वोटर आईडी-आधार कार्ड लिंक कराने के लिए नगर निगम के अधिकारी बारिश से भीगे, खंडवा मोहल्ले के घरों के चक्कर काट रहे हैं. वह एक घर के बाहर रुकते हैं और डोर बेल का स्विच दबाते हैं. वास्तव में ये एक लाइट बल्ब का स्विच है जो ऑन और ऑफ हो रहा है. तेरह साल की फौजिया दरवाजा खोलती है.
‘क्या आपके माता-पिता ने अपने वोटर आईडी को अपने आधार कार्ड से लिंक किया है?’ अधिकारी ने पूछा. फौजिया अपने माता-पिता के पास जाती है और सांकेतिक भाषा में उनसे पूछती है.
उसके माता-पिता दोनों बधिर हैं. फौजिया के लिए सांकेतिक भाषा सीखना उतना ही स्वाभाविक था जितना कि सांस लेना. लेकिन उसने इस भाषा को सिर्फ अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों तक सीमित नहीं रखा. वह अपनी इस स्किल से लोगों की मदद कर रही है. वह बड़े स्तर पर खंडवा की सांकेतिक भाषा सहायक है, जो विकलांगों और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करती है. फौजिया आठ साल की उम्र से मध्य प्रदेश के इस छोटे से शहर में सरकारी अधिकारियों और पुलिस के साथ बधिर लोगों को संवाद करने में मदद कर रही है.
यह छोटी सी लड़की कई वकीलों की तुलना में स्थानीय सरकारी एजेंसियों के कामकाज के बारे में ज्यादा जानती है. कलेक्टर कार्यालय, पुलिस अधीक्षक कार्यालय, स्थानीय आधार सेवा केंद्र और नगर निगम कार्यालय का उसने न जाने कितनी बार चक्कर लगाया है. वह जानती है कि बैंक खातों और पासबुक के लिए आवेदन कैसे किया जाता है. वह कम सुनने वालों की ओर से अकसर इस काम को करती है. साथ ही उसे यह भी पता है कि उसके शहर में राशन की दुकानें कहां हैं.
उसने बुरहानपुर के पास के एक स्कूल में शिक्षकों द्वारा बधिर छात्रों के साथ क्रूर व्यवहार जैसे अन्याय का पर्दाफाश किया है. उसने पुलिस को एक बधिर जोड़े की समस्याओं के बारे में बताया. फौजिया महज 13 साल की है, लेकिन उसने राज्य मशीनरी को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है कि कैसे विकलांग लोगों के परेशानियों को अनसुना कर दिया जाता है.
अपने माता-पिता के नजदीक बैठी फौजिया ने कहा, ‘सिर्फ इसलिए कि वे सुन नहीं सकते, इसका मतलब यह नहीं है कि उनका अस्तित्व नहीं है.’ अपने माता-पिता के लिए वह सिर्फ उनकी दुनिया नहीं है, बल्कि उनकी उम्मीद भी है. खंडवा और बुरहानपुर में बधिर समुदाय भी उसके लिए ऐसी ही सोचते है.
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एक बधिर परिवार में पली-बढ़ी
फौजिया हंसते हुए बताती है कि उसके माता-पिता बचपन में फर्श पर भारी चीजें गिरा देते थे ताकि यह पता लगाया जा सके कि वह सुन सकती है या नहीं.
वह कहती है, ‘मैं स्कूल में अपने दोस्तों की तरह और घर पर अपने माता-पिता की तरह रहती हूं. मेरे बारे में जानने या बात करने के लिए माता-पिता को मेरे जरिए टीचर्स से बात करनी पड़ती है.’
जब वह आत्मविश्वास के साथ बात करती है तो वे उसे उज्ज्वल आंखों और गर्व के साथ देखते हैं. उनके लिए 2018 में उस समय बदलाव का एक पल आया, जब बुरहानपुर के एक स्कूल में शिक्षकों द्वारा नियमित रूप से बधिर छात्रों को मारने और उन्हें अपने पैरों की मालिश करने के लिए मजबूर करने की खबर फैली.
