नई दिल्ली: एक आलू टिक्की बर्गर और सोया चाप एक औसत नॉन-वैजिटेरियन भारतीय के ज़ायके के लिए बस इतना ही कर सकते हैं- भले ही वो नैतिक, पर्यावरण या स्वास्थ्य कारणों से मीट का उपभोग रोकने के लिए बेताब हों. लेकिन, लैबोरेटरीज़ में पाक कला की बाज़ीगरी, प्लांट-आधारित नकली मीट्स के रूप में एक नई उम्मीद लेकर आए हैं, जिसमें दावा किया गया है कि इसमें मांस का मजा मिलता है और साथ में ये शाकाहार का उच्च नैतिक आधार भी देता है.
खासकर पिछले दो वर्षों में ‘वेजिकन करी’ किट्स, ‘अनमटन कीमा’, ‘प्लांट-बेस्ड सॉसेजेज़’ और ‘वीगन मीट टिक्के’ महंगे भारतीय रिटेलर्स के डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ सेक्शन और ऑनलाइन स्टोर्स में नज़र आने लगे हैं ओर इनमें तेज़ी के साथ और विविधता आ रही है.
डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों की कंपनी आईटीसी भी इस जनवरी में प्लांट-आधारित मीट के बाज़ार में उतर गई और लोकप्रिय रेस्टोरेंट श्रंखलाएं भी इस बहती गंगा में हाथ धो रही हैं. मसलन, डॉमिनोज़ और हल्दीराम दोनों अपने मेन्यू में प्लांट-आधारित मीट पेश करते हैं (क्रमश: एक पीज़्ज़ा टॉपिंग और ‘कीमा’ पाओ/समोसा).
शाहरुख खान भी इसके प्रचलन को लेकर उत्साहित नज़र आते हैं, कम से कम जिनेलिया डिसूज़ा और रितेश देशमुख के ब्रांड, इमेजिन मीट्स के लिए तो हैं ही.
My friends @geneliad & @Riteishd were discussing who would launch their Plant Based Meats Venture. I opened my arms wide and said ‘Main Hoon Naa’. I wish the entire team of @ImagineMeats my best as they dish out #TheHappyMeat. It’s live https://t.co/QHj2BxRZO2 go visit. pic.twitter.com/CNEM2BkLuq
— Shah Rukh Khan (@iamsrk) September 10, 2021
हालांकि 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 70 प्रतिशत से अधिक भारतीय मांसाहारी भोजन करते हैं और देश में प्रति व्यक्ति मीट उपभोग बढ़ रहा है लेकिन इन उपभोक्ताओं का एक उप समूह, शायद अपनी पसंद पर फिर से गौर कर रहा है.
2019 में बहुराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च फर्म इपसॉस ने पता लगाया कि 63 प्रति भारतीय प्लांट-आधित मीट खाने के लिए तैयार थे.
नमूने का आकार छोटा था (1,000) और ज़्यादातर शहरी और अपेक्षाकृत संपन्न मध्यम वर्ग की नुमाइंदगी करता था, लेकिन सर्वे के नतीजे वैश्विक रुझान के प्लांट-आधारित मीट की ओर जाने को प्रतिबिंबित करते हैं, जैसा कि हाल ही में देखा गया जब पूरे अमेरिका के आउटलेट्स पर, केएफसी के ‘बियॉण्ड फ्राइड चिकन’ नगेट्स, बर्गर किंग के ‘इंपॉसिबल हूपर’ और मैकडॉनल्ड का ‘मैकप्लांट बर्गर’ ग्राहकों के सामने आए. वैश्विक दिग्गज कंपनी नेस्ले ने भी पिछले साल नकली श्रिम्प लॉन्च की, जिसे ‘वृम्प’ कहा गया.
