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अपने व्यंग्य के जरिये अब भी पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं हरिशंकर परसाई

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(मनीष सैन)

जबलपुर (मप्र), 21 अगस्त (भाषा) भ्रष्ट नौकरशाहों और राजनीतिक नेताओं, सांप्रदायिकता और साम्यवाद तथा हर प्रकार की सत्ता पर अपनी कलम के जरिये निशाना साधने वाले प्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं लेखक हरिशंकर परसाई बृहस्पतिवार को शतायु हो जाते।

मध्यप्रदेश में इटारसी के निकट जमानी गांव में जन्मे परसाई का निधन 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में हुआ था, जहां उन्होंने अपना पूरा जीवन बिताया।

उनके प्रशंसकों का कहना है कि उनकी रचनाएं हास्य-विनोद, व्यंग्य और राजनीति, धार्मिक कट्टरता, भ्रष्टाचार तथा अन्य नैतिक बुराइयों की तीखी आलोचना से परिपूर्ण हैं।

साहित्यिक समुदाय हालांकि परसाई की विरासत का जश्न मनाता है, लेकिन हिंदी के इस दिग्गज व्यंग्यकार को स्मारक, संग्रहालय या पुस्तकालयों में उपयुक्त जगह देने के प्रति सरकारों और संस्थाओं की उदासीनता पाठकों और लेखकों को जरूर पीड़ा देती रहती है।

आईटी पेशेवर सूरज दीक्षित ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘परसाई ने लिखा था कि लेखक को आदरणीय होने से बचना चाहिए, आदरणीय हुआ कि वो गया’। लेकिन क्या उनकी विरासत को सम्मान देने के लिए कोई जगह होनी चाहिए? निश्चित रूप से। यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था।’’

नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए की पढ़ाई पूरी करने और शिक्षण में डिप्लोमा हासिल करने के बाद परसाई के पास कोई स्थायी नौकरी नहीं थी, जब तक कि उन्होंने लेखन में अपना पूर्णकालिक करियर नहीं शुरू किया। फिर उन्होंने ‘वसुधा’ नामक पत्रिका शुरू की। यह अल्पकालिक पत्रिका धन की कमी के कारण दो साल बाद ही बंद हो गई।

परसाई सरल लेकिन तीखी भाषा में लिखते थे। वह नस्लवाद, उपभोक्तावाद, युद्ध और व्यापक भ्रष्टाचार समेत कई मुद्दों पर लिखकर हिंदी में व्यंग्य की क्रांति लाने के लिए जाने जाते हैं।

यदि ‘‘भोलाराम का जीव’’ में वह भ्रष्ट नौकरशाही, लालफीताशाही और शासन व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हैं, तो ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ में भी उनकी लेखनी जबरदस्त है। यह कहानी एक ऐसे भारतीय पुलिस अधिकारी के बारे में है, जिसकी कार्यशैली की नैतिकता संदिग्ध है और जो व्यवस्था में भ्रष्टाचार लाकर पुलिस की कार्यकुशलता में सुधार लाने के लिए चांद पर चला जाता है।

अपने जबरदस्त लेखन के कारण परसाई को 1982 में उनके व्यंग्य “विकलांग श्रद्धा का दौर” के लिए प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।

लेखक विष्णु नागर ने कहा, ‘‘वह केवल व्यंग्यकार ही नहीं थे, बल्कि साहित्यकार भी थे। वे कहानियां लिखते थे और कविता में भी उनकी रुचि थी। उन्हें समाजशास्त्र और राजनीति की गहरी समझ थी। वह सिर्फ अपने लेखन पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति थे। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक था।’’

नागर ने परसाई द्वारा अपने समकालीनों और पत्रकारों को दिए गए 17 साक्षात्कारों का संकलन ‘परसाई का मन’ में प्रकाशित किया है।

सत्ता में बैठे लोगों के तीखे आलोचक परसाई अपनी लेखनी में वामपंथ की ओर झुकाव रखते थे, लेकिन वह वाम राजनीति को भी नहीं बख्शते थे।

