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Friday, 1 November, 2024
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हिंदू-मुस्लिम एकता और जलियांवाला बाग़ के नायक डॉ. सैफुद्दीन किचलू

कैम्ब्रिज से खिलाफत तक, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता में पुल की भूमिका निभाने वाले थे डॉ. सैफुद्दीन किचलू .

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जब भी जलियांवाला बाग़ और स्वतंत्रता आन्दोलन में उत्तर भारत और खास तौर पर पंजाब के योगदान की बात की जाती है तो एक नाम ज़बान पर ज़रूर आता है- डॉ सैफुद्दीन किचलू. एक स्वतंत्रता सेनानी, पेशे से वकील और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर डॉ किचलू ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पुरजोर आवाज़ उठाई थी.

100 साल पहले जब ब्रिटिश सरकार ने रॉलेट एक्ट जैसा तानाशाही कानून पास किया, तब उसका विरोध सबसे पहले डॉ. किचलू ने किया था और वह सबसे आगे रहे थे. वे दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापकों में से एक थे, वहीं भगत सिंह द्वारा स्थापित नौजवान भारत सभा के पीछे भी उन्होंने मार्गदर्शक भूमिका निभाई थी.

आज डॉ सैफुद्दीन किचलू की 56वीं पुण्यतिथि है.

राष्ट्रवादी आंदोलन से परिचय

किचलू 15 जनवरी 1888 को एक कश्मीरी नौकरशाहों और व्यापारियों के परिवार में जन्मे. उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित थे जिन्होंने बाद में स्वेच्छा से इस्लाम धर्म अपना लिया और अमृतसर आ बसे. बचपन से ही होशियार किचलू ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में प्राप्त करने के बाद कैम्ब्रिज की ओर रुख किया जहां से उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की और जर्मनी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. वापस अमृतसर आकर उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी.

उनमें क्रांतिकारी इरादों के बीज कैम्ब्रिज में ही बो दिए गए थे. विदेश में पढ़ रहे भारतीय छात्रों ने अपने गुलाम देश की हालातों पर चर्चा करने के लिए ‘मजलिस’ नाम की सोसाइटी बनायीं जिसमे किचलू नियमित रूप से शामिल होने लगे थे. इन्हीं मजलिसों में उनकी मुलाकात देश के भावी पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से हुई थी.

डॉ. किचलू के पोते एफ जेड किचलू, अपनी किताब ‘फ्रीडम फाइटर- दि स्टोरी ऑफ़ सैफुद्दीन किचलू’ में लिखते हैं, ‘कैम्ब्रिज में रहते हुए ही उन पर कई समाजवादी आदर्शों का असर पड़ा. वो फ़्रांसिसी क्रांति से हमेशा प्रभावित रहते थे. इन सब विषयों से जुड़ी कई किताबें उन्होंने पढ़ीं, जिस से उन में स्वतंत्रता आन्दोलनों और राष्ट्रवाद के प्रति एक नए आकर्षण का जन्म हुआ.’

किचलू गांधी से भी बहुत प्रभावित थे. इन्हीं सब कारणों से वे अपने वकालत के करियर को छोड़ देश भक्ति के मार्ग पर चल दिए.

रॉलेट एक्ट और जालियांवाला बाग़

अंग्रेजी हुकूमत ने रॉलेट ऐक्ट (कला कानून प्रस्ताव) 1919 में पारित किया, जिसने युद्ध के समय लगायी जा सकने वाली इमरजेंसी को संवैधानिक मान्यता दे दी. इस कानून के ज़रिये सरकार अपने खिलाफ हुए हर आंदोलन को कुचल देना चाहती थी. सरकार का विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति को इस कानून के ज़रिये बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता था.

देश भर में इस कानून के खिलाफ विरोध हुआ. किचलू ने लोगों से अपने काम काज को छोड़कर हड़ताल और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहिंसक सत्याग्रह में भाग लेने का आग्रह किया. किचलू की अपील ने पंजाब के लोगों में जोश भर दिया. 30 मार्च 1919 को उनकी सार्वजनिक सभा में लगभग 30,000 लोग शामिल हुए, जहां उनके दमदार भाषण ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया. ‘महात्मा गांधी का संदेश आपके सामने पढ़ दिया गया है. सभी नागरिकों को प्रतिरोध के लिए तैयार रहना चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि इस पवित्र धरती या देश को रक्तरंजित कर दें. प्रतिरोध शांतिपूर्ण होना चाहिए. किसी भी पुलिसकर्मी या देशद्रोही के संबंध में कठोर शब्दों का प्रयोग न करें, जो शांति भंग होने का कारण बने.’