Hold up @lizakoshy. Are you saying… KFC’s Beyond Fried Chicken… looks and tastes like fried chicken, but is made of plants? It’s a Kentucky Fried Miracle! pic.twitter.com/rgbNp0O7fU
— KFC (@kfc) January 24, 2022
वादा किया जाता है कि ये प्लांट-आधारित मीट जिनमें फलियों, मटर, मूंग, बीन्स, बाजरा या सोया से प्रोटीन्स को अलग किया जाता है और फिर उनमें खाद्य तेल और स्टार्च जैसी दूसरी चीज़ें मिलाई जाती हैं- वही स्वाद, महक, बनावट, और मुंह में बिल्कुल वही अहसास देता है, जो जानवरों के मांस में होता है. इसमें काफी अधिक प्रोटीन होने का भी दावा किया जाता है. ये संभावित रूप से न सिर्फ उन मांसाहारियों को अपील करता है, जो अपने आहार में बदलाव चाहते हैं, बल्कि शाकाहारियों और वीगन्स को भी आकर्षित करता है, जो प्रोटीन के नए स्रोत खोजना चाहते हैं.
भारतीय बाज़ार इसलिए भी खासतौर से नकली मीट के लिए तैयार नज़र आता है कि बहुत से लोग जो तकनीकी रूप से मांसाहारी हैं, वो पहले ही मांस लेने की मात्रा को सीमित कर रहे हैं.
मसलन, 2020 में लगभग 30,000 उत्तरदाताओं के पियू सर्वेक्षण से पता चला कि 81 प्रतिशत मांसाहारी भारतीय अपने मांसाहार को किसी न किसी तरह से सीमित रखते हैं और इसलिए उन्हें ‘कट्टर’ मांसाहारी नहीं कहा जा सकता. इस तरह के उपभोक्ता संभावित रूप से ज़्यादा आसानी के साथ प्लांट-आधारित मीट्स को अपना सकते हैं.
नकली मीट निर्माताओं ने बाज़ार की अपनी संभावनाओं को लेकर आशावादी अनुमान लगाए हैं और उनका कहना है कि वो निरंतर अपने नकली मीट में मांस के ज़्यादा से ज़्यादा तत्व शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन क्या ये लोग उपभोक्ताओं को जीत पा रहे हैं और क्या ये उत्पाद वाकई सेहत के लिए कहीं ज़्यादा बेहतर हैं?
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बाज़ार का परिदृश्य और संभावनाएं
पिछले साल इंटरनेशनल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) और निवेश फर्म ब्लू होराइज़न कॉरपोरेशन की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, 2035 तक ‘वैकल्पिक प्रोटीन’ बाज़ार के बढ़कर 290 बिलियन डॉलर पहुंच जाने का अनुमान है. रिपोर्ट में ये भविष्यवाणी भी की गई है कि दुनिया भर में उपभोग किए जा रहे अंडों, सीफूड, पोल्ट्री, या मीट के दसवें हिस्से की जगह, मीट के प्लांट-आधारित रूप ले लेंगे.
भारत में भी, संभावनाएं आशाजनक लगती हैं, हालांकि अनुमानों में अंतर हैं. रिटेल ब्रोकिंग कंपनी निर्मल बांग के अनुसार, भारत में प्लांट-आधारित मीट का बाज़ार कथित तौर पर करीब 3-4 करोड़ डॉलर का बताया जाता है, जिसमें कारोबार का एक बड़ा हिस्सा डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों का है.
रिसर्च एंड मार्केट्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में नकली मीट का बाज़ार 2021-26 के बीच 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा, और इसके करीब 4.7 करोड़ डॉलर तक पहुंच जाने का पूर्वानुमान है. कुछ दूसरे अनुमान और भी अधिक आशावादी हैं, जिनमें से कुछ के अनुसार अगले तीन वर्षों में इस बाज़ार का आकार, 50 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है.