लेखक प्रेम जनमेजय के अनुसार, परसाई ने “उन सभी बातों के खिलाफ लिखा जो उनकी विचारधारा के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन एक रचनात्मक दृष्टिकोण के साथ लिखा।’’

जनमेजय ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘परसाई की सोच स्पष्ट थी कि वह कौन थे और क्या चाहते थे। उन्होंने सत्ता के खिलाफ लिखा, लेकिन वह किसी का पक्ष नहीं लेते थे। उन्होंने एक समय कम्युनिस्टों के खिलाफ भी लिखा और आपातकाल के दौरान भी उन्होंने इसके खिलाफ लिखा। मार्क्सवादियों को भी नहीं बख्शा।’’

धार्मिक कट्टरता और साम्यवाद एक सामाजिक बुराई थी जिसे परसाई ने अपने लेखन के माध्यम से लगातार निशाना बनाया।

उन्होंने एक बार लिखा था: “समस्याओं को इस देश में झाड़-फूंक, टोना-टोटका से हल किया जाता है। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया – हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई!’’

परसाई को सांप्रदायिक ताकतों का कटु आलोचक बताते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके निधन के 30 साल बाद भी देश में उनके जैसा कोई व्यंग्यकार नहीं है।

वाजपेयी ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘मैं अब भी कहूंगा कि कुछ हद तक व्यंग्य राजनीति को कठिन और खतरनाक पाते हुए अन्य क्षेत्रों में चला गया है। मैं बिना किसी संदेह के कहूंगा कि परसाई के निधन के 30 साल बाद भी उनके जैसा कोई व्यंग्यकार नहीं है।’’

परसाई की कुछ सबसे प्रसिद्ध कृतियों में ‘‘निठल्ले की डायरी’’, ‘‘आवारा भेड़ के खतरे’’, ‘‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’’ और ‘‘प्रेमचंद के फटे जूते’’ शामिल हैं।

उन्होंने एक समाचार पत्र में एक स्तंभ भी लिखा, ‘‘पूछिए परसाई से’’ जिसमें पाठक परसाई से प्रश्न पूछते थे और वह अपनी अनूठी शैली में जवाब देते थे।

नेपियर टाउन में उनके किराए के घर से बमुश्किल एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित राइट टाउन में हरिशंकर परसाई भवन स्थित है, जो शायद शहर में महान व्यंग्यकार की उपस्थिति का एकमात्र भौतिक चिह्न है, जहां उन्होंने किसी भी भाषा में भारतीय साहित्य में ज्ञात सबसे तीखे व्यंग्य लिखे थे।

शहर स्थित रंगमंच समूह ‘समागम रंगमंडल’ के नाटककार आशीष पाठक हरिशंकर परसाई भवन में स्थानीय कलाकारों के साथ काम करते हैं।

पाठक ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘यह उनके नाम पर एकमात्र भवन है और इसे भी लोगों के योगदान से बनाया गया था।’’

इस भवन का निर्माण प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार रामदरश मिश्र और ज्ञान रंजन ने 2007 में लोगों के अंशदान की मदद से करवाया था। इसका उद्घाटन अप्रैल 2007 में साहित्यकार नामवर सिंह ने किया था।

नागर ने कहा, ‘‘जैसे कोई दूसरा प्रेमचंद नहीं हो सकता, वैसे ही कोई दूसरा परसाई भी नहीं हो सकता। चाहे लेखक हो या कवि, हर हिंदी साहित्यकार ने परसाई को पढ़ा है और उनसे प्रेरणा ली है, भले ही वे व्यंग्य लिखते हों या नहीं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘हर क्षेत्र में एक ही शिखर पुरुष होता है। रूस में एक ही चेखव (रूसी साहित्यकार और व्यंग्यकार) हो सकता है। भारत में एक ही परसाई हो सकता है।’’

भाषा देवेंद्र सुभाष

सुभाष

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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