क्या बिना गीतों के हिन्दी सिनेमा की कल्पना की जा सकती है? ये सवाल बहुत अटपटा सा लग सकता है लेकिन पाठक जरा एक बार ऐसी कल्पना करके देखें, उन्हें ठीक वैसा ही महसूस होगा जैसे एक शरीर में से उसकी आत्मा निकाल दी जाए. और हिन्दी सिनेमाई परंपरा में तो गीतों की जड़ें गहरे तक रची-बसी हैं, खासकर 1940 के बाद हिन्दी सिनेमा में गीतों का महत्व अप्रत्याशित तौर पर बढ़ा.
इंडियन सिनेमा- अ वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन में फिल्म इतिहासकार आशीष राजाध्यक्ष लिखते हैं, ‘1946-48 के बीच भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण बदलाव आए. ये राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, नूरजहां, कामिनी कौशल, सुरैया और नरगिस जैसे सिनेमाई स्टार का दौर था. इन सितारों को जो बात अलग करती थी वो था- संगीत (गाने).’
राजाध्यक्ष अपनी किताब में लिखते हैं, ‘प्लेबैक सिंगर जैसे लता मंगेशकर, गीता दत्त, आशा भोंसले, मोहम्मद रफी, मुकेश, मन्ना डे, किशोर कुमार अक्सर उन स्टार्स से बड़े दिखते थे जिनके लिए वो गा रहे होते थे. गायकों को क्रेडिट दिया जाने लगा था और 1950 तक आते-आते किसी भी फिल्म के हिट होने में फिल्म के संगीत की भूमिका अहम होने लगी थी.’
दिप्रिंट आज उन्हीं फनकारों में से एक गीता दत्त जिनकी मखमली, शोख़पन से भरी, दर्द, मोहक, शरारती और मधुर आवाज़ ने बरसों से लोगों को अपनी ओर खींचा, उन्हें याद कर रहा है.
गीता दत्त को भारतीय सिनेमा की पहली ऐसी आवाज़ के तौर पर भी दर्ज कर सकते हैं जिसने शमशाद बेगम जैसे दिग्गज गायकों को पीछे छोड़ते हुए गायकी में संवाद, मोहकपन, दर्द, खुशी, प्यार, चुलबुलेपन को महसूस कराया.
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‘जाने क्या तूने कही…और भोपाल’
जुलाई का भोपाल बेहद खूबसूरत लगता है. वहां ये पूरा महीना लगभग बारिश का होता है. दिल्ली जैसी बारिश नहीं. बल्कि बदरा अपने उरूज पर होते हैं. पूरा शहर भीग कर खिल उठता है.
भोपाल की प्रसिद्ध बड़ी झील में पानी का स्तर काफी बढ़ा होता है फिर भी घूमने वालों की भारी भीड़ लगी रहती है. बोटिंग की अलग धूम होती है और आसपास बजते गाने एक रुहानियत सी पैदा करते हैं.
2018 का साल याद आ रहा है जब जुलाई के महीने में भोपाल में लगातार 19 दिन तक बारिश होती रही और बड़ी झील अपने उफान पर थी. बोटिंग करते हुए बड़ी झील के बीचो-बीच गीता दत्त का एक गीत- जाने क्या तूने कही…जाने क्या मैंने सुनी…बजने लगा और उफनती झील के बीच जो जज्बात और रुहानियत इस गाने ने पैदा की, वो कोई और गीत या गायिका नहीं कर सकती थीं.
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इंसानी जज्बात की आवाज़
गीता दत्त ने इंसानी जज्बात के हर पहलू पर गाया है. इंसान जब दुखी हो तो वो कागज़ के फूल का गीत- वक्त ने किया क्या हसीं सितम सुन सकता है. मोहकपन से भरा गीत सुनना हो तो साहिब बीवी और गुलाम का- न जाओ सैयां छुड़ा के बैयां गुनगुना सकता है. चुलबुलेपन और मस्ती वाले गीतों में आर पार का बाबू जी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना और सीआईडी का ये है बॉम्बे मेरी जान पर झूम सकता है.
प्यार के गीतों से राब्ता करना हो तो बासु भट्टाचार्य की उपन्यासनुमा फिल्म अनुभव (1971) फिल्म के गीत सुने जा सकताे हैं- मेरी जान मुझे जान न कहो, कोई चुपके से आके और मेरा दिल जो मेरा होता. इस फिल्म का संगीत कनु रॉय ने दिया था.
1951 में आई फिल्म बाज़ी का गीत- तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले- ये गीत आज भी हारे हुए आदमी के लिए एक उम्मीद भरा गाना है. प्यासा और कागज़ के फूल में गीता दत्त के गाए गीत तो कभी बिसराए नहीं जा सकते.