उदयपुर स्थित एक फूड टेक स्टार्ट-अप गुडडॉट के संस्थापक, अभिषेक सिन्हा ने दिप्रिंट को बताया कि कंपनी के उत्पादों को- जिनमें ‘वेजिकन करी’ और ‘अनमटन कीमा’ के लिए मील किट्स शामिल हैं- ज़बर्दस्त रेस्पॉन्स मिला है.
उन्होंने कहा, ‘2017 के बाद से साल दर साल हमारी वार्षिक राजस्व वृद्धि लगभग 100 प्रतिशत रही है. इस साल हम 150-200 प्रतिशत वृद्धि की अपेक्षा कर रहे हैं’. सिन्हा के अनुसार खाना पकाने की आदतों और सांस्कृतिक कारणों की वजह से भारत प्लांट-आधारित प्रोटीन्स का ‘सबसे ताकतवर और सबसे बड़ा बाज़ार’ बनकर उभरेगा.
उन्होंने आगे कहा, ‘ज़्यादातर मांसाहारी हफ्ते में सिर्फ एक या दो बार मीट का उपभोग करते हैं, इसलिए किसी भी दूसरे देश के मुकाबले यहां इसकी स्वीकार्यता अधिक होगी’.
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कौन हैं लक्षित उपभोक्ता?
मीट के प्लांट-आधारित विकल्पों को बढ़ावा देने वाली गैर-मुनाफा संस्था, गुड फूड इंस्टीट्यूट (इंडिया) के प्रबंध निदेशक वरुण देशपांडे ने कहा कि प्लांट-आधारित मीट्स की ओर खिंच रहे अधिकतर ग्राहक मौजूदा या पूर्व मांसाहारी हैं, जो पर्यावरण और जानवरों के साथ नैतिक सलूक की चिंताओं के चलते, शाकाहारी या वीगन बनने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘(प्लांट-आधारित मीट) उत्पादों को अपनाने वाले शुरुआती लोग युवा, उन्नतिशील और अपेक्षाकृत ऊंची आय वाले उपभोक्ता हैं, जो इस बात को लेकर सजग हैं कि वो क्या खाते हैं और इस गृह तथा उनके स्वास्थ्य पर उसका क्या असर पड़ता है. कोविड के बाद बहुत से लोगों को माइक्रोबियल प्रतिरोध और कॉलिस्ट्रॉल की चिंता भी बढ़ गई है’.
लेकिन, प्लांट-आधारित मीट उत्पादों की क़ीमत उनके नॉन-वेज समकक्षों से ज़्यादा होती है- कभी कभी दोगुनी या तीन गुनी तक- और इसलिए उन सब उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर होती है, जो उन्हें आज़माना चाहते हैं.
देशपांडे के अनुसार, इस मसले को सुलझने में अभी कुछ समय लगेगा.
उन्होंने कहा, ‘पारंपरिक मीट और हमारे उत्पादों के बीच आर्थिक और बड़े पैमाने पर खपत के अंतर को कम होने में, कम से कम एक दशक लगेगा, क्योंकि वैल्यू चेन के विकास, उत्पादन मात्रा और प्रासंगिक निवेशों में समय लगने वाला है’. लेकिन, दीर्घकाल में वो इसे लेकर आशावान हैं.
उन्होंने कहा, ‘इसमें पर्याप्त आवेग है चूंकि जेबीएस, टायसन फूड्स, नेस्ले, और यूनिलीवर ने (प्लांट-आधारित मीट सेगमेंट में) अच्छा ख़ासा निवेश किया है. आखिरकार, हमें ऐसा भोजन तैयार करना है, जिसमें उसी तरह का या उससे बेहतर स्वाद हो, कीमत भी बराबर या कम हो, और हर जगह उपलब्ध हो, ताकि एक बड़ा बाज़ार पैदा हो सके. कीमतों को नीचे लाना भी एक बड़ी आकांक्षा है’.
प्लांट-आधारित मीट कैसे बनता है?
