scorecardresearch
Saturday, 2 November, 2024
होमदेशदुनिया भर की सरकारों, खासकर भारत ने सीख ली है 'ग्रीनवॉशिंग' की भाषा : अमिताव घोष

दुनिया भर की सरकारों, खासकर भारत ने सीख ली है ‘ग्रीनवॉशिंग’ की भाषा : अमिताव घोष

दिप्रिंट के ऑफ द कफ में भाग लेते हुए अमिताव घोष का कहना हैं कि जलवायु परिवर्तन के भू-राजनीतिक (जिओपॉलिटकल) पहलुओं पर कभी भी कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज (सीओपी) जैसी बैठकों में चर्चा नहीं की जाती है, और वे सदैव टेक्नोक्रैटिक (उद्योगतंत्रवादी) और तकनीकी समाधानों की ओर ज्यादा रुख करती हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: लेखक अमिताव घोष का कहना है कि पश्चिमी दुनिया ने खुद को एक्सट्रैक्टिविस्ट (एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें बाजार में बेचने के लिए पृथ्वी से प्राकृतिक संसाधनों को बिना सोचे-समझे निकला जाता हो) अर्थव्यवस्था के आधार पर विकसित किया है, जिसने वर्तमान जलवायु संकट को हवा दी है और ये देश पर्यावरण अथवा जलवायु संबंधी वार्ताओं में किसी भी अन्य चीज़ की तुलना में अपने हितों को साधने के लिए ही भाग लेते हैं.

इस रविवार दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता के साथ हमारे ऑफ दि कफ कार्यक्रम में बात करते हुए घोष ने कहा, ‘पश्चिम जगत में, जलवायु परिवर्तन को एक तकनीकी समस्या के रूप में देखा जाता है जिसे स्वच्छ प्रौद्योगिकियों (क्लीन टेक्नोलॉजीज) के माध्यम से दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से में इसे एक भू-राजनीतिक समस्या और असमानता के प्रश्न के रूप में देखा जाता है.’

वे कहते हैं, ‘सीओपी जैसी बैठकों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित भूराजनीति (जिओपॉलिटिक्स) पर कभी चर्चा नहीं की जाती है, और यह इसके तकनीकी और तकनीकी समाधानों की ओर अधिक उन्मुख होते हैं. यह वास्तव में चर्चा का एक बिंदु है.’

घोष ने यह भी कहा कि दुनिया भर की सभी सरकारें निरंतर विकास की और अग्रसर रहते हुए, ‘ग्रीनवॉशिंग’- अपने कार्यों एवं क्रिया-कलापों को पर्यावरण के अनुकूल होने का दिखावा करने की प्रक्रिया- में माहिर हो गई हैं. उनका कहना है कि जब इस मामले में भारत की बात आती है तो इसका रिकॉर्ड भी ‘विशेष रूप से खराब’ है.

उन्होने कहा, ‘उदाहरण के लिए मुंबई की तटीय सड़क परियोजना को ही लें. समुद्र का बढ़ता स्तर इस राजमार्ग को पूरी तरह से खतरे में डालने वाला है और इसे पूरा करने का कोई मतलब नहीं है.’


यह भी पढ़ें: भारत उन 15 देशों में है जिनका फॉसिल फ्यूल उत्पादन पेरिस समझौते के लक्ष्यों से अधिक है: UN रिपोर्ट


नटमेग और जलवायु परिवर्तन

घोष की नवीनतम पुस्तक, ‘दि नटमेगस कर्स : परबलेस फॉर ए प्लेनेट इन क्राइसिस’ में जलवायु परिवर्तन की उत्पत्ति को उपनिवेश बनने वाले देशों में आकर बसने वालों से जोड़ कर देखते हैं. खास तौर पर, घोष डचों द्वारा इंडोनेशिया में 17वीं शताब्दी के बंदानी नरसंहार का उपयोग इस बात को दर्शाने के लिए करते हैं कि कैसे हिंसा और लूट की घटनाओं ने जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दिया.

घोष के अनुसार, बांदा द्वीप ही पृथ्वी पर एकमात्र स्थान था, जहां 16वीं शताब्दी से पहले नटमेग (जायफल) उपजाया जाता था. वे बताते हैं कि कैसे बाद में डचों ने इसके उत्पादन पर अधिकार करने के लिए इस द्वीप पर कब्जा कर लिया और इस प्रक्रिया में हजारों लोगों को मार डाला.

वे कहते हैं, ‘इसका मकसद इन मसालों पर एकाधिकार ज़माने की थी, और डच लोग इसे किसी और ही चरम पर ले गए.’

घोष ने साल 2016 की अपनी ‘दि ग्रेट डेरेंजमेंट’ नाम की पुस्तक में भी जलवायु परिवर्तन के विषय पर चर्चा की है.

शहरी, मध्यवर्गीय भारतीय सबसे अधिक ‘खतरे में’ हैं

भले ही आम लोगों में सबसे लोकप्रिय धारणा यह है कि समाज का सबसे कमजोर तबका जलवायु परिवर्तन से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगा, मगर घोष का कहना है कि यह इसका सबसे सटीक चित्रण अथवा ‘वर्णन’ नहीं है.

घोष कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि जो लोग जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं, वे हैं मध्यम वर्ग के लोग. उदाहरण के लिए, यदि मुंबई में कोई चक्रवात आता है तो मजदूर वर्ग के लोग अपने-अपने घर चले जायेंगे, क्योंकि उनका ग्रामीण इलाकों में गहरा संबंध और आधार है.

वे आगे कहते हैं, ‘लेकिन यह मध्यम वर्ग के लोग होंगे जो अपने-अपने घरों में फंस जाएंगे और इसे छोड़ना भी नहीं चाहेंगे, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी सारी संपत्ति अचल संपत्ति जैसे कि घरों, कारों आदि में रूप में जमा हो गई है. अतः ये लोग वास्तव में तबाह हो जाएंगे.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: नेट ज़ीरो के लिए भारत को प्रतिबद्ध होना चाहिए लेकिन 2050 तक नहीं: जलवायु विशेषज्ञ


 

share & View comments