नई दिल्ली: सबसे ज्यादा नीरस शख्स को भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इस कहानी में मसाला तो था – सेक्स, मिसाइल, दो ख़ूंख़ार महिलाएं , हनीट्रैप, रूसी हथियार डीलर, और ज्यादा सेक्स, मालदीव सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) की मिलीभगत, और फिर सेक्स.
समय के साथ, सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा इस तथ्य को स्थापित किया गया कि 1994 के बहुचर्चित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) जासूसी कांड में ना तो कोई जासूस शामिल थे और न ही इसमें सेक्स का कोई एंगल था. घोटाले के मामूली संकेत भी नहीं मिले – लेकिन यह सब इसकी वजह से कई सारी जिंदगियां बर्बाद होने से पहले पता नहीं चल सका था.
मानवाधिकार प्रचारक तीस्ता सीतलवाड़ के साथ गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) आरबी श्रीकुमार की पिछले हफ्ते हुई गिरफ्तारी के बाद इसरो मामले के जांच की घिनौनी कहानी एक बार फिर से चर्चा में आ गई है. ये गिरफ़्तारियां सुप्रीम कोर्ट के यह कहे जाने के बाद हुई है कि साल 2002 के गुजरात दंगों में राज्य की संलिप्तता के उनके आरोप ‘ गलत इरादों के साथ’ लगाए गए थे.
पिछले कई वर्षों से, श्रीकुमार के समर्थकों ने उन्हें एक ऐसे ईमानदार अधिकारी के रूप में पेश किया है, जो धर्मनिरपेक्षता और न्याय के प्रति अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धताओं को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है.
मगर इसरो मामले के पीड़ितों – जिनमें से प्रमुख हैं प्रिंसटन से पढ़े-लिखे एयरोस्पेस इंजीनियर नंबी नारायणन – के लिए श्रीकुमार एक दुर्भावनापूर्ण तरीके से काम करने वाले ‘एजेंट’ थे, जिन्होंने एक व्यक्तिगत प्रतिशोध को साधने के लिए झूठे सबूत गढ़े थे.
इसरो मामले की जांच
प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी एवं पेशे से पत्रकार बलरामपुरम जी. रमन पिल्लई के पोते, श्रीकुमार की शिक्षा तिरुवनंतपुरम में हुई और वे साल 1971 में भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) में शामिल हुए.
उन्होंने अहमदाबाद सहित सात जिलों में पुलिस अधीक्षक के रूप में कार्य किया और दो राष्ट्रपति पुलिस पदक भी अर्जित किए. सभी विवरणों के अनुसार श्रीकुमार का रिकॉर्ड काफ़ी अच्छा रहा. कथित तौर पर हिरासत में हुई हिंसा के साल 1986 के एक मामले, जिसमें उन्हें बरी कर दिया गया था, को छोड़कर, उन्हें कभी किसी विवाद का सामना नहीं करना पड़ा.
कच्छ-सीमा पर जासूसी के पांच मामलों की श्रीकुमार द्वारा की गई जांच ने तत्कालीन खुफिया ब्यूरो के निदेशक एच.ए. बरारी का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित किया और फिर साल 1987 में ब्यूरो में उनकी प्रतिनियुक्ति हो गई.
इसरो का मामला साल 1994 में तब सामने आया जब श्रीकुमार, और उनके साथ सी.एम. रवींद्रन, संयुक्त निदेशक मैथ्यू जॉन के अधीन ब्यूरो के केरल स्टेशन पर कार्यरत दो उप-निदेशकों में से एक थे.
जल्द ही पुलिस महानिदेशक बनने वाले सिबी मैथ्यूज के नेतृत्व में केरल के जांचकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि मालदीव की दो महिलाएं, मरियम रशीदा और फ़ौसिया हसन, रूसी अंतरिक्ष एजेंसी ग्लोवकोसमोस के प्रतिनिधि के. चंद्रशेखर के साथ मिलकर भारतीय मिसाइल प्रौद्योगिकी को चुराने के लिए चलाए गये एक गुप्त अभियान में शामिल थीं.
