नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत द्वारा इस महीने की शुरुआत में ‘सेवकों’ को अहंकारी न बनने की चेतावनी देने वाले बयान को व्यापक रूप से भारतीय जनता पार्टी पर परोक्ष कटाक्ष के रूप में देखा गया, लेकिन ऑर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने अपने संपादकीय में कहा कि यह बयान सिर्फ़ भाजपा के लिए नहीं था, जैसा कि विपक्ष ने पेश किया.
केतकर ने सुझाव दिया कि चुनावों के बाद “प्रचार की मानसिकता में न उलझे रहना” महत्वपूर्ण है, ताकि “चल रही राष्ट्रीय चुनौतियों” का समाधान किया जा सके.
उन्होंने कहा, “चुनाव के दौरान जनमत को परिष्कृत करने के बाद संघ आगे बढ़ जाता है; सभी को इसका अनुसरण करना चाहिए. यह संदेश सभी राजनीतिक दलों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, मीडिया घरानों और समाज के लिए है.”
संपादकीय में कहा गया है, “सरसंघचालक (भागवत) ने राजनीतिक स्पेक्ट्रम के दोनों पक्षों के द्वारा जिस तरह से चुनावी कैंपेन किया गया उस पर नाराजगी व्यक्त की. खासकर जिस तरह से टेक्नॉलजी के दुरुपयोग से झूठ फैलाया गया और सामाजिक, धार्मिक, क्षेत्रीय और भाषाई आधार पर दरारें डाली गईं और इन्हें चौड़ी की गईं, विशेष रूप से विपक्षी दलों द्वारा.
उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस की “मौलिक दार्शनिक मान्यताएं” “समाज-केंद्रित परिवर्तन हैं, न कि केवल राजनीति-केंद्रित”, उन्होंने लिखा, “चुनावों की कड़ी प्रतिस्पर्धा की पृष्ठभूमि में सरसंघचालक भागवत के ऐतिहासिक, सामयिक और आंखें खोलने वाले भाषण को इसी प्रकाश में देखा जाना चाहिए. राष्ट्रीय चुनौतियों को कम करने के लिए एक साथ आना और सामूहिक रूप से काम करना इस भाषण का मुख्य संदेश है.”
‘अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले सांसद राष्ट्र की एकता के लिए खतरा’
ऑर्गनाइज़र साप्ताहिक पत्रिका में 2024 के लोकसभा चुनावों में “अलगाववादी तत्वों” की जीत एक प्रमुख मुद्दा रहा.
दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स के प्रिंसिपल राजीव चोपड़ा ने एक लेख में लिखा, “भारत के लोकतंत्र को लंबे समय से दुनिया भर में अग्रणी उदाहरण के रूप में देखा जाता रहा है. हालांकि, प्रमुख मामलों में, लोकतंत्र के अर्थ की गलत व्याख्या की गई और उसे नज़रअंदाज़ किया गया, जिससे देश की एकता और अखंडता को ख़तरा पैदा करने वाले सीमांत और अलगाववादी तत्वों के राजनीतिक मुख्यधारा में आने के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा हुईं.”
उन्होंने लेख में यह भी कहा कि भारत के चुनाव आयोग के लिए चुनावी मानदंडों पर फिर से विचार करने और आम चुनावों और राज्य विधानसभा या स्थानीय निकायों के चुनावों में उम्मीदवारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जांच करने का समय आ गया है.
चोपड़ा ने इंजीनियर राशिद और अमृतपाल सिंह जैसे लोगों के सांसद के रूप में चुने जाने से संसद पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में लिखा.
उन्होंने कहा, “अमृतपाल सिंह के लोकसभा में सीट हासिल करने के साथ ही, भारत की संसद के पवित्र चैंबर्स में उनकी उपस्थिति और बयानबाजी निस्संदेह पूरे राजनीतिक परिदृश्य में हलचल पैदा करेगी. खालिस्तान आंदोलन के मुखर समर्थक के रूप में, अमृतपाल सिंह के भाषण और हस्तक्षेप संसदीय विमर्श में अलगाववादी नैरेटिव को शामिल कर सकते हैं, जिससे अन्य सदस्यों को राष्ट्रीय अखंडता के साथ मुक्त भाषण को संतुलित करने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है.”
लेख में लिखा गया है, “लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अलगाववादी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अलगाव और संभावित रूप से हिंसा की वकालत करते हैं, जो एक राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता और सामाजिक सामंजस्य को कमजोर करते हुए अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करते हैं.”
चोपड़ा ने कहा कि भारत पहले ही छद्म युद्ध के माध्यम से कश्मीर को छीनने की कोशिश में पाकिस्तान द्वारा फैलाए गए सीमा पार आतंकवाद के कारण भारी रक्तपात और दर्द का सामना कर चुका है.
उन्होंने लिखा, “अमृतपाल सिंह के लोकसभा में पहुंचने से उन्हें अपने विभाजनकारी, अलगाववादी एजेंडे को व्यापक स्तर पर लोगों तक पहुंचाने के लिए एक राष्ट्रीय मंच और वैधता मिलेगी.”
मोदी 3.0: नरसिंह राव, वाजपेयी गठबंधन सरकारों के साथ समानताएं
नवीन कुमार द्वारा लिखे गए ऑर्गनाइजर के एक लेख में कहा गया है कि मोदी 3.0 सरकार भारत को आगे ले जाने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी.