ऐसे खाद्य पदार्थों को बनाने में, जो अलग-अलग किस्म के मीट जैसे लगते हों, बहुत सी प्रक्रियाएं और सामग्री लगती हैं. इनमें एक चीज़ समान है कि ये सब मटर, मूंग की फली, सोया, यहां तक कि चावल जैसे प्लांट स्रोतों से निकाले गए प्रोटीन्स पर आधारित होते हैं.
व्यंजन तो नकल किए जा रहे मीट की क़िस्म के हिसाब से अलग अलग हो सकते हैं लेकिन चिकनाई- जो आमतौर से वनस्पति तेल होती है- आमतौर से रसीलेपन को बढ़ाने के लिए मिलाई जाती है. नकली सॉसेज मीट के लिए आमतौर से बांधने वाले पदार्थ इस्तेमाल किए जाते हैं, और मीट जैसा रंग देने के लिए उनमें अकसर चुक़ंदर का जूस मिलाया जाता है. यीस्ट के अर्क से स्वाद ज़ायकेदार होता है, और बहुत से खानों में प्याज़, लहसुन, नमक और काली मिर्च जैसी दूसरी चीज़ें भी मिलाई जाती हैं.
अंत में, ‘हाई मॉयस्चर एक्सट्र्यूज़न’ और ‘शियर-सेल’ तकनीक दो सबसे आम प्रक्रियाएं हैं, जिनसे सब्ज़ियों के प्रोटीन को एक परतों वाली रेशेदार बनावट दी जाती है, जो देखने और बनावट में मीट से काफी मिलता है.
क्या इसमें अस्ली चीज़ जैसा स्वाद है?
कुछ मीट ऐसे होते हैं जिनकी नक़ल करना दूसरों से आसान होता है, खासकर वो जो पीसे जाते हैं (क़ीमे की तरह), या जिन्हें इतना प्रोसेस किया जाता है कि उनकी अस्ली पहचान छिप जाती है (जैसे नगेट्स). लेकिन किसी लैम्ब चॉप या चिकन के रसीलेपन, स्वाद, या रेशेदार बनावट की नकल करना ज़्यादा मुश्किल होता है.
अंधेरी निवासी अनुराग गावड़े ने, जो 2021 में शाकाहार पर शिफ्ट हो गए थे, दिप्रिंट को बताया कि वो प्लांट-आधारित मीट खाते हैं, लेकिन वो दो बातें कहते हैं: एक ये कि ‘कीमे और नगेट्स के अलावा, ज़्यादातर उत्पादों में 100 प्रतिशत मीट जैसा स्वाद नहीं होता, भले ही आप कुछ भी निर्देश माने’, और दूसरी ये कि बाज़ार में ज़्यादा वरायटी उपलब्ध नहीं है.
दिल्ली के राघव सिंह, जिन्होंने कहा कि उन्होंने नक़ली क़ीमे और बुर्जी का स्वाद विकसित कर लिया है, उनकी भी यही शिकायत है: ‘बाज़ार में ड्रम्स ऑफ हैवन कोरमा जैसे लोकप्रिय व्यंजन उपलब्ध नहीं हैं, जिसकी वजह से लोग बड़े पैमाने पर इसे नहीं अपना रहे हैं’.
उनका कहना है कि दाम और उपलब्धता भी एक बाधा हैं. उन्होंने कहा, ‘इनकी क़ीमतें सामान्य मीट के मुकाबले 3 से 5 गुना अधिक होती हैं. ये चीज़ें अक्सर किराना स्टोर्स के स्टॉक में भी उपलब्ध नहीं रहतीं’.
गुड फूड इंस्टीट्यूट (इंडिया) के वरुण देशपांडे ने स्वीकार किया कि ज़्यादा प्रामाणिक बनावट और स्वाद हासिल करने का कार्य प्रगति पर है.
देशपाण्डे ने कहा, ‘उपभोक्ताओं का कहना है कि कुछ उत्पाद मीट से मिलते जुलते हैं, लेकिन कुछ में अभी और विकास किए जाने की ज़रूरत है. एक आम फीडबैक ये है कि इन चीज़ों को और मीट जैसा बनाया जाए’.