गीता दत्त ने कई भाषाओं में गाने गाए जिसमें मराठी, नेपाली, गुजराती, बंगाली शामिल है. हेमंत कुमार के निर्देशन में गाया उनका एक बंगाली गाना- तुमी जे अमार बेहतरीन है. इस गाने के बोल और आवाज की मधुरता इसे अलग मुकाम तक पहुंचाती है.
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एसडी बर्मन और ओपी नैय्यर की पसंद
23 नवंबर 1930 को फरीदपुर (आज का बांग्लादेश) में एक जमींदार घराने में गीता घोष रॉय चौधरी का जन्म हुआ. काफी कम उम्र से ही उन्होंने गाना शुरू कर दिया था. ये हैरानी वाली बात है कि गायकी में जिस मुकाम तक वो पहुंचीं उसके लिए उन्होंने बाकायदा कोई ट्रेनिंग नहीं ली थी.
गीता जब महज 12 बरस की थीं तभी उनका परिवार मुंबई आ गया था. एक दिन संगीत निर्देशक के हनुमान प्रसाद ने जब उनकी आवाज सुनी तो उन्होंने गीता को अपनी मायथोलॉजिकल फिल्म भक्त प्रह्लाद में गाने का मौका दिया.
गीता को सबसे बड़ा मौका सचिन देव बर्मन ने दिया जब उन्होंने 1947 में आई फिल्म दो भाई के लिए उनसे गाना गवाया. इस फिल्म का गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया काफी हिट रहा और इस तरह हिंदुस्तान को एक नई गायिका मिलीं. हालांकि भक्त प्रह्लाद में एसडी बर्मन ने उनका गाना सुनने के बाद गीता को मौका दिया था. इसके बाद एसडी बर्मन के साथ उन्होंने काफी फिल्मों में काम किया और ये एक कामयाब संगीत निर्देशक और गायक की जोड़ी बन गई.
हालांकि उस वक्त तक लता मंगेशकर उतनी मशहूर नहीं हुई थी. अंदाज़, महल और बरसात जैसी फिल्मों के सहारे लता मंगेशकर ने जरूर अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी लेकिन एसडी बर्मन और ओपी नैय्यर जैसे संगीतकार गीता पर ही भरोसा कर रहे थे, वही उनकी पहली पसंद थीं.
1950 में आई दिलीप कुमार और नरगिस की फिल्म जोगन के गीतों ने गीता रॉय को काफी कामयाब बना दिया. इस फिल्म में गाए उनके आध्यात्मिक गीतों ने काफी लोकप्रिता पाई.
इसके बाद कई बड़े संगीतकारों और गायकों के साथ उन्हें काम मिलने लगा. हेमंत कुमार और ओपी नैय्यर ने उन्हें मौका देना शुरू किया.
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गीता और गुरु दत्त
गुरु दत्त जब सिनेमाई दुनिया में जगह बनाने की जद्दोजहद में लगे थे तब तक गीता रॉय गायिकी की दुनिया की एक बड़ी नाम बन चुकी थीं और उन्होंने तब के मशहूर गायिकाओं शमशाद बेगम और राजकुमारी को पीछे छोड़ दिया था.
1949 में गुरु दत्त के दोस्त देव आनंद 1948 में आई फिल्म जिद्दी से कामयाब हो चुके थे और उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद के साथ अपनी प्रोडक्शन कंपनी नवकेतन शुरू की. इस प्रोडक्शन कंपनी के तहत देव आनंद ने गुरु दत्त को बाज़ी फिल्म बनाने का मौका दिया. इससे पहले गुरु ने कोई भी फिल्म निर्देशित नहीं की थी.
इस फिल्म का संगीत एसडी बर्मन तैयार कर रहे थे और उन्होंने बतौर गायिका गीता रॉय को चुना.
गुरु दत्त पर किताब लिखने वाले पत्रकार-लेखक यासिर उस्मान अपनी किताब में गीता और गुरु की पहली मुलाकात के बारे में लिखते हैं, ‘जब गीता रॉय रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंचीं तो उनके साथ उनके पिता भी मौजूद थे. गाड़ी पार्क कर उनके पिता ये पता लगाने गए कि रिहर्सल कहां हो रही है. गीता अपने कार में बैठी थीं. कुछ मिनटों बाद एक जवान लड़का आता है और कहता है कि आइए मैं आपको रिहर्सल रूम तक ले चलता हूं. वो बंगाली में बोलता है और गीता उसे नहीं जानती हैं और तब तक उसके साथ चलने को तैयार नहीं होतीं जब तक कि वो उसके व्यवहार से संतुष्ट नहीं हो जातीं.’
