नई दिल्ली: 30 जुलाई, 1846 को अंग्रेजों के शासनकाल में 15वीं फिरोजपुर सिख के के तौर पर स्थापित भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट, जिसे सबसे बहादुर माना जाता है, ने शनिवार को अपनी स्थापना के 175 साल पूरे होने का जश्न मनाया. इस तरह के कई उत्सव कार्यक्रम अगले एक साल तक मनाए जाने की योजना है.
संयोग से 1 सिख (14वी फिरोजपुर सिख), जो अब 4 मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री में तब्दील हो चुकी है, राष्ट्रमंडल देशों में सबसे अधिक पदक पाने वाली बटालियन है.
30 जुलाई को 1 सिख की स्थापना के बाद 1 अगस्त, 1846 को 2 सिख का गठन हुआ, जिसे लुधियाना की 15वीं रेजिमेंट के रूप में जाना जाता है.
सेना में सबसे ज्यादा कठिन युद्ध लड़ने वालों में शुमार सिख रेजिमेंट को अपने गठन के बाद से हर बड़े युद्ध का हिस्सा रहने का गौरव हासिल है, जिसमें चर्चित अफगान युद्ध, विश्व युद्ध और भारत की स्वतंत्रता के बाद के सभी युद्ध शामिल हैं. इसमें अब 20 बटालियन हैं.
यद्यपि हर साल स्थापना दिवस 30 जुलाई को ही मनाया जाता है, लेकिन इस साल ऑपरेशन संबंधी कुछ कारणों से इसमें देरी हुई.
रेजिमेंट के कर्नल लेफ्टिनेंट जनरल पीजीके मेनन हैं, जो इस समय लद्दाख सेक्टर में चीन के साथ लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रही लेह की 14वीं कोर के प्रमुख हैं.
दिप्रिंट ने एक नजर डाली देश की रक्षा में इसके गौरवशाली 175 वर्षों के योगदान और उन प्रमुख लड़ाइयों पर, जिनका यह हिस्सा रही है
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ब्रिटिश शासन में स्थापना का उद्देश्य
1845 के एंग्लो-सिख युद्ध (फरवरी 1946 में यह खत्म हुआ) ने अंग्रेजों को सिख सैनिकों की वीरता से परिचित करा दिया और इसने उन्हें सेना में सिखों की भर्ती का उत्सुक बना दिया. सिख सैनिकों को भर्ती करने की जिम्मेदारी लेफ्टिनेंट एनसाइन जे ब्रेसर को मिली, जो व्यापक स्तर पर पंजाब का दौरा कर चुके थे और पंजाबी बोलना और गुरुमुखी पढ़ना दोनों जानते थे.
सिख रेजीमेंट की 175वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित एक पत्रिका में बताया गया है कि भर्ती शुरू होने की जानकारी कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए ढोल वालों से मुनादी कराई गई थी.
अंतत: जनरल ऑर्डर के दो रेजिमेंटों की स्थापना हुई, जिसे आज हम सिख रेजिमेंट की नींव रखे जाने के तौर पर जानते हैं.
सारागढ़ी की लड़ाई से घाटी के रक्षक तक
आजादी के पहले प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध, अफगान युद्धों और बर्मा अभियान जैसी कई प्रमुख जंग का हिस्सा रही इस सिख रेजिमेंट ने हर लड़ाई के साथ अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया है.
आजादी के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा और सिख रेजिमेंट सेना की सबसे ज्यादा पदक हासिल करने वाली यूनिट बनी हुई है.
आजादी के तुरंत बाद बटालियन ने ‘सैवियर्स ऑफ द वैली’ का उपनाम हासिल किया, क्योंकि जम्मू-कश्मीर पर कब्जे के लिए पाकिस्तान की तरफ से भेजे गए हमलावरों का मुकाबला करने के लिए 27 अक्टूबर, 1947 को हवाई जहाज से श्रीनगर भेजे जाने वाली यह पहली बटालियन थी.
यह बटालियन 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1999 की कारगिल जंग का भी हिस्सा रही है.
हालांकि, इसकी तरफ से लड़ी गई सबसे भयंकर जंग, जिसके लिए वे ख्यात हैं, वह है ‘सारागढ़ी की लड़ाई’, जो ब्रिटिश और अफगान कबाइलियों के बीच लड़ी गई थी, जिसमें सिख बटालियन 19 नवंबर 1897 को जबर्दस्त लड़ाई के बावजूद लगातार आगे बढ़ती रही.
इसे अब तक की सबसे बहादुरी से लड़ी गई जंग माना जाता है, जिसमें ‘लास्ट मैन-लास्ट राउंड’ के सिद्धांत का पालन करते हुए बटालियन ने अपने अदम्य साहस का प्रदर्शन किया.
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सबसे आगे रहने की विरासत
रेजिमेंट केवल ऐसी पहली यूनिट ही नहीं है जिसे 1947 में हवाई मार्ग से श्रीनगर भेजा गया, बल्कि 1923 में कुर्दिस्तान में विद्रोह को दबाने के लिए भी उसे ही एयरलिफ्ट किया गया था.
रेजिमेंट पहली बटालियन थी जिसे आजादी के बाद (श्रीनगर) युद्धक सम्मान प्रदान किया गया और 1962 में पूर्वी सीमा पर भारत-चीन के बीच युद्ध के दौरान परमवीर चक्र पाने वाली भी केवल यही बटालियन थी. सिख रेजिमेंट पहली ऐसी यूनिट है जिसे 15 जनवरी 1997 को सेना प्रमुख की तरफ से ‘बहादुरों में सबसे बहादुर’ का सम्मान दिया गया.
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