कोलकाता: आंदोलनकारी किसानों के एक समूह और गृह मंत्री अमित शाह के बीच मंगलवार रात हुई बातचीत खत्म होने के बाद यूनियन के एक नेता गतिरोध को लेकर अपनी चुटीली टिप्पणी के कारण खासी सुर्खियों में आ गए.
प्रतीक्षा कर रहे पत्रकारों के यह पूछे जाने पर कि बैठक में क्या नतीजा निकला 76 वर्षीय माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हन्नान मुल्ला ने चुटकी ली, ‘कुछ नहीं, मुर्गी बैठी रही, पर अंडा नहीं दिया.’
यद्यपि इस टिप्पणी को लेकर सोशल मीडिया पर घिर गए मुल्ला कोई अजनबी नेता नहीं हैं— विशेष तौर पर अपने गृह राज्य पश्चिम बंगाल में. और वह किसान आंदोलनों के लिहाज से भी कोई अनजाना नाम नहीं हैं.
पश्चिम बंगाल के उलुबेरिया लोकसभा क्षेत्र से 8 बार सांसद रह चुके मुल्ला 2009 के बाद से ही राजनीतिक गलियारों में देशभर में किसान प्रदर्शन और आंदोलनों को शुरू कराने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए ख्यात हैं.
2018 में उन्होंने पश्चिम बंगाल में किसान लांग मार्च का आयोजन किया था लेकिन वह किसी मुकाम पर नहीं पहुंचा. हालांकि, अब मोदी सरकार द्वारा पारित तीन विवादास्पद कानूनों के खिलाफ वह धीरे-धीरे किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए हैं.
मुल्ला ने दिप्रिंट से बातचीत में इस पर जोर दिया कि किसानों का आंदोलन केवल पंजाब और हरियाणा के लोगों तक ही सीमित नहीं है. उन्होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर यह एक राष्ट्रीय आंदोलन है. वह तो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी है जो इसे पंजाब-हरियाणा केंद्रित आंदोलन के रूप में चित्रित करने की कोशिश करती रही है. लेकिन ऐसा नहीं है. भारत बंद के आह्वान की सफलता इसे दर्शाती है. यदि सरकार इन कानूनों को रद्द नहीं करती है तो जल्द ही देश के सभी हिस्सों से उसे इसकी आंच महसूस होने लगेगी.’
मुल्ला ने यह भी कहा कि किसान इस बार ‘आधे-अधूरे’ उपायों पर सहमत नहीं होंगे और जब तक ‘काले कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया जाता’ तब तक कोई कदम पीछे नहीं खींचेगा.
उन्होंने बुधवार सुबह दिप्रिंट को बताया, ‘हमें अभी तक प्रस्तावित संशोधनों के बारे में पत्र नहीं मिला है. लेकिन हमें इन संशोधनों की आवश्यकता भी नहीं है. हम कानूनों को वापस लेने से कम किसी बात पर सहमत नहीं होंगे.’
बुधवार शाम किसानों ने ऐसा ही किया भी. उन्होंने नए कृषि कानूनों में मोदी सरकार की तरफ से प्रस्तावित संशोधनों को खारिज कर दिया, साथ ही दोहराया कि उन्हें कानून निरस्त करने से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है.
मतभिन्नता दूर करने में जुटे
राजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद मुल्ला को प्रदर्शनकारियों ने अपने गले लगाया गया है. रोहतक में किसान सभा के सचिव सुरिंदर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि इसकी वजह यह है कि वह इस तरह के अधिकतर आंदोलनों में शामिल रहे हैं.
सुरिंदर सिंह ने कहा, ‘भूमि अधिग्रहण बिल, मंदसौर आंदोलन से लेकर मौजूदा किसान विरोध तक हन्नान मुल्ला ही हैं जिन्होंने इन आंदोलनों को व्यापक आधार देने और उन्हें राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन बनाने में अहम भूमिका निभाई है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) की छत्रछाया में चल रहे किसान आंदोलन में हन्नान ने देश के विभिन्न हिस्सों की किसान यूनियनों को एकजुट किया है न कि सिर्फ पंजाब के संगठनों को. उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में किसान आंदोलन को व्यापक बनाया है और यह सुनिश्चित किया है कि उनकी अनदेखी न की जा सके.’
एआईकेएससीसी के महासचिव अविक साहा ने दिप्रिंट को बताया कि मुल्ला के स्वभाव ने ही उन्हें इस तरह प्रदर्शनकारियों से जोड़ा है.
साहा ने कहा, ‘वह अन्य किसान नेताओं की तुलना में बेहद मृदुभाषी हैं और उनकी इन मुद्दों पर अद्भुत पकड़ है क्योंकि वह 40 साल से एक किसान नेता हैं.’
उन्होंने कहा, ‘वह किसान राजनीति और किसान आंदोलन को समझते हैं. वैसे तो वह एआईकेएस का प्रतिनिधित्व करते हैं, किसान संगठनों में भले ही किसी भी तरह का मतभेद हो लेकिन सभी उनका पूरा सम्मान करते हैं. उनकी स्थिति पार्टी से बहुत ऊपर है. जैसे-जैसे आंदोलन तेज हो रहा है, वह इसकी एक प्रमुख आवाज बन गए हैं.’
यह भी पढ़ें: नए कानूनों में 7 संशोधन, एमएसपी पर आश्वासन- ये थे मोदी सरकार के प्रस्ताव जिन्हें किसानों ने नकार दिया
माकपा सांसद से किसान नेता तक
पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के एक जूट-मिल कर्मचारी के पुत्र हन्नान मुल्ला 1960 के दशक में मात्र 16 वर्ष की आयु में माकपा में शामिल हुए थे.
मुल्ला ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हावड़ा के चेंगेल स्थित एक मदरसे में ली थी लेकिन कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय) में अपनी शिक्षा पूरी की.
वह 1980 में राज्य माकपा समिति में शामिल हुए और लगभग तीन दशक बाद 2015 में उन्हें पार्टी की शीर्ष निर्णायक इकाई पोलित ब्यूरो का हिस्सा बनाया गया.
इस सबके बीच 1980 से लेकर 2009 तक मुल्ला ने संसद में आठ बार उलुबेरिया लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया.
2009 का चुनाव हारने बाद वह उन्हें पार्टी की गतिविधियों के मामले में बैक सीट पर आना पड़ा. 2008 में सिंगुर में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया को लेकर उन्हें पार्टी नेताओं की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा.
कोलकाता के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक समीर दास ने दिप्रिंट को बताया कि मुल्ला को पश्चिम बंगाल में भी लगभग भुला दिया गया था.
दास ने कहा, ‘2009 में उलुबेरिया में तृणमूल के सुल्तान अहमद से हारने के बाद मुल्ला बंगाल में सियासी परिदृश्य से लगभग नदारत हो गए थे. उन्हें एआईकेएस के महासचिव के रूप में अधिक जाना जाता है. उन्हें माकपा महासचिव सीताराम येचुरी का करीबी माना जाता है लेकिन अगर वो अपनी पार्टी के साथ बहुत ज्यादा नजदीकी रखते हैं तो किसान आंदोलन के नेता के रूप में अपनी पहचान खो देंगे.’
(स्रावस्ती दासगुप्ता के इनपुट के साथ)
(इस प्रोफाइल को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: मैली कुचैली धोती पहने आसानी से भ्रमित होने वाले नहीं, सोचिये जरा- कैसे बदले ये किसान