पुलिस ने आरोप लगाए थे कि इन दोनों महिलाओं ने नारायणन और उनके सहायक डी. शशिकुमारन को भारत के ‘विकास’ रॉकेट इंजन और सैकड़ों अन्य गोपनीय दस्तावेजों के चित्र प्राप्त करने के लिए लुभाया था.
इसके बाद बरपे राष्ट्रीय हंगामे के बाद इस मामले को सीबीआई को स्थानांतरित कर दिया गया – जिसने जल्द ही यह तय कर दिया कि इस मामले के अपने पैरों पर खड़े होने के लिए पर्याप्त सबूत ही नहीं थे. उदाहरण के तौर पर, जिन तारीखों पर तथाकथित प्रमुख षड्यंत्रकारी बैठकें हुईं, वे संदिग्धों की गतिविधियों और होटल के रिकॉर्ड से मेल ही नहीं खातीं थीं. सबसे अहम बात तो यह थी कि यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं था कि कोई भी गोपनीय तकनीक या दस्तावेज चोरी भी हुए थे या नहीं थे.
साल 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के इस निष्कर्षों के आधार पर इस मामले की जांच समाप्त कर दी और सभी आरोपियों को रिहा कर दिया गया. बाद में, नारायणन ने उनको हुए नुकसान से लिए केरल सरकार के विरुद्ध 50 लाख रुपये की छतिपूर्ति का एक मुक़दमा जीता.
इंटेलिजेंस ब्यूरो के अंदर उनका करियर इस घोटाले के बाद पटरी से उतर गया और श्रीकुमार साल 2001 में गुजरात लौट आए. साल 2002 में हुए दंगों के बाद, वह वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के एक तीखे आलोचक के रूप में सामने आए और उन्होने न्यायिक और पुलिस जांचकर्ताओं के सम्मुख हलफनामों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रस्तुत की. अन्य बातों के अलावा, उनके हलफनामे में दावा किया गया है कि 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा में गुजरात के आला अधिकारियों की मिलीभगत थी.
इस बारे में सरकार के समर्थकों का कहना है कि हो सकता है कि श्रीकुमार ने इसरो मामले में दंडित किए जाने से स्वयं को बचाने के उद्देश्य से दबाव बनाने हेतु इस तरह से काम किया हो – लेकिन इस दावे का समर्थन करने के लिए भी कोई सबूत सामने नहीं आया है.
श्रीकुमार की अनसुलझी भूमिका
खुफिया ब्यूरो के पूर्व अधिकारी के.वी. थॉमस द्वारा इसरो मामले में दी गयी चश्मदीद गवाही के अनुसार, यह स्पष्ट है कि केरल पुलिस द्वारा तैयार किए गये मामले का अधिकांश भाग इंटेलिजेंस ब्यूरो के इशारे पर ही एक साथ जुटाया गया था.
थॉमस की गवाही ने दर्शाया है कि नई दिल्ली स्थित खुफिया अधिकारियों ने इस पूरी कहानी को एक साथ करने, वीडियो टेप किए गए इकबालिया बयानों की विषय वस्तु के बारे में आरोपियों को घुट्टी पिलाने और नारायणन को अपने अंडरवियर को उतारने के लिए मजबूर करने जैसी दबाव की रणनीति का उपयोग करने, जैसे कृत्यों में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी.
इन सभी घटनाक्रमों में श्रीकुमार की कितनी भूमिका थी – या फिर उनके सहयोगियों रवींद्रन और जॉन द्वारा निभाई गई भूमिका क्या थी – यह अब तक अज्ञात है.
थॉमस की किताब में कहा गया है कि खुफिया ब्यूरो के शीर्ष अधिकारियों, जैसे दिवंगत मोलॉय धर – जिन्होंने उनकी अपनी किताब में जासूसी के इस मामले के बारे में ज़ोर देकर कहा है कि यह सच था – ने भी साजिश वाली थियरी को तैयार करने में भाग लिया हो सकता है.
