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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशस्मैक और 'सॉल्यूशन' का जमकर सेवन कर रहे हैं दिल्ली के बेघर बच्चे, उनके लिए यह दर्द से मिलने वाली पनाह

स्मैक और ‘सॉल्यूशन’ का जमकर सेवन कर रहे हैं दिल्ली के बेघर बच्चे, उनके लिए यह दर्द से मिलने वाली पनाह

दिल्ली की सड़कों पर रहने वाले कई सारे बेघर बच्चों के लिए ‘नेक्स्ट हाई’ (नशे का अगला आनंद) की तलाश में लगे रहना ही एकमात्र ऐसी चीज है जो उनकी 'जिंदगी को जीने लायक बनाती है.  इनमें से कुछ तो सिर्फ 8 साल की उम्र के हैं, और ज्यादातर अपने लिए कोई 'रेस्क्यू' नहीं चाहते हैं.

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नई दिल्ली: ‘अमीना’ दिल्ली के कनॉट प्लेस में खाने-पीने और खरीदारी करने आने वाले परिवारों को चमकीले गुब्बारे बेचने का काम करती है. जब उसके अपने ‘ब्रेक’ का समय होता है, तो वह चमकदार शोरूम्स की कतारों से दूर एक शांत सी गली में चली जाती है. वहां वह अपना कुर्ता ऊपर उठाती है और अपने पजामे में छिपी एक छोटी सी ट्यूब निकालती है. आठ महीने की गर्भवती होने के साथ ही उसके लिए यह थोड़ा कठिन काम है. एक नीले रूमाल पर थोड़ा सा तरल पदार्थ डालकर, वह एक गहरी सांस लेती है, और फिर उसके सूखे होंठों पर फूटती मुस्कान के साथ पूछती है, ‘इसके बिना जिंदगी ही क्या है?’

18 साल की हो चुकी अमीना अपनी गर्भावस्था (प्रेग्नेंसी) के बारे में बात नहीं करना चाहती हैं. उसके पेट पर एक बना चीरे का बड़ा सा निशान उस बच्चे की याद दिलाता है जिसे उसने पिछले साल जन्म के समय ही खो दिया था, लेकिन वह उस बारे में भी बताना चाहती. ट्यूब में रखा ओमनी नामक सोल्युशन , जिसे वह ‘सोलुसन’ कहती है, उसकी सभी समस्याओं का समाधान है. ओमनी एक वल्केनाइजिंग तरल पदार्थ है जिसका अक्सर एक इनहेलेंट (सूंघनी) के रूप में दुरुपयोग किया जाता है.

उसी गली में, अमीना का जीवनसाथी ज़ाकिर और उसके 16 वर्षीय भाई असीम को भी तब तक दुनिया की  कोई परवाह नहीं है, जब तक उन्हें उनका रूमाल सूंघने को मिल रहा है. आसिम का कहना है, ‘इसके बिना तो मैं अपनी जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता. यह हमें हमारा दर्द, खुशी, भूख और प्यास सब कुछ भुला देता है.’

आसिम के भूरे बालों उसके चेहरे पर गिरते हुए नजर आते हैं और इस बीच फरवरी की तेज धूप से अपनी लाल आंखों को बचाते हुए वह अचानक से अपना एक टूटा हुआ दांत निकाल लेता है. उसके दांतों के बीच आये गैप से बहने वाले खून से बेपरवाह आसिम कहता है, ‘यह मुझे बहुत परेशान कर रहा था. अब जिंदगी में सब अच्छा है.’

पिछले सप्ताह के कई दिनों के दौरान दिप्रिंट ने कम-से-कम 20 ऐसे बच्चों से मुलाकात की, जिनमें से कुछ तो सिर्फ 8-10 साल के थे. ये सब मध्य दिल्ली और पुरानी दिल्ली की सड़कों पर रहते हैं और इनहेलेंट और अन्य नशीली दवाओं के आदी हो चुके हैं.