फारुख जान गए थे कि उनकी बेटी कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ इस मामले को उठाकर उनकी मदद कर सकेगी. और उसने ऐसा किया भी. इस मामले ने उजागर कर दिया कि सरकारी स्कूलों में स्पेशल बच्चों के साथ किस हद तक अलग व्यवहार किया जाता है.
उसके माता-पिता फारुख और फ़ेमिदा मोहम्मद ने अपनी बेटी के बारे में छपी हर खबर को एक मोटे प्लास्टिक के फोल्डर में संभाल कर रखा है. एक कमरे के घर में एकमात्र अलमारी के ऊपर रखे इस फोल्डर तक वह बड़ी आसानी से पहुंच जाते हैं.
फौजिया और उसके माता-पिता को खंडवा व बुरहानपुर के लगभग 400 लोगों के बधिर समुदाय में हर कोई जानता है. वहां से अक्सर उनके पास मदद के लिए दरकार आती रहती है. उसके पिता ने बिजली के काम से लेकर सोफा भरने से लेकर पाइप की मरम्मत तक हर तरह के काम किए हैं. वह अब एक स्थानीय वर्कशॉप में स्टील काटने में हेल्पर का काम करते है, जबकि उसकी मां बगल में एक चाय की दुकान चलाती हैं. वह पिछले 12 सालों से खंडवा और बुरहानपुर में बधिरों को राशन पहुंचाने में मदद कर रहे हैं.
‘फोन आने से पहले, वे मेरे पिता को भेजते थे… क्या कहते हैं उन्हें… हां,…पत्र?’ फौजिया बताती हैं. अब, वीडियो कॉल और मैसेज के जरिए संपर्क में रहना और समस्याओं को सुनना आसान हो गया है. इसके साथ ही, ISH News जैसे प्लेटफॉर्म के आने के बाद से उनके लिए काफी आसानी हो गई है. इस चैनल पर सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है और यह समुदाय को करंट अफेयर्स पर नज़र बनाए रखने में मदद करता है.
फौजिया ने अपने पिता से कमान संभाल ली और अब दूसरों की मदद कर रही है लेकिन वह औपचारिक सांकेतिक भाषा में प्रशिक्षित नहीं है और उसने कभी इसकी पढ़ाई भी नहीं की है. जो कुछ भी सीखा है, वो अपने माता-पिता के साथ बातचीत करते हुए सीखा है, जो इंदौर में बधिरों के लिए एक कोचिंग सेंटर में मिले थे. यह उनके प्रयासों का ही नतीजा है, जिसने शहर के अधिकारियों को विकलांगों तक पहुंच बनाने में बुनियादी ढांचे की कमी के प्रति जागरूक करने के लिए मजबूर कर दिया.
स्थानीय प्रशासन ने राज्य के स्कूल के साथ संपर्क करने के लिए एक ‘विशेषज्ञ’ शिक्षक अंजलि शिंदे को भी नियुक्त किया है.
फौजिया और अंजलि छोटे शहरों के अक्षम लोगों की समस्या के लिए एक आवाज हैं. वो समस्याएं जिन्हें काफी हद तक अनदेखा किया गया है. ये दोनों पड़ोसियों, पुलिस, वकीलों, अदालतों और सरकारी अधिकारियों- सभी से मदद के लिए आई कॉल का जवाब देती हैं.
आधार कार्ड सत्यापन से लेकर बैंक पासबुक के लिए आवेदन करने, बलात्कार पीड़िता की शिकायत दर्ज कराने और गवाहों को अदालत में बोलने में मदद करने तक-खंडवा की ये जोड़ी सुनिश्चित कर रही है कि बधिरों को सुना जाए.
