scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होमदेशचुनावी वादे के तौर पर फ्री में रेवड़ियां बांटने पर लगनी चाहिए रोक, माना जाए इसे 'भ्रष्ट आचरण'

चुनावी वादे के तौर पर फ्री में रेवड़ियां बांटने पर लगनी चाहिए रोक, माना जाए इसे ‘भ्रष्ट आचरण’

सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की पवित्रता बनाये रखने के लिए मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त रेवड़ियां बांटने के वादे करने वाले राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के संबंध में अलग से कानून बनाने का 2013 में सुझाव दिया था.

Text Size:

देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपराधीकरण, बाहुबल और धनबल से मुक्त कराने में न्यायपालिका ने भले ही सफलता प्राप्त कर ली हो लेकिन अभी भी चुनाव सुधारों की दिशा में काफी कुछ करना बाकी है. इसी में एक विषय सत्ता पर काबिज होने के लिये जनता और मतदाताओं को मुफ्त में रेवड़ियां देने के वादों पर अंकुश लगाना और इस प्रवृत्ति को जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में शामिल करना भी है.

शीर्ष अदालत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की पवित्रता बनाये रखने के लिए मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त रेवड़ियां बांटने के वादे करने वाले राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के संबंध में अलग से कानून बनाने का 2013 में सुझाव दिया था.

न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियों के बावजूद राजनीतिक दल देश और प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों और राजस्व को हानि पहुंचाने वाले प्रलोभन देने और उन पर अमल करने में संकोच नहीं कर रहे हैं.

जन प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन करके यह प्रावधान करने की आवश्यकता है कि मतदाताओं को इस तरह के प्रलोभन देना भ्रष्ट आचरण माना जायेगा. यही नहीं, चुनाव के बाद अगर इस तरह के प्रलोभन देने के वादे करने वाला दल सत्ता में आता है और जनता को मुफ्त पानी, बिजली, नि:शुल्क बस यात्रा और बिजली के बिल माफ किए जाने जैसे वादों पर अमल करने का प्रयास करता है तो उसकी भी जिम्मेदारी तय हो.

जनहित की बजाए अपने राजनीतिक हित की खातिर ऐसे किसी भी निर्णय पर अमल से होने वाले राजस्व के नुकसान की भरपाई भी उसी दल द्वारा किये जाने का प्रावधान कानून में ही होना चाहिए.

जन प्रतिनिधित्व कानून में इस तरह के प्रावधान से ही देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान जनता को इस तरह के प्रलोभन देकर मतदाताओं को लुभाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा.


यह भी पढ़ें: क्या भारत में अब यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का वक्त आ गया है, अदालतें इस पर क्या सोचती हैं


देश की न्यायपालिका ने पिछले तीन दशकों में लोकतांत्रिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और इसके अपराधीकरण पर अंकुश लगाने तथा बाहुबल और धन का वर्चस्व न्यूनतम करने के लिये अनेक महत्वपूर्ण फैसले दिये हैं. इन्हीं व्यवस्थाओं का नतीजा है कि आपराधिक मामले में दो साल से ज्यादा की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों को तत्काल प्रभाव से अपनी सीट गंवानी पड़ रही है.

न्यायपालिका के इन प्रयासों के बावजूद राजनीतिक दल अपने हितों की खातिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार के प्रति लगातार उदासीन रवैया अपनाते रहते हैं. ऐसी स्थिति में अब समय आ गया है कि प्राकृतिक संपदा और देश प्रदेश के लिये राजस्व पैदा करने वाले संसाधनों की मुफ्त बंदरबांट की राजनीति पर अंकुश लगाया जाए.

इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता पर काबिज होने के लिये जनता को मुफ्त बिजली और पानी देने के साथ ही किसानों के बिजली के बकाया बिलों को माफ करने और बसों में महिलाओं को नि:शुल्क यात्रा की सुविधा देने जैसी घोषणाओं को जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में शामिल किया जाए.

मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये टेलीविजन, मंगलसूत्र, प्रेशर कुकर और ऐसी ही दूसरी वस्तुएं देने के वादे का सिलसिला 2006 में तमिलनाडु से शुरू हुआ. इसके बाद चुनाव में मतदाताओं को आईफोन देने, तीन मंजिले घर देने और उन्हें चांद की सैर कराने जैसे भी वादे किये जाने लगे. स्थिति यह है कि अब इस तरह के चुनावी वादे करने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे यह दूसरे राज्यों में भी फैल रही है.