दिप्रिंट द्वारा देखे गए रिकॉर्ड यह ज़रूर दिखाते हैं कि ब्यूरो ने एक आंतरिक जांच की थी. ब्यूरो के कई अधिकारियों ने तर्क दिया कि बिना किसी कानूनी हैसियत के गुप्तचर सेवा के सदस्यों के रूप में संदिग्धों पर मुकदमा चलाने के केरल के फैसले में उनकी कोई भूमिका नहीं थी. इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक डी.सी. पाठक सहित इसके शीर्ष अधिकारियों ने सीबीआई से बात करने से साफ इनकार कर दिया था.
श्रीकुमार ने अपनी तरफ से सीबीआई को बताया था कि अन्य प्रतिबद्धताओं के कारण इस मामले में उनकी भागीदारी केवल एक बाहर-बाहर से निभाई गई भूमिका में हीं थी, और उन्होंने केवल दो दिनों के लिए रशीदा की पूछताछ में भाग लिया था. उन्होंने यह भी कहा कि इकबालिया बयान के वीडियो टेप बनाने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी और उनकी विषय-वस्तु पर कोई राय देने से इनकार कर दिया था.
इसी तरह, केरल ने भी जांचकर्ताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. साल 2011 में, राज्य सरकार ने केरल पुलिस, जिस पर सबूत गढ़ने का आरोप लगाया गया था, के खिलाफ सभी आरोप हटा लिए थे. श्रीकुमार की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद, मैथ्यूज को डीजीपी नियुक्त किया गया था.
साल 2013 में, यह मामला फिर से भड़क गया, जब वर्तमान विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी ने विपक्ष मे रहते हुए श्रीकुमार पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए तर्क दिया था कि उन्होंने विदेशी एजेंसियों के इशारे पर नारायणन को फंसाया था. श्रीकुमार ने मानहानि का मुकदमा दायर करके इसका जवाब दिया, लेकिन उनके द्वारा आगे कोई प्रयास नहीं करने का फैसला करने के बाद इस कार्रवाई को ख़त्म कर दिया गया था.
श्रीकुमार की गिरफ्तारी की खबर सामने आने के बाद नारायणन ने कहा, ‘मुझे पता चला कि उन्हें आज झूठी कहानियों को गढ़ने और उन्हें सनसनीखेज बनाने की कोशिश करने के लिए गिरफ्तार किया गया है. यह ठीक वैसा ही है जैसा उन्होंने मेरे मामले में किया था.’ इससे पहले, नारायणन ने सीबीआई को बताया था कि उनके द्वारा श्रीकुमार के एक रिश्तेदार को नौकरी दिलाने में विफल रहने के बाद उन्होनें व्यक्तिगत द्वेष से उनके खिलाफ काम किया हो सकता है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि श्रीकुमार ने हिरासत में उनकी पिटाई करने में भी भाग लिया था.
अपने तरफ़ से, श्रीकुमार जोर देकर कहते रहे हैं कि इसरो मामले की जांच उचित थी, और उन्होंने यह भी दावा किया कि सीबीआई ने एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी जांच को राह से बेराह कर दिया.
पिछले साल सीबीआई ने श्रीकुमार समेत पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो के 18 अधिकारियों को नामजद करते हुए कथित तौर पर संदिग्धों को फंसाने के लिए प्राथमिकी दर्ज की थी. हालांकि, अभी भी इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है कि नई दिल्ली स्थित इंटेलिजेंस ब्यूरो के शीर्ष अधिकारियों ने सबूत गढ़ने के केरल स्टेशन के प्रयास का समर्थन क्यों किया और फिर सीबीआई जांचकर्ताओं के साथ टाल-मटोल करने की कोशिश क्यों की?
श्रीकुमार के पास भले ही व्यक्तिगत द्वेष साधने का मकसद रहा हो, लेकिन यह इंटेलिजेंस ब्यूरो के शीर्ष नेतृत्व के कारनामों की सही व्याख्या नहीं करता है.
तो क्या आरबी श्रीकुमार एक सैद्धांतिक व्हिसलब्लोअर हैं या एक घातक एजेंट? दुख की बात यह है कि इस बारे में पूरा सच, हमें शायद कभी पता न चले.
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