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अपराधों को सुलझाने के लिए कदम बढ़ाए
जब खंडवा पुलिस ने पहली बार 2017 में मदद के लिए फौजिया की ओर रुख किया, जब वह सिर्फ आठ साल की थी.
एक बधिर दंपत्ति शिकायत दर्ज कराना चाहता था. तब खंडवा की पुलिस अधीक्षक रुचि वर्धन मिश्रा ने फौजिया की ओर रुख किया था. वह शहर में ऐसे किसी शख्स की तलाश में थे जो सांकेतिक भाषा जानता हो?
उनके स्टाफ के एक सदस्य ने उन्हें फौजिया के बारे में बताया. मिश्रा ने तुरंत उसे ऑफिस में बुलाया. वह फौजिया के आत्मविश्वास से काफी प्रभावित हुईं थीं.
मिश्रा कहती हैं, ‘वह निश्चित रूप से वर्दी से नहीं डरती. इतनी छोटी सी उम्र में वह काफी स्मार्ट है.’
फौजिया ने बधिर दंपति से बात की और पुलिस को बताया कि वे अपने माता-पिता पर दुर्व्यवहार का आरोप लगा रहे हैं.
पुलिस को अब एक ‘विशेषज्ञ’ मिल गया था, जिसे वे कभी भी बुला सकते थे.
फौजिया के संपर्क में रहने वाले और यहां तक कि उसके 10वें जन्मदिन की पार्टी में शिरकत करने वाली मिश्रा कहती हैं, ‘फौजिया एक होनहार, साधन संपन्न बच्चा है, जिसमें काफी संभावनाएं हैं. मुझे उम्मीद है कि वह बड़े स्तर पर समुदाय के लिए कुछ करेगी.’
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समाज के लिए काम
अगर फौजिया स्थानीय पुलिस के लिए एक बैसाखी है, तो शिंदे अदालतों के लिए एक भरोसेमंद व्यक्ति है.
2019 में खंडवा जिला मजिस्ट्रेट तन्वी सुंदरियाल ने चार ‘विशेषज्ञों’ को नियुक्त करने का फैसला किया- दो दृष्टिहीनों के लिए और दो बधिरों के लिए.
भोपाल में ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण (आरआरडीए) के सीईओ सुंदरियाल कहते हैं, ‘डीएम का कार्यालय इन मुद्दों में शामिल है क्योंकि विकलांग लोगों के साथ काम करने वाले केंद्रों को चलाने के लिए धन, विशेषज्ञ उपकरण और उनके मुद्दों की प्राथमिकता की जरूरत होती है.’
शिंदे इन विशेषज्ञों में से एक हैं और मौजूदा समय में बधिरों की मदद करने वाली एकमात्र नियुक्ति है.
वह 1998 से सरकारी स्कूलों में पढ़ा रही हैं और उन्होंने 2015 में स्पेशल बहरे और मूक छात्रों की मदद करने के लिए, अपना दूसरा बी.एड करने का फैसला किया. वह पहले से ही खंडवा में स्पेशल नीड वाले बच्चों के एक होस्टल से जुड़ी हुई थीं. उन्होंने महसूस किया कि वह औपचारिक प्रशिक्षण के साथ और बेहतर तरीके से ऐसे लोगों की मदद कर सकती है. शिंदे को 2020 में डीएम कार्यालय ने एक विशेष शिक्षक और दुभाषिया के रूप में भर्ती किया था.
खंडवा के पुलिस अधीक्षक विवेक सिंह कहते हैं, ‘एक विशेषज्ञ होने से वास्तव में हमें मदद मिली है. शिंदे थाने से लेकर अदालत तक, मामले पर पूरी नजर रखती हैं.’ अपराधों के बारे में संवेदनशील बातचीत को संभालने के लिए फ़ौज़िया जैसे युवा किशोर के विपरीत एक वयस्क का होना भी ज़रूरी है.