कई युवा नशेड़ियों का अड्डा बन चुके दिल्ली के पुराने यमुना ब्रिज इलाके के पास की एक गली में रहने वाला एक बच्चा | फोटो: बिस्मी तसकीन | दिप्रिंट

नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के एनजीओ ‘चिल्ड्रन फाउंडेशन’ की साल 2021 की एक रिपोर्ट में ‘बहुत सतर्कता’ के साथ दिए गए अनुमान के अनुसार दिल्ली की सड़कों पर कम-से-कम 60,000 बच्चे रहते हैं. ऐसे बच्चों के बीच ड्रग एब्यूज (नशीली दवाओं का दुरुपयोग) एक अच्छी तरह से प्रलेखित (डॉक्युमेंटेड) समस्या है, हालांकि इस आबादी की अस्थायी और अप्रमाणित प्रकृति के कारण ऐसे बच्चों सटीक संख्या का पता लगाना मुश्किल है.

हालांकि, साल 2017 में दिल्ली सरकार और नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर, एम्स द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित दिल्ली के ‘स्ट्रीट चिल्ड्रन’ के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि 7,900 से अधिक ‘स्ट्रीट चिल्ड्रन’ (सड़कों पर डेरा डालने वाले बच्चे) इनहेलेंट के आदी थे, जो उन्हें एक क्षणिक परमानंद (यूफोरिक हाई) तो देते हैं, लेकिन इसके कारण उनमें मतिभ्रम, अंगों की क्षति की समस्या आती है और इससे उनकी मृत्यु भी हो सकती है.

इसी सर्वेक्षण में यह भी पाया गया था कि 9,000 से अधिक बच्चे शराब का दुरुपयोग करते थे; 5,600 भांग का सेवन किया करते थे, और 1,200 से अधिक ने हेरोइन सहित अन्य ओपिओइड (अफीम से बनाये गए नशीले पदार्थ) का सेवन किया हुआ था.

दिप्रिंट ने जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बात की उनका कहना था कि सड़क पर रहने वाले बच्चों के बीच बड़े पैमाने पर मादक द्रव्यों का सेवन होता है, लेकिन उनमें से अधिकांश का पुनर्वास करना लगभग असंभव है. उनमें से बहुत कम बच्चे मदद चाहते हैं और अक्सर गरीबी, बेघरता, दुर्व्यवहार और अत्यधिक अभाव की निराशाजनक वास्तविकता का सामना करने के लिए कैमिकल हाई (रासायनिक नशे का आनंद लेना) को प्राथमिकता देते हैं.

उन सभी के पास एक कहानी है, एक अतीत है, लेकिन यह शायद ही कभी सुखद होता है. जाकिर बताता है, ‘हमारे पास एक घर है जहां हमारे पिता और हमारा बड़ा भाई और उसकी पत्नी रहते हैं, लेकिन यह कोई ‘घर’ नहीं है. जब हम बच्चे थे तो हमारी मां किसी और मर्द के साथ भाग गई थी.’

अमीना, ज़ाकिर और आसिम के इस टूटेफूटे परिवार के लिए, 80 रूपये में आने वाला ओमनी का एक ट्यूब ही उनके एक दिन लिए के सब कुछ भुला देने वाला बेशकीमती आनंद खरीद लाता है. दूसरों के मामलों में, भीख मांगने या कूड़ा-कचरा चुनने में बिताये गए एक लंबे से दिन के बाद के एक ‘इनाम’ के रूप में स्मैक (जिसे ‘ब्लैक टार’ के रूप में भी जाना जाता है) जैसे ओपिओइड ही काम करते हैं.

लेकिन, हालांकि उनका यह नशा और मतिभ्रम उन्हें उनके वजूद के सदमों से एक अस्थायी पनाह जरूर दिलाता है, मगर एक बार जब वे इस रास्ते पर आ जाते हैं, तो फिर उनके पीछे मुड़ने की उम्मीद बहुत कम ही होती है.


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क्या आप अपने होशोहवास में रहना चाहेंगे?’

दिल्ली के पुराने यमुना ब्रिज क्षेत्र का दृश्य किसी डायस्टोपियन (मनहूसी भरे) मैदान के जैसा दिखता है. करीब 20-30 बच्चे, जिनकी उम्र 8 से 17 साल के बीच है, एक मंदिर के पास जमा हैं. वे इस आस के साथ 21 वर्षीय नकुल के आसपास चक्कर लगा रहे हैं कि शायद वह उनके साथ कुछ स्मैक साझा करेगा.