देशपाण्डे ने आगे कहा, ‘मीट क़ीमा जैसी चीज़ें बनाना ज़्यादा आसान है, चूंकि अच्छी मात्रा में चिकनाई के साथ, इसका स्वाद और रसीलापन बहुत उम्दा है. कई सारी कंपनियां हैं जो कीमे के बहुत अच्छे उत्पाद बनाती हैं’.
उनके अनुसार, इनमें इमेजिन मीट्स (रितेश और जिनेलिया द्वारा स्थापित), और ब्लू ट्राइब फूड्स (दवा कंपनी एल्केम लैब्स के प्रबंध निदेशक संदीप सिंह द्वारा स्थापित) शामिल हैं.
देशपाण्डे ने कहा कि चिकन और मटन ‘अभी भी मुश्किल’ हैं, क्योंकि ‘उनकी बनावट, रेशापन, और रसीलेपन’ को बिल्कुल सही रखना पड़ता है, लेकिन इस बात की काफी संभावना है कि और अधिक आरएंडडी के साथ इस समानता को हासिल किया जा सकता है.
उन्होंने कहा, ‘पशु मांस उद्योग में भी, पशुधन के मौजूदा स्वाद तक पहुंचने के लिए, उसे पीढ़ियों तक ब्रीड किया गया था. हम भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं, लेकिन हमारे पास जलवायु स्थिरता का अतिरिक्त फायदा भी है’.
गुडडॉट के अभिषेक सिन्हा ने भी दिप्रिंट से कहा कि कुछ उत्पाद दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा कामयाब रहे हैं और ये भी पकाने की आसानी की वजह से है. उन्होंने कहा, ‘हमारा कीमा बहुत अच्छा कर रहा है, क्योंकि हम इसे एक किट के रूप में देते हैं, जिसमें मसाला और नापने का एक जार होता है, जिसकी वजह से इसे तैयार करना बेहद आसान होता है और इसके लिए आपको किसी और चीज़ या पकाने के कौशल की ज़रूरत नहीं होती. लेकिन, लोग अक्सर मटन चंक्स के बदल को कम देर तक पकाते हैं’.
सिन्हा ने कहा, ‘हमारे आउटलेट्स में 29 रुपए का कीमा पाव सबसे ज़्यादा बिकने वाला आइटम है, जिसके बाद चिकन है. लेकिन घरों में इस्तेमाल के लिए लोग कीमा और बिरयानी की किट्स पसंद करते हैं. दाम, स्वाद और आसानी सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं’.
लेकिन, कुछ उपभोक्ता स्वास्थ्य को होने वाले फायदों को लेकर भी संशय में हैं. कोलकाता की एक ग्रहिणी तियाशा दत्ता ने कभी कभी प्लांट-आधारित मीट्स इस्तेमाल किए हैं, ताकि घर में नॉन-वेज का उपभोग कम हो सके, लेकिन वो अभी भी दुविधा में हैं क्योंकि परिवार को दूसरे नकली मीट्स के मुकाबले नगेट्स, कबाब और सॉसेजेज़ जैसे नकली मीट स्नैक्स पसंद हैं, जिन्हें तैयार करने में ज़्यादा तेल खर्च होता है.
उन्होंने कहा, ‘ये चीज़ें बहुत महंगी होती हैं और बहुत फ्रेश भी नहीं होतीं, क्योंकि इन्हें बहुत अधिक ठंडा रखना होता है, और पकाने और तैयार करने में तेल बहुत लगता है. हालांकि हम प्लांट-आधारित मीट की चीज़ें ज़्यादा खाना चाहते हैं, लेकिन कभी कभी इन कारणों के चलते ऐसे खाने को केंसिल करना पड़ता है’.
