नई दिल्ली: वाराणसी की एक जिला अदालत ने सोमवार को फैसला सुनाया कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर प्रार्थना करने के अधिकार की मांग करने वाली पांच महिलाओं द्वारा दायर याचिका ‘सुनवाई योग्य’ है. अब अदालत इस मामले की सुनवाई कर सकती है और उस पर फैसला सुना सकती है.
यह आदेश जिला न्यायाधीश अजय कृष्ण विश्वेश ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया, जिसमें मुकदमे को ‘सुनवाई योग्य’ न मानते हुए उसे चुनौती दी गई थी. पिछले साल अगस्त में दायर याचिका में देवी श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश, भगवान हनुमान और नंदी की मूर्तियों की पूजा करने की अनुमति मांगी गई थी, जो कथित तौर पर एक ‘पुराने मंदिर परिसर’ के भीतर मस्जिद के अंदर स्थित हैं.
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के तहत मुकदमे को सुनवाई योग्य न मानते हुए, उसे चुनौती देने वाली याचिका दायर की गई थी. इसमें उन शर्तों को सूचीबद्ध किया गया है जिनके तहत अदालत द्वारा एक वाद या याचिका को खारिज किया जा सकता है. सीधे शब्दों में कहें तो यह तय करने में मदद करता है कि क्या किसी मामले में कार्यवाही जारी रह सकती है और क्या अदालत इस पर सुनवाई कर सकती है. नियमानुसार, अगर राहत पाने के लिए दी गई याचिका कानून द्वारा प्रतिबंधित है तो याचिका को खारिज कर दिया जाता है.
मामले में वादी ने दावा किया था कि उन्हें वहां पूजा करने का अधिकार है और मस्जिद प्रबंधन समिति सहित प्रतिवादियों को पूजा, आरती और भोग में हस्तक्षेप करने से रोका जाना चाहिए. अन्य बातों के अलावा, मस्जिद ने तर्क दिया था कि मौजूदा समय में दायर की गई याचिका पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के तहत प्रतिबंधित है – एक ऐसा कानून जो 15 अगस्त 1947 को पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने से रोकता है.
इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने एक सिविल जज, सीनियर डिवीजन, वाराणसी से मामले को वाराणसी के जिला जज की अदालत में स्थानांतरित कर दिया था. अदालत ने अपने आदेश में जिला जज को मस्जिद प्रबंधन समिति की ओर से राहत पाने के लिए दायर याचिका पर प्राथमिकता के आधार पर फैसला करने का निर्देश दिया था.
अपने 26 -पृष्ठ लंबे आदेश में जिला न्यायाधीश ने अब फैसला सुनाया है कि महिलाओं द्वारा दायर मुकदमा 1991 के अधिनियम द्वारा प्रतिबंधित नहीं है. उन्होंने समझाया, ‘मेरे विचार में प्रतिवादी संख्या 4 के इस तर्क में अधिक दम नहीं है क्योंकि वादी विवादित संपत्ति पर केवल पूजा करने के अधिकार का दावा कर रहे हैं. वे इस तर्क के साथ मां श्रृंगार गौरी और अन्य दृश्यमान और अदृश्य देवताओं की पूजा करना चाहते हैं कि उन्होंने साल 1993 तक वहां पूजा की और वादी विवादित संपत्ति पर स्वामित्व का दावा नहीं कर रहे हैं. उन्होंने यह दावा करने के लिए भी मुकदमा दायर नहीं किया है कि विवादित संपत्ति एक मंदिर है.’
अदालत ने कहा कि ‘पूजा का अधिकार एक नागरिक अधिकार है और इसमें किसी भी तरह का हस्तक्षेप नागरिक प्रकृति का विवाद खड़ा करेगा’, जिसे एक दीवानी अदालत द्वारा तय किया जा सकता है. मामले की अगली सुनवाई 22 सितंबर को होगी.
‘वक्फ कानून से प्रतिबंधित नहीं’
वादी का मुख्य तर्क यह था कि उन्होंने न तो संपत्ति के स्वामित्व पर कोई घोषणा की मांग की है और न ही इसे किसी मस्जिद से मंदिर में बदलने की मांग कर रहे हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि वे सिर्फ वहां देवताओं की पूजा करने के अधिकार की मांग कर रहे हैं.
उन्होंने यह भी दावा किया कि वे 1993 तक यह पूजा कर रहे थे, जब यूपी सरकार ने जिला प्रशासन को भगवान शिव के भक्तों के पुराने मंदिर में प्रवेश को प्रतिबंधित करने का निर्देश दिया था. उन्हें पुराने मंदिर के भीतर वासंतिक नवरात्रि में चैत्र के चौथे दिन ही पूजा करने की अनुमति थी.
मस्जिद ने दावा किया था कि ज्ञानवापी मस्जिद वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत एक वक्फ संपत्ति है और वादी को वहां पूजा करने का कोई अधिकार नहीं है. यह कानून किसी भी दीवानी अदालत को वक्फ संपत्ति से संबंधित किसी भी विवाद का फैसला करने से रोकता है, और न्यायाधिकरणों को ऐसे विवादों को तय करने का अधिकार देता है. मस्जिद ने तर्क दिया कि चूंकि यह एक वक्फ संपत्ति है, इसलिए सिर्फ वक्फ ट्रिब्यूनल लखनऊ को ही कानून के तहत मुकदमा तय करने का अधिकार है.
हालांकि अदालत ने कहा कि वक्फ अधिनियम द्वारा मुकदमा प्रतिबंधित नहीं है क्योंकि ‘वादी गैर-मुस्लिम हैं और विवादित संपत्ति पर बनाए गए कथित वक्फ के लिए अजनबी हैं’. कोर्ट ने आगे कहा कि संपत्ति पर पूजा करने से रोकने के लिए उन्होंने राहत पाने के लिए जो याचिका दी है, वह कानून के तहत नहीं आती है क्योंकि यह उन विवादों में से एक है जिसे ट्रिब्यूनल द्वारा सुना जा सकता है.
मस्जिद समिति ने उत्तर प्रदेश श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 का भी सहारा लिया था, जो ‘श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी और उसके बंदोबस्ती के उचित और बेहतर प्रशासन’ का प्रावधान करता है. 1997 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह 1983 का अधिनियम ‘स्थापित प्रथा और प्रथाओं के अनुसार पूजा, अनुष्ठान या समारोह करने के अधिकार की रक्षा करता है’
मस्जिद समिति ने बताया कि यह कानून इसके अंतर्गत आने वाले ‘मंदिर’ को परिभाषित करता है और केवल काशी विश्वनाथ मंदिर को दी गई संपत्ति का उल्लेख करता है. इसमें मस्जिद का उल्लेख नहीं है, इसलिए, इसने जोर देकर कहा था कि मस्जिद परिसर में पूजा करने का ऐसा कोई अधिकार नहीं है.
सोमवार के अपने आदेश में जिला अदालत ने मस्जिद समिति के तर्क को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया है कि ‘अधिनियम द्वारा मंदिर के परिसर के भीतर या बाहर बंदोबस्ती में स्थापित मूर्तियों की पूजा करने के अधिकार का दावा करने वाले मुकदमे के संबंध में कोई रोक नहीं लगाई गई है’
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