नई दिल्ली: अगर एक वकील को सिर्फ इस वजह से जज नहीं बनाया जा रहा है, क्योंकि वह क्वीयर है, तो यह सही समय है कि देश की शीर्ष अदालत इस मामले में उचित कदम उठाए. ताकि यह साबित हो जाए कि समावेशिता सिर्फ बातों तक सीमित नहीं है बल्कि उसे लेकर काम भी किया जा रहा है.
क्वीयर वकील रोहिन भट्ट ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी वाई चंद्रचूड़ को लिखे एक पत्र के बारे में दिप्रिंट से बात करते हुए ये विचार व्यक्त किए. अपने इस पत्र में उन्होंने क्वीयर समुदाय के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए शीर्ष अदालत की प्रक्रियाओं में बदलाव की मांग की है.
शुरुआत करने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं, इस बारे में सुझाव देते हुए भट्ट ने सीजेआई से शीर्ष अदालत में वकीलों की एपियरेंस स्लिप में बदलाव लाने का अनुरोध किया. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील के सर्वनामों का उल्लेख करने के लिए स्लिप में एक अतिरिक्त कॉलम शामिल करने की मांग की ताकि अदालत के आदेशों और निर्णयों में उनका सही इस्तेमाल किया जा सके.
भट्ट ने सीजेआई को 26 नवंबर को भेजे गए ईमेल में लिखा, ‘यह दिखने में भले ही आसान लग रहा है. लेकिन यह बदलाव आपके एक प्रशासनिक आदेश पर होगा. यह क्वीयर वकीलों की पहचान की पुष्टि करने में एक लंबा सफर तय करेगा’ उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि सीजेआई के ऑफिस से अभी तक पत्र की कोई पावती नहीं मिली है.
उन्होंने आगे कहा कि वह इस मुद्दे पर चंद्रचूड़ का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं क्योंकि ‘यह पहली बार है कि हमारे पास एक ऐसा मुख्य न्यायाधीश है जो समावेशी होने और व्यवस्था को बदलने के लिए मुखर रहा है.’
भट्ट ने कहा कि दशकों से क्वीयर आबादी के साथ भेदभाव किया जाता रहा है. उन्होंने इसे पहली बार में ही अनुभव कर लिया था. इन मुद्दों के बारे में CJI के मुखर रुख ने उन्हें उम्मीद दी कि चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान कुछ बदलाव लेकर आएंगे.
अपने पत्र में भट्ट ने एक सैंपल एपियरेंस स्लिप भी मुहैया कराई जिसमें उन्होंने अधिवक्ता के सर्वनाम कॉलम को जोड़ा है.
सर्वनाम क्या होते हैं?
सर्वनाम वो शब्द होते हैं जिनका इस्तेमाल लोगों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जैसे कि वे / वो / उनके, वह / उसके / उसकी, वह / उसका / उसके, या यहां तक कि zie/ zir/ zirs. ये शब्द ट्रांसजेंडर, जेंडर क्वीर, या जेंडर-एक्सपेंसिव समुदायों से संबंधित लोगों को उनके लिंग और यौन के आधार पर उन्हें पहचानने में मदद करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट की एपियरेंस स्लिप के मौजूदा स्वरूप में सिर्फ अधिवक्ता का नाम और नामांकन संख्या है लेकिन सर्वनाम के लिए कोई अलग से कॉलम नहीं है. उच्च न्यायालयों में एक खाली चिट दी जाती है, जहां वकील श्रीमान, कुमारी, श्रीमती, श्री या श्रीमती जैसे अभिवादन के साथ या उसके बिना अपना नाम अपनी पसंद के हिसाब से लिख सकते हैं.
निचली अदालतों में न्यायाधीश मौखिक रूप से वर्तमान वकील का नाम डिक्री और आदेशों में लिखने के लिए कहते हैं. दिल्ली के एक वकील ने दिप्रिंट को बताया, अक्सर वे नामों का जिक्र नहीं करते हैं और सिर्फ ‘वादी के वकील’ के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं.
‘भाषा सांकेतिक हिंसा करती है’
भट्ट ने CJI को लिखे अपने पत्र में इस बात को रेखांकित किया कि कैसे भाषा ‘अक्सर ट्रांसजेंडर वादियों और वकीलों पर अदालत में प्रतीकात्मक हिंसा भड़का सकती है’ और लिंग डिस्फोरिया और मनोवैज्ञानिक संकट को बढ़ा सकती है.
उन्होंने लिखा, ‘अदालत के आदेशों और निर्णयों में सही सर्वनामों का इस्तेमाल पहचान की पुष्टि करेगा और भेदभावपूर्ण नजरिए को चुनौती देगा. जैसा कि आप अच्छी तरह से जानते हैं कि यह तब बढ़ जाता है जब सामने वाला व्यक्ति क्वीयर हो.’
उन्होंने कहा कि लोगों के सर्वनामों को नाम, रूप या आवाज के आधार पर नहीं पहचाना जाना चाहिए.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि ‘यह पत्र अपनी तरह का आखिरी पत्र नहीं है और न ही यह पत्र हमारी समस्याओं का समाधान करने वाला है.’
उन्होंने कहा, ‘अदालतों में क्वीर-फ्रेंडली माहौल बनाने की दिशा में बातचीत शुरू करने के लिए यह पहला कदम है. मैंने मुख्य न्यायाधीश को लिखे अपने पत्र में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को रास्ता दिखाना होगा. क्योंकि जब तक ये सभी प्रेक्टिस निचली अदालतों और हर संभव अदालत तक नहीं पहुंचती हैं, तब तक यह काम नहीं हो पाएगा.