जैसा कि नकुल बताता है, वह खुद 12 साल की उम्र से ही इस नशीले पदार्थ का सेवन कर रहा है. वह दावा करता है कि वह नशामुक्ति केंद्रों के अंदर और बाहर आता-जाता रहा है और कम-से-कम चार बार बाल आश्रय गृहों से बाहर भाग चुका है. वह कंधे उचकाते हुए कहता है, ‘यह आपको एक स्वर्ग जैसा एहसास कराता है. ‘

इसी समूह के बच्चों में से एक 10 वर्षीय रोहित भी है. वह बताता है कि जब वह बहुत छोटा था तभी उसके माता-पिता की मौत हो गई थी और जब वह पांच साल का हुआ तो उसके चाचा उसे उत्तर प्रदेश से दिल्ली ले आए थे. रोहित अब अपने परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य है. वह भीख मांगता है और मंदिर में आने वाले भक्तों के जूतों की हिफाजत करने के बदले उनसे 10-20 रुपये कमा भी लेता है. वह कहता है, ‘मेरा चाचा कोई काम-धंधा नहीं करता, इसलिए मुझे हम दोनों का पेट भरना पड़ता है.’

इस समूह के पास ही 13 साल की किरण अपने खुद के छोटे से गिरोह के साथ बैठी है. वह बड़े गुणी अंदाज में बताती है, ‘ये लड़के स्मैक का सेवन करते हैं. बड़े लोग इसे बाज़ार से ख़रीदते हैं, और फिर ये लड़के जो भी भीख मांग कर लाते हैं, उससे उन्हें भुगतान करते हैं.’ किरण जोर देकर कहती है कि वह स्वयं ड्रग्स से दूर ही रहती है, लेकिन नकुल तुरंत उसकी बात काटते हुए कहता है, ‘वह सरासर झूठ बोल रही है! वह इन लड़कों के साथ ही स्मैक लेती है.’ इसके बाद, दोनों जल्द ही एक-दूसरे पर चिल्लाना शुरू कर देते हैं और अपशब्दों (गालियों) के धाराप्रवाह चयन में दोनों ही बराबर दिखते हैं.

उनकी इस लड़ाई से बेपरवाह 13 वर्षीय राहुल अपनी दोपहर की झपकी के लिए पास ही में लेट जाता है. वह अपनी नशे की खुराक पहले से ही ले चुका है. एक और लड़का सलमान, जिसकी उम्र लगभग 11 वर्ष है, की आंखें टेढ़ी हैं और दांत दागदार दिखते हैं, लेकिन फिर भी वह यही दावा करता है कि वह सिर्फ गुटखा खाता है और फिर जल्दी से वहां से चला जाता है. किरण कहती हैं, ‘उसे डर है कि एनजीओ वाले उसे उठा ले जायेंगें.’

फिर अचानक से एक महिला प्रकट होती है. वह 40 के दशक की आयु लगती है, और एक चमकदार काले पटियाला सूट के साथ मैच करता एक भारी हार पहने हुई है. वह बच्चों को वहां से भागने का हुक्म देती है. उनमें से अधिकांश ऐसा करने के लिए बहुत अधिक नशे में हैं, लेकिन फिर उनकी मुस्कान फीकी पड़ जाती है और वे उसके हुक्म की तामील करते हैं.

नकुल फुसफुसाते हुए बताता है कि उस महिला का नाम मुस्कान है और वह इस इलाके को काबू में रखती है.

यह पूछे जाने पर कि क्या यहां के बच्चे किस तरह का नशा करते हैं, वह बड़ी बेसब्री के साथ जवाब देती हैं: ‘और क्या करेंगे? वे भीख मांगने और कूड़ा बीनने जैसे काम बिना किसी नशे के कैसे करेंगे? आप बताइये, क्या अब इस तरह की जिंदगी में जीवित रह पाओगे, दूसरे लोगों की गंदगी साफ करोगे, और फिर भी अपने होशो-हवास में रहना चाहोगे?’

उसकी बातों से यह साफ दिखता है कि वह नहीं चाहती कि लोग बहुत अधिक सवाल करें. इन बच्चों के बीच की उसकी भूमिका स्पष्ट नहीं है, लेकिन लगभग एक मातृत्व भाव से ही वह किरण के बाल खींचने के लिए एक बड़े हो चुके ड्रग एडिक्ट को फटकार लगाती है.