उस्मान लिखते हैं, ‘रिहर्सल रूम में जाते ही गीता ने मौका देखकर सबसे पहले एसडी से यही पूछा कि वो बंगाली लड़का कौन है. एसडी हंसे और कहा कि वो बंगाली नहीं है लेकिन उसका नाम गुरु दत्त है और वो बाज़ी फिल्म का निर्देशक है. क्या तुम उसे नहीं जानती?’
और इस तरह गीता और गुरु दत्त की पहली मुलाकात होती है. इसके बाद वो लगातार मिलते हैं. जब गीता के परिवार को पता चलता है कि वो गुरु और उनके परिवार से मिलती हैं तो वो आपत्ति जताते हैं, लेकिन 26 मई 1953 को दोनों शादी कर लेते हैं और इस तरह गीता रॉय, गीता दत्त बन जाती हैं.
शादी के वक्त तक गीता एक कामयाब गायिका होती हैं, वहीं गुरु दत्त के संघर्ष के ही दिन होते हैं. शादी के बाद प्रेस और फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा तेज हो जाती है कि गुरु दत्त ने पैसों और फेम के लिए गीता से शादी की है, लेकिन गुरु दत्त ने इस पर कभी भी प्रतिक्रिया नहीं दी.
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‘…मैं वहीदा रहमान से बदतर लगूं?’
शादी के बाद गीता दत्त ज्यादातर गुरु दत्त की फिल्मों में ही गाने लगीं. सीआईडी फिल्म से गुरु की हर फिल्म की मुख्य महिला किरदार वहीदा रहमान होने लगीं और पर्दे पर गीता उनकी आवाज बनकर सिमट गईं. इस बीच गुरु और वहीदा के रिश्तों को लेकर भी चर्चा तेज हो गई.
गुरु दत्त की बहन ललिता लाजिमी कहती हैं, ‘गीता व्यवहार से शक्की और पजेशिव थीं.’ गीता और गुरु के बीच रिश्ते बिगड़ने लगे और इसे ठीक करने के लिए गुरु दत्त ने एक बंगाली फिल्म गौरी बनाना तय किया जिसमें गीता दत्त को लीड रोल में लिया गया.
शूटिंग के दौरान गुरु दत्त गौरी को एक अलग किरदार के तौर पर देख रहे थे और उन्होंने गीता को समझाया कि वो ज्यादा मेकअप न करें और साधारण दिखें. लेकिन गीता ने गुस्से में आकर कहा, ‘तुम क्या चाहते हो….यही न कि मैं वहीदा रहमान से बदतर लगूं?’
तीन महीनों की शूटिंग के बाद इस फिल्म को बीच में ही रोक दिया गया और गौरी फिल्म की पूरी टीम कलकत्ता से बंबई (आज का मुंबई) लौट आई.
इसके बाद कई संगीतकारों जैसे एसडी बर्मन और ओपी नैय्यर ने भी गीता दत्त से अलग होना शुरू कर दिया और उन्होंने लता मंगेशकर और उनकी बहन आशा भोंसले से गाने गंवाये. अपनी निजी जिंदगी की परेशानियों के कारण गीता दत्त तय समय पर रिहर्सल और काम पर ध्यान नहीं दे पाती थीं. इसलिए उन्हें गाने मिलने कम हो गए.
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तकदीर और तदबीर
10 अक्टूबर 1964 को अचानक ही गुरु दत्त की आत्महत्या की खबर आई जिसके बाद गीता दत्त का कैरिअर लगभग खत्म हो गया. हालांकि 1971 में आई फिल्म अनुभव के गाने काफी पसंद किए गए. लेकिन वो ज्यादातर बीमार रहने लगीं और 8 साल बाद 20 जुलाई 1972 को लंबी बीमारी के बाद उनका भी निधन हो गया.
गीता दत्त के निधन के कई सालों बाद भी उनके मखमली और दर्द भरे गाने आज भी सुनने वालों को पसंद आते हैं. भारतीय डाक विभाग ने 3 मई 2013 को उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था.
जरा सोचिए अगर गीता दत्त की निजी जिंदगी उथल-पुथल में नहीं बीतती और सब-कुछ ठीक होता तो भारतीय संगीत में आज जिस स्थान पर लता मंगेशकर हैं, क्या वो होतीं?
हिन्दी गीतों के क्रॉफ्ट में जो मधुरता, दर्द, चुलबुलेपन का पुट गीता दत्त लाईं, अगर वो न होतीं तो अच्छे गानों से हम महदूद हो जाते. लेकिन तकदीर ने गीता दत्त का साथ नहीं दिया और उनकी तदबीरें (कोशिशें) भी काम नहीं आईं.
ऐसे में साहिर लुधियानवी का लिखा, एसडी बर्मन का संगीत और गीता दत्त की आवाज़ में गाया ये गीत बरबस याद आ जाता है-
तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले, तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दांव लगा ले,
लगा ले दांव लगा ले
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