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सेहत का सवाल
प्लांट-आधारिक मीट को व्यापक रूप से दो चीज़ों के आधार पर बेचा जाता है. पहली, ये पशुओं पर क्रूरता से बचने का दावा करता है और साथ ही कार्बन फुटप्रिंट, ग्रीन हाउस उत्सर्जन और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण कम करता है. दूसरी, ये भी दावा किया जाता है कि पारंपरिक मीट समकक्षियों की तुलना में, इसमें स्वास्थ्य लाभ काफी होता है, चूंकि इसके अंदर बहुत कम या शून्य कॉलिस्ट्रॉल होता है और एंटीबायोटिक अवशेष भी उससे कहीं कम होते हैं, जितने आमतौर पर व्यवसायिक रूप से पाले गए पशुओं में होते हैं.
व्यापक रूप से हवाला दी गई एक स्टडी के मुताबिक, जो 2018 में साइंस पत्रिका में छपी थी, पशुपालन दुनियाभर में ईकोसिस्टम के नुकसान और पर्यावरण बिगड़ने के पीछे एक मुख्य कारण है. स्टडी में कहा गया कि मीट और डेयरी दुनिया भर के 83 प्रतिशत खेतों का इस्तेमाल कर लेते हैं और कृषि से होने वाले 60 प्रतिशत ग्रीन हाउस उत्सर्जन के ज़िम्मेवार हैं.
उसमें ये भी कहा गया कि मीट और डेयरी क्रमश: हमारी कैलोरीज़ और प्रोटीन्स की केवल 18 प्रतिशत और 37 प्रतिशत ज़रूरत पूरी करते हैं.
लेकिन, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की रिसर्च पूरी तस्वीर पेश नहीं करती और इसका मतलब ये ज़रूरी नहीं है कि प्लांट-आधारित प्रोटीन्स पर्यावरण की दृष्टि से कहीं अधिक टिकाऊ हैं.
एक्सपर्ट्स ने ये भी माना है कि प्लांट-आधारित मीट पौष्टिक रूप से आदर्श नहीं होते. मसलन,फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा पेपर में कहा गया कि पूरे पौधे और पशु खाद्य पदार्थ ‘इंसानी स्वास्थ्य को सुधारने में सहजीवी तरीके से काम करते हैं’ और मीट के पोषण के महत्व को नकली पदार्थों से नहीं बदला जा सकता जिनमें ‘अलग किए गए प्लांट प्रोटीन्स, चिकनाई, विटामिन्स और खनिज पदार्थों का इस्तेमाल होता है’.
इसके अलावा, प्लांट-आधारित मीट में अधिक मात्रा में शुगर, चिकनाई और नमक हो सकते हैं और इनमें कुछ पोषक तत्व कम हो सकते हैं, जैसे प्रोटीन्स, विटामिन बी-12, और ज़िंक आदि.
कीटोजेनिक आहार में विशेषज्ञता रखने वाली एक पीएचडी स्कॉलर डॉ सुभाश्री रे, जो एक प्रामाणिक डायबिटीज़ शिक्षक, और जन स्वास्थ्य पोषण विशेषज्ञ भी हैं, मानती हैं कि प्लांट-आधारित मीट पर अंशत: ही विश्वास करना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘हमें समझने की ज़रूरत है कि इन उत्पादों को बनाने में बहुत सारी चीज़ें इस्तेमाल होती हैं, जिससे कि ये मीट जैसे दिखने लगें- लेकिन ये बहुत अधिक प्रोसेस किए हुए होते हैं और वास्तव में प्राकृतिक नहीं होते. बहुत से उत्पादों में वनस्पति तेल, कुछ प्रेज़र्वेटिव्ज़ और रंग तक डाले जाते हैं’.
उनका कहना है कि शुद्ध भोजन स्वास्थ्य के लिए बेहतर होता है, जबकि प्लांट-आधारित मीट उतने ही पौष्टिक हो सकते हैं जितना ‘चिप्स का एक पैक’ होता है और संभावित रूप से उतने ही व्यसनकारी भी, जो उनके पर्यावरणीय लाभ को ‘नकार’ सकता है.