इस जगह से कुछ ही मीटर की दूरी पर एक पार्क है, जिसमें बच्चे झूलों और सी-सॉ पर हंसते हुए खेल रहे हैं. हालांकि, और अधिक बारीकी से देखें तो वहां कुछ अन्य बच्चे भी हैं, जिनकी आंखें सुनी और हाथ मैले हैं. इन्ही हरियाले रास्तों में से एक में जग्गी बैठा है, जो अपनी किशोरावस्था में लगता है. वह बड़ी मुश्किल से अपना सिर उठा पाता है. वह एक सवाल का जवाब देने की कोशिश तो करता है, लेकिन उसकी आवाज वाक्य के बीच में ही धीमी पड़ जाती है, और फिर उसकी लाल आंखें आसमान पर टिक जाती हैं.


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रेस्क्यू’ से बचना

दिप्रिंट ने जिन युवा एडिक्ट्स से बात की, उनमें से अधिकांश बातचीत से ज्यादा अपने नशे के आनंद में रुचि रखते थे. केवल एक चीज जिसने वास्तव में उनका ध्यान खींचा वह थी किसी गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) या आश्रय स्थल का उल्लेख किया जाना. अधिकांश के लिए, यह जल्दी से मौके से भाग जाने का संकेत होता था.

सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ ‘सलाम बालक ट्रस्ट’ के तहत आश्रय गृह की देखभाल करने वाले वासिफ खान कहते हैं, एनजीओ के प्रति यह घृणा या विद्वेष काफी आम बात है.

खान बताते हैं, ‘कचरा बीनने, ड्रग्स बेचने और अन्य कामों के लिए उनका इस्तेमाल करने वाले स्थानीय सरगनाओं द्वारा उन्हें बताया गया है कि एनजीओ एक जेल की तरह हैं.’

बच्चों को सड़कों से हटाने के लिए सरकार द्वारा अनिवार्य की गई प्रक्रिया में कई चरण शामिल हैं.

जब कोई एनजीओ किसी बच्चे की नशे की लत वाले और बेघर के रूप में पहचान करता है, तो उसे निकटतम चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूशन (सीसीआई) में ले जाया जाता है. हालांकि, यह उसके अभिभावकों की पहचान किये जाने और उन्हें सूचित किये जाने के बाद ही किया जा सकता है. इस बात का पता लगाने के लिए कि क्या वह यौन उत्पीड़न का शिकार हुआ है या नहीं, उस बच्चे के पूरे चिकित्सकीय इतिहास का पता लगाया जाना होता है. 10 साल से ऊपर की आयु वाले और गंभीर रूप से नशे की लत वाले बच्चों को मेडिकल जांच के बाद नशामुक्ति केंद्र में भर्ती कराया जाता है.

यदि बच्चा अनाथ है या यदि उसके विस्तारित परिवार का पता-ठिकाना ज्ञात नहीं है, तो बच्चे को बाल कल्याण समिति (चाइल्ड वेलफेयर कमिटी-सीडब्ल्यूसी) को सौंप दिया जाता है. ऐसे मामलों में, स्थानीय पुलिस थाने में एक सामान्य डायरी वाली प्रविष्टि (जेनेरल डायरी इंट्री) की जाती है.

हालांकि, कई सारे बच्चों के लिए उन्हें इस तरह से ‘रेसक्यू’ किये जाने (इन हालात से बचाये जाने) का अनुभव सुखद नहीं होता है.

‘सलाम बालक ट्रस्ट’ के ‘चाइल्ड केयर होम’ के अधीक्षक अशोक कुमार इस बात को स्वीकार करते हैं कि सड़कों पर रहने के आदी हो चुके बच्चे ऐसी जगहों पर रहना अजीब और असहज सा महसूस करते हैं.

कुमार कहते हैं, ‘बच्चे को नियमित और सख्त आहार दिया जाता है. उन्हें समय पर उठना, व्यायाम करना, स्वस्थ खाना, पढ़ना और खेलना होता है. सड़कों से लाए गए लगभग सभी बच्चे भाग जाना चाहते हैं. वे दीवारें फांदते हैं और सीसीआई से बाहर निकल जाते हैं.’