कुमार ने लिखा, “‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ की अनिवार्यता के अभाव में और एक विनम्रता को अपनाते हुए, श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई गठबंधन सरकार सुधारों को आगे बढ़ाने, दृढ़ राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था को जारी रखने और ‘मोदी की गारंटी’ सहित भाजपा के मुख्य मुद्दों को संबोधित करने के लिए पर्याप्त मजबूत होगी.”
पिछली गठबंधन सरकारों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री के रूप में पी.वी. नरसिंह राव ने एक गठबंधन सरकार की शुरूआत की और इसमें काफी महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, जिसने भारत को वैश्विक बाजारों के लिए खोल दिया, जिससे आर्थिक विकास का एक नया युग शुरू हुआ.”
1996 और 1998 के प्रयोगों के बाद, भाजपा ने 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व में एक व्यवहार्य गठबंधन सरकार बनाई, जिसने दूसरी पीढ़ी के सफल आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जो पीढ़ीगत सुधारों की तुलना में अधिक तीव्र और तेज थे.
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली नई गठबंधन सरकार का जिक्र करते हुए कुमार ने कहा, “एक बार फिर अच्छे इरादे और उच्च स्तर की ईमानदारी के साथ एक नेता गठबंधन का नेतृत्व करने जा रहा है. मिसालें बताती हैं कि यह सरकार भी देश के लिए ज़रूरी सभी तरह के मज़बूत फ़ैसले लेगी.”
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दिल्ली में जल संकट और ‘AAP’ की सरकार
इस हफ्ते के पाञ्चजन्य मैगज़ीन में अरुण कुमार सिंह ने दिल्ली के जल संकट को लेकर अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधा है.
वह लिखते हैं, “दिल्ली का यह हाल उस सरकार के राज में है, जिसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 2015 में ही कहा था कि दिल्ली सरकार पांच वर्ष के अंमदर पूरी दिल्ली में पाइप से पानी पहुंचा देगी. आज नौ वर्ष बाद भी उनका यह आश्वासन पूरा नहीं हुआ है.
आगे उन्होंने लिखा, “हाल यह है कि दिल्ली के सैकड़ों इलाकों में अभी थक पानी का पाइप लाइन भी नहीं डाली गई है. दक्षिणी-पश्चिमी दिल्ली में सैकड़ों महोल्ले ऐसे हैं, जहां पानी की पाइ लाइन है ही नहीं.”
महावीर एन्क्लेव का उदाहरण देते हुए वह लिखते हैं, “यहां कि कुछ गलियों में कई दशक पहले ही पानी का पाइप लाइन डाली गई थी. केजरीवाल सरकार ने उसी पाइप लाइन के जरिए 2015 में पानी देना शुरू किया, लेकिन कभी पाना आता है, कभी नहीं. कई गलियों में पानी आता ही नहीं है. जिन गलियों में आज भी पाइप लाइन नहीं है, वहां टैंकर से पानी पहुंचाया जाता है.”
सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. दीपेश कलवार के हवाले से अरुण सिंह लिखते हैं, “दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार 10 वर्ष से है, इतने वर्ष के बाद भी सरकार सैकड़ों मोहल्लों में पानी की पाइप लाइन तक नहीं डाल पाई है. लेकिन बेशर्मी ऐसी कि केजरीवाल और उनकी सरकार के मंत्री पूरी दुनिया में यह बात कहते फिरते हैं कि वे दिल्ली के हर परिवार को प्रतिदिन 700 लीटर पानी मुफ्त दे रहे हैं.”
विपक्ष की ‘बांटने वाली’ राजनीति
पाञ्चजन्य वेबसाइट के संपादकीय मे हितेश शंकर चुनाव के दौरान विपक्ष द्वारा ईवीएम सहित कई अन्य उठाए गए मुद्दों के बारे में लिखते हुए इसे देश को बांटने वाला मानते हैं.
वह लिखते हैं कि, “सत्ता पक्ष के सामने एकजुट विपक्षी दलों का जोर लालच देतीं पैसा बांटने की योजनाओं, ईवीएम-चुनाव आयोग पर दोषारोपण, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, मत और भाषा के आधार पर सामाजिक विभेद पैदा करने जैसे मुद्दों पर रहा”
सवाल पूछते हुए वह कहते हैं कि, “क्या ये मुद्दे तार्किक और कसौटी पर कसे जाने योग्य थे? क्या ये मुद्दे देश को मजबूत करने वाले थे? क्या ये मुद्दे आगे चलने-बढ़ाने लायक हैं?”
वह लिखते हैं, “जाति या पांथिक पहचान के आधार पर बांटना, लोगों को लड़ाना, यह राजनीति तो ब्रिटिश राज से चल ही रही थी, किंतु इस समाजघाती संकीर्ण राजनीति के सामने विकास की राजनीति का दूसरा ‘मॉडल’ पिछले एक दशक में बहुत अच्छे से सामने आया.”
इसी परिप्रेक्ष्य में नागपुर कार्यकर्ता विकास वर्ग में दिए गए सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान को मुद्दा बनाए जाने को लेकर वे कहते हैं कि जिन सेकुलर किस्म के लोग कह रहे हैं कि चुनावों में संघ ने बीजेपी का साथ नहीं दिया वे लोग संघ की रीति-नीति को नहीं जानते.
वह लिखते हैं, “ये लोग संघ की रीति—नीति से परिचित हुए बिना संघ के कार्य व्यवहार को जानने का दम भरते हैं, जबकि यह आधारभूत बात भी वे नहीं जानते कि संघ कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष-विपक्ष में काम नहीं करता। संघ लोकमत परिष्कार के लिए काम अवश्य करता है। यह सोच—विचार नीतिगत काम है और इस बार भी संघ ने वैसा ही किया, जैसा हर बार करता है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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