2020 के बाद से शिंदे ने राज्य तक उनकी बात पहुंचाने के लिए बधिर पीड़ितों का हाथ थाम लिया है. मामले गलतफहमी से लेकर यौन उत्पीड़न तक, कुछ भी हो सकते हैं. शिंदे लोगों के बयान दर्ज करने और उनके वर्जन को पुलिस तक पहुंचाने में मदद करती हैं. कई मामले तो साधारण गलतफहमी के होते हैं- जैसे एक 16 साल की मानसिक रूप से अक्षम और बधिर लड़की गलती से गलत बस में चढ़ गई और इंदौर पहुंच गई. आमतौर पर ऐसे मामलों को एक दिन के भीतर हल कर लिया जाता है.
लेकिन यौन उत्पीड़न के मामले अदालत में अधिक समय लेते हैं. शिंदे को काम से एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है और सारा दिन कोर्ट में बिताना पड़ता है, जो उनके घर से करीब 60 किमी दूर है.
वह मौजूदा समय में दो बधिर बलात्कार पीड़ितों की आवाज है- खालवा की एक 10 साल की लड़की और 9वीं कक्षा में पढ़ने वाला एक लड़का. एक उदासीन शिक्षा प्रणाली का शिकार, लड़का पढ़-लिख नहीं सकता था. शिंदे को अपने कपड़ों की ओर इशारा करना पड़ा और घटनाओं के अपने वर्जन की पुष्टि करने के लिए अन्य इशारों का इस्तेमाल करना पड़ा.
खालवा मामला भी उतना ही जटिल है क्योंकि पीड़िता की मां केवल आदिवासी भाषा कोरकू जानती है. पहले परिवार और फिर पुलिस और वकीलों के साथ संवाद करने में शिंदे की मदद करने के लिए एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को लाया गया था.
शिंदे ने कहा, ‘जज अब मुझे पहचानते हैं. मेरे पास डिग्री है और मैं सरकार के लिए काम करती हूं, इसलिए वे मुझ पर भरोसा करते हैं. लेकिन वे अब भी मुझसे कोर्ट में पहली बात मेरी बीएड के बारे में पूछते हैं.’
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स्पेशल नीड्स एजुकेशन में कमी
शिंदे की शैक्षिक पृष्ठभूमि की जांच के प्रति सरकार की ईमानदारी विकलांग समुदाय के सदस्यों तक नहीं है.
स्पेशल नीड वाले बच्चों के लिए कोई अलग स्कूल नहीं है. ऐसे छात्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षा के वैकल्पिक तरीकों का इस्तेमाल करने का दायित्व शिक्षकों पर है.
हालांकि उनके लिए वहां तरीके या नियम मौजूद हैं लेकिन वे हमेशा लागू नहीं होते हैं. जबकि केंद्र के विकलांग व्यक्तियों के अधिकारिता विभाग ने एक ‘संकेत भाषा शब्दकोश‘ जारी किया है. लेकिन कई स्कूल संसाधनों के अभाव में सांकेतिक भाषा सिखाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. शिंदे के मुताबिक, बड़ी संख्या में 12वीं पास छात्र बेसिक अंग्रेजी पढ़ या लिख नहीं सकते हैं.
वह कहती हैं, ‘समस्या यह है कि हर किसी की एक जैसी सांकेतिक भाषा नहीं है. एक शिक्षक और दुभाषिया के रूप में आपको कुछ अनुमान लगाने होते हैं.’
इसके अलावा, विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए खंडवा छात्रावास महामारी के दौरान बंद कर दिया गया, जिससे छात्रों को अपने गांवों में लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा. शिंदे अपनी शिक्षा को लेकर चिंतित हैं क्योंकि उनके कई बधिर छात्र पहले से ही अपने औसत समकक्षों से पीछे चल रहे हैं.
पाठ्यक्रम या करिकुलम या संसाधनों की कमी से ज्यादा बड़ी समस्या शिक्षकों का व्यवहार है. फौजिया के पिता को भी उसके शिक्षकों द्वारा अक्सर पीटा जाता था.
