..मैंने पिछले 13-14 घंटों से कुछ नहीं खाया है.’

शौकत ने कहा कि वो फ्रीट लोडर के तौर पर सुबह में काम करता है और शाम को नानखटाई बेचता है. इससे उसे हर दिन 800-1200 रुपए की कमाई हो जाती है. सोने की जगह तलाशना भी पहले आसान था.

उसने कहा, ‘मेरी कमाई के दोनों स्रोत प्रभावित हो चुके हैं….मेरे पास अब कुछ हज़ार रुपए ही बचे हैं जिसे मैंने बचाया हुआ है, वो भी जल्द ही खत्म हो जाएंगे चूंकि मुझे रिक्शा मालिक को किराया भी चुकाना होता है.’

शौकत अपने घरवालों को कुछ पैसे भेजना चाहता है लेकिन वो नहीं कर पा रहा है. ‘मैं अब बेहद चिंता में हूं क्योंकि मेरा परिवार पैसों के लिए इंतजार कर रहा होगा.’

बिना किसी मज़े के घर में बंद हैं

झारखंड के लातेहार के रिक्शाचालक सतीश गौतम जो आईटीओ क्षेत्र में काम करते हैं, वे मौलाना आजाद डेंटल इंस्टीट्यूट के पास मीरदर्द मार्ग स्थित रिक्शा गैराज में अपनी रात गुजार रहे हैं. जो कि राजधानी में उनका अस्थायी घर है.

उनका इस शहर में केवल गंदा बैग है, जिसे जीर्ण शीर्ण दीवार में ड्रिल किए गए कील पर लटका दिया गया है. इसमें कुछ कपड़े, एक साबुन, एक टूथब्रश, कंघी और दर्पण, और बालों के तेल के कुछ पाउच शामिल हैं. पूरी दीवार विभिन्न रंगों और आकारों के बैगों के साथ पटे पड़े हैं. सभी रिक्शा खींचने वालों, विक्रेताओं और फेरीवालों से संबंधित हैं जिनका ये अस्थायी पता है.

गैराज का दृश्य निराश करने वाला है. दर्जनों लोग बिना पंखे वाले कमरे में जमीन पर पड़े हैं. दिप्रिंट से बात करते हुए गौतम ने अपनी टी-शर्ट उतारकर पेट के निचले हिस्से पर बने निशान को दिखाया.

उसने कहा, ‘पिछले साल असफ अली रोड पर हुई दुर्घटना के बाद मेरी सर्जरी हुई है….जब मैं रिक्शा चलाता हूं तब बहुत दर्द होता है.’ ‘मैं नजदीकी मोहल्ला क्लिनिक से पैनकिलर लेता हूं लेकिन पिछले कुछ दिनों से या तो मुझे जाने नहीं दिया गया या मैंने क्लिनिक को बंद पाया है.’

Police personnel on patrol during the lockdown in Delhi
लॉकडाउन के दौरान पेट्रोलिंग करते पुलिसकर्मी | प्रवीन जैन/दिप्रिंट

गौतम ने कहा, ‘मेरे पास कुछ गोलियां बची हैं, लेकिन मुझे इनका सेवन करने से पहले खाने की ज़रूरत है. इसके लिए, मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरह रिक्शा खींचना होगा क्योंकि भोजन कहीं भी पास में उपलब्ध नहीं है.’ ‘इसके अलावा, पिछले कुछ दिनों से आस-पास के शौचालयों की सफाई नहीं की गई है, जिसका मतलब है कि हमें या तो मेडिकल कॉलेज में जाना है या रेलवे स्टेशन पर.’

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शनिवार को घोषणा की थी कि सभी आश्रयगृहों तक और सभी बेघर लोगों तक खाना पहुंचाया जाएगा. ये कदम खासकर रोज़ कमाने वाले लोगों के लिए उठाया गया था. हालांकि दिप्रिंट से बात करते हुए इन मजदूरों ने इस पेशकश को लेने में अनिच्छा जताई.

रिक्शा-खींचने वालों और विक्रेताओं ने कहा कि वे अपने रिक्शा या गाड़ियों को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, और रैन बसेरों में पर्याप्त पार्किंग और सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं है.


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बिहार के अररिया के 32 वर्षीय सुग्रीव कुमार जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली के शहादरा क्षेत्र में रिक्शा चलाते हैं वो कहते हैं कि वो चिंतित हैं कि उनके रिक्शा चोरी न हो जाए इसलिए वे इसी में सोते हैं.

उन्होंने कहा, ‘मेरे गांव के कुछ रिक्शाचालक जो एम्स और सफदरजंग के नज़दीक काम करते हैं, वे रात में फुटपाथ पर सोते हैं. लेकिन रात में फुटपाथ पर सोना बहुत खतरनाक हैं क्योंकि अपराधी अकसर उनकी कमाई छीन लेते हैं.’

नेशनल हॉकर फेडरेशन के राष्ट्रीय सचिव उपेंद्र गुप्ता ने कहा कि लॉकडाउन ने फेरीवालों और हॉकर्स की जिंदगी को पूरी तरह से तबाह कर दिया है. उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन से पहले के दिनों में भी, वे 500-800 रुपये की तुलना में एक दिन में सिर्फ 200-300 रुपये कमा रहे थे. इसके अतिरिक्त, भोजन, आवास और अन्य आवश्यक सुविधाओं की कमी उन्हें मुश्किल में डाल रही है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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