स्थिति यह हो गयी है कि दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने एक निश्चित सीमा तक बिजली और पानी का बिल माफ करने तथा डीटीसी की बसों में महिलाओं को नि:शुल्क यात्रा देना शुरू किया और अब यही राजनीतिक दल पंजाब, उत्तराखंड और गोवा जैसे राज्यों में भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दूषित करने का खेल शुरू कर रहा है. इस तरह के आर्थिक प्रलोभनों का वादा देने में दूसरे राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं.

यह सही है कि इस समय राजनीतिक सभाओं और चुनाव घोषणा पत्रों में जनता और मतदाताओं से किये गये वादे जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में नहीं आते हैं लेकिन इससे कैसे इंकार किया जा सकता कि मुफ्त में रेवड़ियां देने के वादे समाज के सभी वर्गो को प्रभावित करते हैं. इस तरह के प्रलोभन लोकतंत्र की पवित्रता को प्रभावित करने के साथ ही देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिला देते हैं.

यह किसी एक व्यक्ति, संगठन या वर्ग की राय नहीं है बल्कि उच्चतम न्यायालय ने भी आठ साल पहले जुलाई, 2013 में एस सुब्रमण्यम बालाजी वर्सेज गवर्नमेंट ऑफ तमिलनाडु एंड अदर्स (S.Subramaniam Balaji vs Govt.Of T.Nadu & Ors) प्रकरण में सुनाये गये अपने फैसले में इस तरह की प्रवृत्ति को अनुचित माना था.

न्यायालय ने कहा था कि चुनाव घोषणा पत्रों में मतदाताओं से किये गये वादे जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं होते हैं लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मुफ्त में रेवड़ियां देने के वादे समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करते हैं.

हालांकि, न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को यह निर्देश जरूर दिया था कि चुनाव की घोषणा के साथ ही लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता में अलग एक शीर्षक के तहत राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों के संबंध में भी प्रावधान किया जाएं.

यही नहीं, मुफ्त में रेवड़ियां बांटने के वादे की प्रवृत्ति से चिंतित शीर्ष अदालत ने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के संबंध में अलग से कानून बनाने का भी सुझाव दिया था.

इस फैसले के बाद निर्वाचन आयोग ने आदर्श आचार संहिता में एक नया उपबंध शामिल किया था जिसमें मतदाताओं को प्रभावित करने वाली तमाम घोषणायें करने पर प्रतिबंध लगाए गये थे, लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों पर इसका कोई असर नहीं हुआ.

मतदाताओं को मुफ्त रेवड़ियां देने के वादे का मुद्दा एक बार हाल ही में सम्पन्न तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के दौरान भी मद्रास उच्च न्यायालय में उठा. उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से जानना चाहता था कि राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में इस तरह के वादों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के संबंध में कानून बनाने की दिशा में क्या प्रगति हुई है.

उच्च न्यायालय यह भी जानना चाहता था कि इस तरह के वादे करने वाले राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को उन्हें पूरा करने के लिये इन पर पर होने वाले खर्च का 10 प्रतिशत वहन करने के लिये जिम्मेदार क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए.

न्यायालय ने तिरुनेल्वेली निवासी एम चंद्रमोहन की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को आड़े हाथ लिया था. यही नहीं, उच्च न्यायालय के एक वकील ने शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला देते हुए निर्वाचन आयोग और राज्य चुनाव आयोग को नोटिस भी भेजे थे.

मतदाताओं को निर्वाचन क्षेत्रों में समुचित विकास करने और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के वादे करने वाले राजनीतिक दलों ने न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियों के बावजूद अब प्राकृतिक संसाधनों और राज्य को राजस्व प्रदान करने वाली सेवाओं को एक निश्चित सीमा तक मुफ्त उपलब्ध कराने का वादा करना शुरू कर दिया है.

राजनीतिक दलों की इस तरह की सोच पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है. चूंकि चुनाव आचार संहिता में प्रावधान करना बहुत कारगर नहीं हुआ है, अब इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिये बेहतर होगा कि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके ऐसे प्रलोभनों को भ्रष्ट आचरण के दायरे में शामिल किया जाए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: क्या ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने की वैधता के लिए न्यूनतम समय तय करने का वक्त आ गया है


 

share & View comments