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क्वीरनेस, इंटरसेक्शनलिज्म के इर्द-गिर्द व्यापक बातचीत
भट्ट ने कहा कि उनका पत्र मुख्य न्यायाधीश से अदालतों को अधिक समावेशी बनाने के लिए एक सरल अनुरोध था. वह कहते हैं, ‘मुझे उम्मीद है कि इससे हमें वास्तव में समान नागरिकता के बारे में व्यापक बातचीत करने में मदद मिलेगी और न सिर्फ क्वीयर के बारे में, बल्कि विकलांगता के अधिकारों के बारे में भी. इसके साथ-साथ इस बात पर भी चर्चा कर पाएंगे कि हम बहुजन और आदिवासी समुदाय के लोगों को किस तरह से देखते हैं.’
क्वीयर आबादी के अधिकारों की लड़ाई में उन्होंने इंटरसेक्शनेलेटि पर जोर दिया. उन्होंने समझाते हुए कहा, ‘मुझे उम्मीद है कि हम न सिर्फ क्वीयर व्यक्तियों के बारे में चर्चा कर सकते हैं, बल्कि कानूनी पेशे में जाति और वर्ग के आधार पर किए जा रहे भेदभाव के बारे में भी चर्चा कर सकते हैं. क्योंकि यह संघर्ष कई आयामों के साथ जुड़ा हैं.’ मुख्य न्यायाधीश ने खुद हाल के दिनों में वकीलों के बीच फैले पितृसत्तात्मक और जाति-आधारित नेटवर्क के बारे में की थी.
भट्ट ने कहा कि यह देखते हुए कि 2018 के नवतेज जौहर के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने क्वीयर नागरिकों के अधिकारों के लिए एक मजबूत सैद्धांतिक नींव रखी थी, शीर्ष अदालत को संविधान के संरक्षक होने के नाते अब यह स्वीकार करना शुरू कर देना चाहिए कि इसे समानता की ओर बढ़ने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘अब जबकि हमारे पास यह सैद्धांतिक आधार है, तो यह सही समय है कि अदालत, संसद और प्रत्येक कानूनी निकाय कानून को सही मायने में समावेशी बनाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे पर काम करें.’
भट्ट ने दिप्रिंट को बताया कि उनका यह पत्र ‘दि लीफलेट’ में प्रकाशित होने के बाद से उन्हें ट्विटर पर जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. ऐसी घटनाएं होती रहती है. इसलिए लोग भेदभाव से गुजरने के बाद भी कुछ बोल नहीं पाते हैं. उन्होंने कहा कि पूरे भारत में कुछ क्वीयर वकील और न्यायाधीश हैं, भले ही वे अपनी आवाज उठाने के लिए बाहर नहीं आ रहे हैं. लेकिन धीरे-धीरे उनके प्रति धारणा बदल रही है.
भट्ट ने यह भी आरोप लगाया कि एडवोकेट सौरभ किरपाल की दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने में देरी सिर्फ इसलिए हुई थी क्योंकि वह क्वीयर हैं.
उन्होंने न्यायमूर्ति विवियन बोस के बारे में भी बात की, जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और उनकी एक अमेरिकी पत्नी थी. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि अन्य संवैधानिक पदों पर बैठे सभी लोगों का पार्टनर भारतीय ही हैं.
उन्होंने कहा, ‘कुल मिलाकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नवतेज मामले में फैसले के बावजूद, जिसमें क्वीर लोगों के लिए समान नागरिकता की बात की गई थी, आज भी हमारे पास ऐसे लोग हैं जो समानता से काफी दूर हैं.’
जजों, कोर्ट क्लर्कों को संवेदनशील बनाने की जरूरत
अपने पत्र में भट्ट ने ब्रिटिश कोलंबिया की एक प्रांतीय अदालत का उदाहरण दिया, जिसने लोगों से अपना नाम, शीर्षक और सर्वनाम अदालत में इस्तेमाल करने के लिए कहा था. साथ ही कहा कि वकील इसकी जानकारी अपने क्लाइंट को दें.
उन्होंने समझाया कि विशेष अदालत में अगर कोई पक्षकार या वकील अपने परिचय में यह जानकारी नहीं देता है, तो उन्हें अदालत का क्लर्क उससे ऐसा करने के लिए कह सकता है. उन्होंने दिप्रिंट को यह भी बताया कि यह विदेशी न्यायालयों में व्यापक रूप से प्रचलित है. कैलिफोर्निया की न्यायिक परिषद जैसे न्यायालयों के पास एक बेंच रेफरेंस गाइड है. इसके अनुसार, अगर किसी का वकील सर्वनामों के बारे में सूचित नहीं करता है, तो उनसे पूछा जाता है कि वह किस सर्वनाम का इस्तेमाल करना पसंद करेंगे.
भट्ट ने कहा, इस तरह की प्रैक्टिस को सामान्य व्यवहार में लाने के लिए, न सिर्फ अदालत के क्लर्कों बल्कि न्यायाधीशों के लिए भी जागरूकता भरे कार्यक्रम होने चाहिए, क्योंकि ‘हम सभी में किसी न किसी तरह का पूर्वाग्रह होता है’. भट्ट ने आगे कहा, ‘मैं सुझाव दूंगा कि लोगों को न सिर्फ इसके आस-पास के कानून की सख्त ट्रेनिंग दी जाए, बल्कि यह भी बताया जाए कि क्वीयर लोगों को सम्मान पूर्वक कैसे संबोधित किया जाए’
भट्ट ने कहा, ‘मुझे पता है कि मुख्य न्यायाधीश एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने मुखरता से समावेशिता की वकालत की है. और मुझे उम्मीद है कि वह इसके लिए जरूरी कदम उठाएंगे.’
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या)
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