9 अप्रैल 1919 को डॉ. किचलू और डॉ. सत्यपाल ने अमृतसर के बीचों बीच एक सरकार- विरोधी जुलूस निकला. इसकी एवज में दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और धर्मशाला में नजरबंद कर दिया गया.

और कुछ ही दिनों बाद, 13 अप्रैल 1919 को वो भयावह बैसाखी आयी, जब ब्रिगेडियर-जनरल डायर और उनके सैनिकों ने एकत्रित भीड़ पर 1650 राउंड गोलियां चलाईं, जिससे कम से कम 500-600 लोग मारे गए.

सरकार ने दिसंबर 1919 में किचलू को रिहा कर दिया. एफ ज़ेड किचलू लिखते हैं, “जैसे ही किचलू जेल से बाहर आये, अमृतसर में भारी भीड़ जमा हो गई और उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर शहर भर में जुलूस निकाला.”

खिलाफत आंदोलन और विभाजन

डॉ. किचलू को अखिल भारतीय खिलाफत समिति के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था, जिसका आदर्श इस्लामी दुनिया पर छा जाना था. यानी भारत में मुसलमान तुर्की के ख़लीफ़ा को अपना गुरु मानते थे. तुर्की द्वारा धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर अपनी सरकार बनाने का निर्णय लेने के बाद, भारत में ये आंदोलन विफल हो गया.

किचलू ने समूचे इस्लाम की निरर्थकता को समझा और सांप्रदायिक शत्रुता के आरोप वाले माहौल में एकजुट राष्ट्रवाद को लेकर लोगों को एक जुट करने के प्रयास में जुट गए. उन्होंने कहा कि भारत का सबसे बड़ा दुश्मन ब्रिटिश साम्राज्यवाद है और इसे केवल एकजुट प्रयासों से ही हराया जा सकता है. धार्मिक आधार पर विभाजन करने के वे सख्त विरोधी थे. उन्होंने तर्क दिया कि देश के टुकड़े हो जाने पर मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति और बदतर हो जायेगी.

नेहरू और किचलू दोनों पूर्ण स्वराज में विश्वास करते थे. एफ़ जेड किचलू लिखते हैं, “उनका विचार था कि भारतीय स्वतंत्रता केवल भारत के स्वयं के प्रयासों से प्राप्त की जा सकती है. उनके अनुसार, स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले राष्ट्रों का इतिहास हमें बताता है कि आत्मनिर्भरता, आत्म-बलिदान और कष्ट ही स्वतंत्रता की ओर जाने वाला एकमात्र रास्ता है ”

खिलाफत आंदोलन का परिणाम हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए विनाशकारी साबित हुआ. गांधी, नेहरू, किचलू जैसे नेताओं ने उस खाई को पाटने की भरसक कोशिश की, लेकिन नुकसान को रोका नहीं जा सका. वास्तव में मुस्लिम लीग का गांधी और कांग्रेस के एजेंडे से मोहभंग हो गया था . अंततः धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ. विभाजन की त्रासदी ने किचलू तक को नहीं बक्शा. साम्प्रदायिक दंगों में उनका अमृतसर का घर जलकर राख हो गया.

बाद में उनके बेटे तौफ़ीक किचलू अमृतसर लौटे लेकिन उन्हें अपना जन्मस्थान फिर से छोड़ना पड़ा, क्योंकि कोई भी एक ‘मुसलमान’ को शरण देने के लिए तैयार नहीं था.

स्वतंत्रता के बाद, किचलू ने शांति की बहाली और सोवियत-भारत संबंधों को फिर से परिभाषित करने के लिए काम करना जारी रखा. वे 1952 में लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय बने.

डॉ. सैफुद्दीन किचलू की 9 अक्टूबर 1963 को ह्रदय गति रुकने से मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु पर, जवाहरलाल नेहरू ने कहा था – ‘मैंने एक बहुत ही प्रिय मित्र खो दिया है जो भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में एक बहादुर और दृढ़ कप्तान था.’

( इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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