हालांकि फौज़िया ने खुद इन समस्याओं का सामना नहीं किया है. लेकिन वह इन्हें जानती है क्योंकि वह इस तरह के मामलों से जुड़ी रही है.
फौजिया अपने माता-पिता के साथ बातचीत के बाद कहती हैं, ‘भारतीय शिक्षा अच्छी है, मेरे माता-पिता दोनों ऐसा कहते हैं.’ उसकी मां इंदौर के एक बधिर स्कूल में पढ़ती थी, जबकि उसके पिता को भोपाल में स्पेशल नीड वाले बच्चों के एक होस्टल में भेजा गया था.
वह कहती हैं, ‘यह शिक्षक हैं जो हमेशा उनकी कमजोरी का फायदा उठाते हैं.’
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चुनौती के लिए आगे आना
फौजिया कहती हैं, उनके लिए उनके माता-पिता की अंतिम इच्छा प्रधानमंत्री से मिलने की है, जबकि वह के-पॉप ग्रुप बीटीएस के अपने आइडियल से मिलना चाहती हैं. तब तक वह अपनी पढ़ाई जारी रखने और ज्यादा से ज्यादा लोगों की, जितना हो सके मदद करने की योजना बना रही है. इसमें सामान्य लोगों की मदद करना भी शामिल है.
वह जल्दी से अपने दिए गए जवाब को समझाने के लिए अपनी मां के पास जाती है. उसकी मां उससे सवाल करती है- बीटीएस क्या है? फौजिया हंसती है और जवाब देती है कि उसकी मां को यह समझ नहीं आएगा. फौजिया खुद नहीं समझ पाती कि बीटीएस क्या गा रही है लेकिन यह उसके लिए शायद ही मायने रखता हो.
वह कहती हैं, ‘आपको प्यार जताने या देखभाल करने के लिए सांकेतिक भाषा की जरूरत नहीं है.’
पुलिस और न्यायपालिका के बीच कड़ी के तौर पर काम करने वाली शिंदे के उलट, फौजिया की सहायता करने का तरीका कुछ अलग है- जैसे लोगों को बैंक पासबुक, सरकारी आईडी और अन्य वित्तीय सेवाओं के लिए आवेदन करने में मदद करना. शिंदे को उम्मीद है कि फौजिया इस काम को आगे भी करती रहेगी, खासकर जब वह एक ऐसी समुदाय की पहचान बन चुकी हैं.
शिंदे ने बताया, ‘यह काफी हैरानी वाली बात है कि वह इतनी कम उम्र में पहले से ही यह काम कर रही है. मुझे उम्मीद है कि वह 12वीं कक्षा पास करने के बाद औपचारिक प्रशिक्षण की तरफ जाने का चयन करेगी. ताकि वह औपचारिक क्षमता के साथ मदद कर सके.’
हालांकि, राज्य के समर्थन की कमी एक बाधा है. शिंदे को अपने दूसरे बीएड के लिए खुद से पैसा लगाना पड़ा था. उन्होंने जुलाई में भोपाल में एक आठ दिवसीय सांकेतिक भाषा कार्यशाला में भी भाग लिया था. यहां भी उन्हें अपने पैसे खर्च करने पड़े. शिंदे कहती हैं कि फौजिया को इस रास्ते पर चलते रहने के लिए काफी सेल्फ-मोटिवेशन की जरूरत होगी.
फौजिया और अंजलि शिंदे, दोनों शांत भाव से एक जैसी एजेंसियों को अपनी सेवाएं और समय देने में लगे हुए हैं. लेकिन वह एक-दूसरे से कभी नहीं मिले है. शिंदे ने अगस्त 2022 में प्रकाशित दैनिक भास्कर लेख के जरिए पहली बार फौजिया के बारे में सुना था.
फौजिया और अंजलि शिंदे कभी नहीं मिले.
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