उन्होंने कहा, ‘हमें इनमें डाली जाने वाली चीज़ों के बारे में निश्चित होना पड़ेगा, जैसे मिलाए जाने वाले कृत्रिम रंग, ज़ायके, और प्रेज़र्वेटिव्ज़, जिनके बारे में अकसर पूरी तरह बताया नहीं जाता’. रे ने आगे कहा, ‘इनमें वनस्पति तेल मिलाए जाते हैं, जिनमें बहुत अधिक ओमेगा 6 (पॉलीसैचुरेटेड फैटी एसिड्स) होता है. इन्हें बासी होने से बचाने के लिए बनावटी एंटीऑक्सीडेंट्स भी डाले जाते हैं, जो अपने आप में कैंसरकारी एजेंट होते हैं’.
रे का मानना है कि जिन लोगों को नॉन-वेज की तलब होती है, उनके लिए बेहतर है कि ‘देसी मुर्गी’ और स्थायी रूप से खेती की जाने वाली मछली खाएं, या फिर उसकी बजाय नट्स और फलियों जैसे शुद्ध भोजन का विकल्प चुनें.
लेकिन,प्लांट-आधारित मीट उद्योग के हितधारक इससे सहमत नहीं हैं, और उनका दावा है कि इस वर्णन में मीट उपभोग के नकारात्मक असर का ज़िक्र नहीं किया गया है, और इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता, कि अलग अलग उत्पादों में अलग अलग चीज़ें डाली जाती हैं.
गुडडॉट संस्थापक अभिनव सिन्हा ने कहा, ‘हो सकता है कि हमारी चीज़ें स्वास्थ्य के लिए, प्लांट-आधारित शुद्ध भोजन जितनी हितकर न हों, लेकिन हम निश्चित रूप से मीट से ज़्यादा स्वास्थ्यकारी हैं’. उन्होंने आगे कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने कहा है, कि कुछ मीट कैंसरकारी होते हैं.
सिन्हा ने ये भी कहा कि उनकी कंपनी ने हानिकारक तत्वों का इस्तेमाल नहीं किया. उन्होंने कहा, ‘जहां तक हमारी कंपनी का सवाल है, नमक और तेल के अलावा हम कोई नक़ली प्रेज़र्वेटिव्ज़ इस्तेमाल नहीं करते. इसके अलावा हमारी चीज़ों में कॉलिस्ट्रॉल कम होता है, और फायबर ज़्यादा होता है. बहुत सारे उपभाक्ताओं का कहना है कि इन्हें खाने के बाद, चिकन या मटन आधारित भोजन के मुकाबले, वो कहीं ज़्यादा हल्का महसूस करते हैं’.
वरुण देशपांडे ने दिप्रिंट से कहा कि ये हमेशा उचित रहा है कि तत्वों के बारे में पूछा जाए और स्वास्थय का सोचा जाए, लेकिन ये भी ध्यान रखना चाहिए कि ‘खुद मीट में भी बहुत सारी चीज़ें होती हैं, और उन पर इन तत्वों का कोई लेबल नहीं होता’.
उन्होंने कहा, ‘कृत्रिम बनाम प्राकृतिक एक उचित आलोचना हो सकती है, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि ये सब पहली पीढ़ी के उत्पाद हैं, जो आगे चलकर कहीं बेहतर हो जाएंगे, और इनमें डलने वाले तत्व कम हो जाएंगे. ये भी है कि हम एक बढ़ती हुई आबादी का घास खिलाए हुए मांस से पेट नहीं भर सकते, जब जलवायु चुनौतियों का खतरा मंडरा रहा हो. बढ़ती आबादी की बढ़ती मांग को पूरा करते हुए हम बहुत सारी ज़मीन, पानी और संसाधन बचा रहे हैं.
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