खान का आरोप है कि भले ही अक्सर ऐसे मामलों में गुमशुदगी की शिकायतें दर्ज करवाई जाती हैं, लेकिन स्थानीय पुलिस आमतौर पर उन्हें खोजने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करती है. वे कहते है, ‘यह उदासीनता ही है. वास्तव में तो कोई भी उनके लिए कोशिश नहीं करना चाहता; समाज उन्हें पहले ही त्याग चुका है.(उनके प्रति) पर्याप्त सहानुभूति और धैर्य तो है हीं नहीं.‘

वह आगे कहते हैं कि यही उदासीनता माता-पिता या अन्य अभिभावकों तक भी फैली हुई है, जो अपने बच्चों के आश्रय या नशामुक्ति केंद्र में रहने के बजाय उनसे पैसे कमाने की चाहत रखते हैं. खान कहते हैं, ‘नशे की लत से छुटकारा पाने में समय लगता है. ज्यादातर मामलों में, माता-पिता छह महीने के बाद ही अपने बच्चे को वापस ले जाना चाहते हैं. आदर्श रूप से नशामुक्ति के बाद भी उन्हें बच्चे को आश्रय गृह में ही रखना चाहिए, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं होते हैं. हम उन्हें बाध्य तो नहीं कर सकते. इसलिए जब बच्चा वापस उसी सामाजिक घेरे में जाता है, तो वह फिर से उसी जाल में फंस जाता है. यह चक्र खुद को दोहराता रहता है.’

इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज (आईएचबीएएस-इहबास) के पूर्व निदेशक निमेश देसाई कहते हैं कि नशामुक्ति केंद्रों में बच्चे को संभालना भी बेहद मुश्किल होता है, कम-से-कम पहले एक सप्ताह से लेकर दस दिनों तक.

वे कहते हैं, ‘रासायनिक नसे की लत से स्थायी रूप से उबरना पहले से ही मुश्किल होता है. इसके लिए लगातार निगरानी के साथ फॉलोअप की जरूरत होती है. एक अन्य तकनीकी समस्या सोल्युशन – जैसे कि ग्लू सूंघना – वाली लत की है, जहां बहुत कम चिकित्सा उपचार की पेशकश की जाती है. इसमें ज्यादातर काउंसलिंग (मानसिक परामर्श) ही शामिल होता है.’

देसाई बताते हैं कि एडिक्शन कोई अकेली परिघटना नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक आयाम भी हैं. यह अक्सर ‘दोहराए जाने वाले सदमे’ द्वारा लाई गई अन्य स्थितियों के साथ भी होता है. ऐसे मामलों में, नशे की लत एक लक्षण है और जब तक अंतर्निहित समस्याओं का उपचार नहीं किया जाता है, तब तक इसका ठीक होना मुश्किल होता है.

एक अन्य घटक व्यवहार संबंधी समस्याएं हैं जो कानून के साथ टकराव का कारण भी बन सकती हैं. सड़क पर रहने वाले नशेड़ियों द्वारा अपनी लत को पूरा करने के लिए चोरी या चेन की छिनैती करने  जैसे अपराधों का सहारा लेना कोई असामान्य बात नहीं है.

देसाई बताते हैं, ‘लगातार मादक द्रव्यों का सेवन ज्यादातर मामलों में अव्यवस्था और असामाजिक व्यवहार की तरफ ले जाता है.’

खान कहते हैं कि इस रिवायत के कुछ अपवाद भी हैं, जब बच्चे खुद सामने आते हैं और कहते हैं कि वे ड्रग्स से ऊब चुके हैं और नशामुक्ति केंद्र में भर्ती होना चाहते हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘सफलता की ऐसी कहानियां भी हैं, लेकिन ये विरले ही सामने आती हैं.’

वापस कनॉट प्लेस की बात करें तो थकी हुई ‘अमीना’ अपने एक लंबे से दिन के बाद फुटपाथ पर बैठी है. लेकिन जब उससे यह पूछा गया कि क्या वह किसी शेल्टर होम (आश्रय गृह) में जाने को तैयार हैं, तो वह नाराज हो गईं. वह बड़ी जल्दी से अपने गुब्बारे पैक करती है और वहां से जाने को तैयार हो जाती है. वह कुबूल करती है, ‘अगर मैं (ओमनी) सूंघना बंद कर दूँ. तो मैं पागल हो जाउंगी.’

(अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: ऋषभ राज )

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